Featured

चुनाव हार जाने और सत्ता छिनने के बाद गैरसैण प्रेम जाग जाता है हमारे नेताओं का

मेरा गाँव वैसे तो तीन दशकों से पीने के पानी जैसी बुनियादी जरूरत की किल्लत झेल रहा है लेकिन पिछले दस सालों के दौरान मेरे गाँव की एक बड़ी आबादी को सरकारी पाईप लाईन से पानी मिलना लगभग बंद हो चुका है. जिस तरफ से पीने के पानी की सरकारी लाईन गाँव में दाखिल होती है मेरा घर उसके बिलकुल विपरीत दिशा में स्थित है. संयुक्त उत्तर प्रदेश के समय तक बस्ती के दूसरे छोर से लोगों की प्यास बुझाकर हमारे घर तक सरकारी पाईप लाईन में थोड़ा बहुत पानी पहुँच जाता था लेकिन उत्तराखंड राज्य बनने के कुछ सालों के भीतर मुझ समेत गाँव के बहुत से लोगों को सरकारी लाईन से पानी मिलना लगभग बंद ही हो गया. Gairsain is a Political Shuttlecock

यह व्यथा मेरे गाँव भर की नहीं है, उत्तराखंड के परिरेक्ष्य में यह पतीले में निकाले गये चावल के उस एक दाने की पड़ताल के जैसी है जो उसमें पक रहे भात की स्थिति स्पष्ट कर देता है. संयुक्त उत्तर प्रदेश के इस पहाड़ी भाग को एक राज्य के रुप में इसलिए अलग किया गया था कि अपनी भौगोलिक और सामाजिक भिन्नताओं के चलते इसकी प्रशासनिक और आर्थिक आवश्यकताएं भी अलग है. जिन लोगों ने उत्तराखंड की एक राज्य के रूप में कल्पना की, वे जानते थे कि पहाड़ के गाँवों की मूलभूत जरूरतों का ख्याल लखनऊ से नही रखा जा सकता. इसी विचार के साथ एक अलग राज्य और उसकी राजधानी की संकल्पना अस्तित्व में आई. लेकिन इस पहाड़ी राज्य का दुर्भाग्य देखिए, इसके प्रशासनिक ढांचे को मूलरूप प्रदान करने के लिए बनाए गये दीक्षित आयोग की रपट में प्रस्तावित होने के बावजूद भी गैरसैण पिछले उन्नीस सालों से राज्य की राजधानी घोषित नही हो पायी. यही कारण रहा कि पहाड़ के जिन सरोकारों के लिए इस राज्य का गठन हुआ था, वे इसके नीति नियंताओं की बदौलत हाशिए पर चले गये. कितना दुखद है कि आठ मुख्यमंत्रियों के पदासीन होने के बावजूद भी गैरसैण राजधानी का मसला कभी चुनावी मुद्दे से आगे नही बढ़ सका. Gairsain is a Political Shuttlecock

गैरसैण का राजधानी होना एक पहाड़ी राज्य के समग्र विकास के नींव का पत्थर साबित हो सकता था लेकिन राजनेताओं के स्वार्थी आचरण और उत्तर प्रदेश से बंटवारे में हासिल नौकरशाही ने देहरादून में ऐसी जड़ें जमा लीं कि आज तक हिलाए से नहीं हिलती. नया राज्य बनने के बाद जहाँ सूदूर पहाड़ों के गाँव कस्बों में सरकार द्वारा प्रदत्त बुनियादी सुविधाओं का मजबूत ढांचा विकसित होना चाहिए था, वहाँ हुआ ये कि बहुत सारे सरकारी महकमें, जो संयुक्त उत्तर प्रदेश के समय पहाड़ी जिला मुख्यालयों पर स्थित थे, देहरादून लाए गये, जिसके चलते देहरादून जैसा शानदार शहर बेतरतीब निर्माण और माफियाओं की भेंट चढ गया. उधर पहाड़ का तो हाल और भी बुरा हुआ. वहाँ स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार जैसे मसलों की तो बात ही छोड़ दीजिए, साफ पानी की बहुलता के लिए विख्यात इस राज्य के पहाड़ी गाँव-कस्बे पीने के पानी तक का अभाव झेल रहे हैं. Gairsain is a Political Shuttlecock

बीसवें साल में प्रवेश कर चुके इस पहाड़ी प्रदेश को आज की तारीख़ में किसी हष्ट पुष्ट युवा की तरह स्वावलंबी होना चाहिए था लेकिन अस्तित्व में आने से लेकर आज तक इसकी गत उस कुपोषित किशोर के जैसी है जिसके अंग प्रत्येक पर परजीवियों नें सैंध लगा रखी हो. राज्य बनने के बाद पहाड़ों से हुए अंधाधुंध पलायन से पता चलता है कि वहाँ मूलभूत सुविधाओं की स्थिति कैसी हो चुकी है. गाँव में दसवीं पास करते ही युवा सैलाकुई और रुद्रपुर जैसे कस्बों में पाँच हजार की नौकरी करने आ जाते है. पाँच हजार तो वो गाँव में भी बड़े आराम और खुशी के साथ कमा सकता है लेकिन उसे भी तो बुनियादी सुविधाएं चाहिए. उसकी प्राथमिकताएं भी तो बिजली,पानी, शिक्षा और स्वास्थय है जो कि सरकार उसके गाँव में उसे उन्नीस साल बाद भी मुहैया नही करवा पायी है. Gairsain is a Political Shuttlecock

उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्र की दयनीय स्थिति का एक बड़ा कारण उत्तराखंड पुत्रों का तराई प्रेम भी है. अभी तक इस अभागे प्रदेश को एक भी ऐसा अगुआ नहीं मिला जो कुशल विशेषज्ञों से पहाड़ के संसाधनों के सही और समुचित इस्तेमाल के लिए कोई फूलप्रूफ खाका तैयार करवाता और जैविक खेती, बागवानी और पर्यटन जैसे रोजगार परक व्यवसायों को आधुनिक और उन्नत तकनीक मुहैया करवाता. अपनी राजनीतिक असुरक्षाओं और खजाने की फिक्र के चलते इस प्रदेश का प्रत्येक लीडर तराई की ताक में पाया जाता है. अल्मौड़ा से अपनी सफल संसदीय राजनीति की शुरूआत करने वाले हरीश रावत के तराई प्रेम का हश्र पिछले विधान सभा चुनाव में सभी ने देख लिया है. जबकि पौड़ी से चले निशंक अब हरिद्वार के हो चुके हैं. Gairsain is a Political Shuttlecock

इधर हरक सिंह की इच्छा जहाँ बिजनौर और नजीबाबाद को आत्मसात करने की हैं वहीं हमारे माननीय मुख्यमंत्री सहारनपुर को उत्तराखंड में शामिल कर इसे अपनी उपलब्धि बनाना चाहते हैं. चुनाव हार जाने और सत्ताच्युत होने के बाद इन नेताओं का गैरसैण प्रेम जाग जाता है.

चुनावी बतौलेबाजी के अलावा इन सबों के विजन में गैरसैण कहीं है ही नहीं. अगर समय रहते गैरसैण राजधानी बन गयी होती तो प्रदेश के प्रशासनिक तंत्र की यह दशा नही होती. अगर राज्य का राजनैतिक मुखिया गैरसैण में बैठता तो प्रदेश के चुने हुए जन प्रतिनिधि अपने क्षेत्र में रहने को बाध्य होते. अगर मुख्य सचिव और सचिव गैरसैण में रह रहे होते तो पंचायत सचिव अपने ग्राम सभा क्षेत्रों में पाए जाते. दुर्गम पहाड़ी गाँवों से सुगम क्षेत्रों में बदली की चाह रखने वाले कर्मचारी गैरसैण में रह रहे उच्च अधिकारियों और सत्तासीन जन प्रतिनिधियों से सिफारिश से पहले दस बार सोचते. यही नहीं, पहाड़ के दुरूह क्षेत्रों में काम करने वाला किस प्रकार की समस्याओं से दो चार होता है, इसका अनुभव गैरसैण से बेहतर कहीं हो ही नहीं सकता. गैरसैण के बहाने जब नौकरशाही पहाड़ चढ जाती तो फिर डाक्टर और अभियंता भी खुशी खुशी उत्तराखंड का ओर छोर नाप लेते. गैरसैण इसलिए ही प्रसांगिक नहीं कि वो उत्तराखंड के केंद्र में स्थित है , वो इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि वह एक पहाड़ी राज्य की व्यवस्था का सच्चा प्रतिनिधि है.

देहरादून के आस पास रहने वालों को इस बात का मुगालता हो सकता है कि गैरसैण में राजधानी होने के बाद उन्हे सरकारी कार्यों के निष्पादन के लिए बहुत दूर सफर करना पड़ेगा लेकिन मेरा मानना है कि सचिवालय और विधान सभा में आम आदमी को ऐसा कोई खास काम कितनी बार पड़ता है कि उसे वहाँ आते जाते रहना पड़े. हाँ, दलालों कलालों को थोड़ा कष्ट जरूर होगा. आमजनों के लिए तो पहले से ही ब्लॉक, तहसील और जिला स्तर की व्यवस्था ईजाद है. रही बात विधान सभा तथा सचिवालय के कर्मचारियों, अधिकारियों और जन प्रतिनिधियों की तो उन्हे इस बात को अच्छे से समझ लेना चाहिए कि वे लोक सेवक है, वे इसके बदले अच्छी खासी पगार और सुविधाएं पाते हैं. Gairsain is a Political Shuttlecock

अगर देश का जवान सरहद पर बंम बंदूकों के बीच हंसते खेलते अपनी ड्यूटी पूरी कर सकता है तो इन्हें भी जनता की सेवा के लिए बिना किसी ना नुकुर के अपने आप गैरसैण कूच के लिए की तैयार हो जाना चाहिए. अभी तक उत्तराखंड की आम जनता नेताओं के सम्मोहन में है लेकिन जिस दिन वह संगठित होकर इस तिलिस्म से बाहर निकलेगी उस दिन खजाने पर पलने वालों की खैर नही होगी. इतिहास गवाह है, जनता आक्रोशित होकर जब भी अपनी पर आ जाती है तो वो अच्छे अच्छों को ठीक ठाक कर देती है.

-सुभाष तराण

इसे भी पढ़ें: बाघ, बारिश और रोटी – पहाड़ियों के संघर्ष की एक कहानी ऐसी भी

काफल ट्री के फेसबुक पेज को लाइक करें : Kafal Tree Online

स्वयं को “छुट्टा विचारक, घूमंतू कथाकार और सड़क छाप कवि” बताने वाले सुभाष तराण उत्तराखंड के जौनसार-भाबर इलाके से ताल्लुक रखते हैं और उनका पैतृक घर अटाल गाँव में है. फिलहाल दिल्ली में नौकरी करते हैं. हमें उम्मीद है अपने चुटीले और धारदार लेखन के लिए जाने जाने वाले सुभाष काफल ट्री पर नियमित लिखेंगे.

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Kafal Tree

Recent Posts

उत्तराखंड में सेवा क्षेत्र का विकास व रणनीतियाँ

उत्तराखंड की भौगोलिक, सांस्कृतिक व पर्यावरणीय विशेषताएं इसे पारम्परिक व आधुनिक दोनों प्रकार की सेवाओं…

2 days ago

जब रुद्रचंद ने अकेले द्वन्द युद्ध जीतकर मुगलों को तराई से भगाया

अल्मोड़ा गजेटियर किताब के अनुसार, कुमाऊँ के एक नये राजा के शासनारंभ के समय सबसे…

6 days ago

कैसे बसी पाटलिपुत्र नगरी

हमारी वेबसाइट पर हम कथासरित्सागर की कहानियाँ साझा कर रहे हैं. इससे पहले आप "पुष्पदन्त…

6 days ago

पुष्पदंत बने वररुचि और सीखे वेद

आपने यह कहानी पढ़ी "पुष्पदन्त और माल्यवान को मिला श्राप". आज की कहानी में जानते…

6 days ago

चतुर कमला और उसके आलसी पति की कहानी

बहुत पुराने समय की बात है, एक पंजाबी गाँव में कमला नाम की एक स्त्री…

6 days ago

माँ! मैं बस लिख देना चाहती हूं- तुम्हारे नाम

आज दिसंबर की शुरुआत हो रही है और साल 2025 अपने आखिरी दिनों की तरफ…

6 days ago