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गबला देव: हिमालय की सौका जनजाति के आराध्यदेव

हिमालय के सौका आदिवासियों के अराध्यदेव..
जै हया दंतो गबला सै-जय हय दंत गर्बीला देव..

—डूंगर सिंह ढ़करियाल ‘हिमरज’

हिन्दू पुराण के अनुसार हिमालय धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष का दाता है. हिमालय स्वयं नारायण स्वरूप अत्यन्त पवित्र है. देवाधिदेव महादेव का निवास मां पार्वती की जन्मभूमि इसी पावन हिमालय में होने का उल्लेख मिलता है. हिमालय की इंच-इंच धरती में उगने वाले घास पेड़-पौधे, कन्दमूल सभी औषधि तथा यहां की शीतल निर्मल जलवायु अमृत है. समूचे हिमालय में जितने कंकर है उतने ही भगवान शंकर हैं. भारत के महान ऋषि मुनियों तथा विद्वजनों ने स्वर्ग की कल्पना इसी हिमालय से की है. आज भी भारत की धरती में निवास करने वाला प्रत्येक व्यक्ति हिमालय को देवभूमि मानता है.

हिमालय में निवास करने वाले सौका आदिवासी एक नहीं अनेक देवी-देवताओं को पूजते हैं. चौदह गांव के 14 देवता महादेव, माफर, छयुङ, लारोड़, पुक्टाङ, दुम्फौ, रंचिम, च्युति-गबला पौमी, साजिर, मुजिर, बाक्ती (भगवती), मूदारू (इन्द्र), गबला ये सब स्याङ सै के विभिन्न स्वरूप हैं. इसके अतिरिक्त कई अन्य देवी-देवता होते हैं. किंतु भौगोलिक परिस्थिति के अनुसार तथा आंचलिक बोलियां के आधार पर विभिन्न नामों से सम्बोधित किये जाते हैं समय परिस्थिति के विशेष घटनाओं के साथ भी देवताओं का नाम जुड़ा है. हिमालय देव मूसै-वर्षा देव (इन्द्र) बूसै-कीडों का देव, प्या-से-पक्षियों का देव आदि क्रमशः हिमालय के हिमाच्छादित पर्वत मालाओं को पार करने से पूर्व अपनी जान-माल, पशुधन की रक्षा की कामना करते हुए हिमालय देव की आराधना की जाती है. खेत की जुताई-बुवाई के अवसर पर वर्षादेव, कीड़ों से अंकुर फूटते समय कीड़ों का देव, फसल पकने की बेला में चिड़ियों का देव की स्तुति की जाती है.

किन्तु इन सब में एक विशेष न्यायिक शक्ति श्रोत देवता पर सौकों का अडिग विश्वास युगों से केन्द्रित हैं कहा जाता है कि यदि कोई निर्दोष व्यक्ति पापियों द्वारा सताया जाता है या किसी की सम्पत्ति चोरी जाती है, अथवा बलवानों द्वारा निर्बलों की धन सम्पत्ति, घरती छीनी जाती है तो शोषित व्यक्ति पंचायत तथा सरकार तक न्याय की याचना करता है. कहीं से भी न्याय न मिलने की स्थिति में वह निरीह मानव गबलादेव से शिकायत करता है. शिकायत सुनते ही आतताई पर देवता का तुरन्त प्रकोप पड़ते ही पारिवारिक संकट, दुर्घटना अपमान तथा मौत का भी सामना करना पड़ता है. इसके अतिरिक्त यदि मानव अपनी सफलता के गर्व में भ्रष्टाचार अनैतिकता, भौतिकी चमत्कार के धोखे में परमपिता जगत जननी के भुला देना जैसे कुकृत्यों में तुल जाता है तो देवता क्रोधित होकर उक्त मानव का अहित करने लगता है. पापियों दुष्टात्माओं व बैरियों का नाश करने वाला देवता दंतो गबला ही माना जाता है. दूसरी ओर यह विश्वास भी उतना ही अडिग है कि मानव अपनी गलती का पाश्चाताप कर परम्परानुसार देवता की पूजा-अर्चना करे तो बहुत संकट टल जाते हैं.

सौका आदिवासियों के अतिरिक्त अन्य पर्वतीय क्षेत्रों में भी विभिन्न नामों से उक्त महान शक्तिशाली देवता की अपार श्रद्धा, अडिग विश्वास को लेकर पूजा की जाती है. कुमाऊँ के पर्वतीय क्षेत्र में गारिलादेव, गोरियल, गोल्ला तथा गोल देवता के नाम से विख्यात देव भी गबला देव साम्य है. धन धान्य मान सम्मान, सन्तान, परम्पराओं का दाता प्रकृति का स्वरूप गबला देव प्राचीनकाल में महान राजा ‘च्यर्का ह्या’ का इष्टदेव रहा है. इसलिए राजा के निवास स्थान दांत में तभी से दन्तों गबला की चौदह गांव सम्मिलित होकर पूजा होती रही.

कालांतर में सामूहिक पूजा को छोड़कर सुविधानुसार गबलादेव पृथक-पृथक गांव में स्थापित कर अन्य देवताओं को भांति प्रतिवर्ष पूजते आ रहे थे. कई दशक के उपरान्त अप्रैल 1975 में श्री जे. एल. पांडे के स्वप्न द्वारा लेखक को चुनौती दी गई. दुर्भाग्यवश उन बातों को कपोल कल्पना व अन्धविश्वास की संज्ञा दे कर टाल दिया गया था. जुलाई 1975 के सायं देवता का वास्तव में प्रकोप लेखक पर पड़ते ही मानव की अभिलाषा व महत्वाकांक्षाएं सर्वे लुप्त हो गयी. गौण मानव मन फड़फड़ाने लगा, यत्र तत्र सर्वत्र उस परम पिता परमेश्वर का ही चमत्मकार आभास होने लगा. इस संकट कालीन बेला में अपना दन्तों गबला ही माना जाता है. दूसरी ओर यह विश्वास भी उतना ही अड़िग है कि मानव अपनी गलती का पाश्चाताप कर परम्परानुसार देवता की पूजा अर्चना करे तो वह संकट टल जाता है.

महीनों पश्चात् लेखक को स्वप्न द्वारा प्रेरणा मिली कि भगवान शिव के समाधि स्थल ग्राम दांतू में पुनः सामूहिक रूप से विधिवत गबला देव की पूजा की जाय. उतने में समस्त दारमा वासियों ने उक्त धार्मिक स्थल में आधुनिक मन्दिर का निर्माण कर भगवान शंकर, गबला तथा हनुमान जी की मूतियां स्थापित कर प्रतिष्ठा कर चुके हैं. अब 1977 से गबला देव के नाम से मेले का आयोजन किया जाता है. मेले पारम्परिक सांस्कृतिक रंग बिरंगे आभूषण तथा परिधानों से सज-धजकर (बाजे-गाजे के साथ) पृथक-पृथक गांव की छोलिया पारम्परिक छोलिया नृत्य करते हुए मन्दिर में एकत्रित होकर पूजा करते हैं. नृत्य-गीत खेलकूद का आकर्षक कार्यक्रम तीन दिन तक निरन्तर चलता रहता है.

लेखक का आदिवासियों के आराध्यदेव गबला की वास्तविक कृति ईश्वर के प्रति दीवाना मन की प्रेरणा से उपलब्ध हुई है जो देवता के आदेश एवं प्रेरणा ही कहा जा सकता है. गबला देव बाघम्बर व मुन्डमाला धारण करता है तथा हिमानी की भांति सफेद धवल घोड़ा उसका वाहन है.

वह प्रकाश भी है. अंधकार भी और मृत्यु के देवता यम भी कभी उसका दृष्टिपात भयंकर होता है तो कभी उसकी चितवन से माधुर्य बरसता है. वह साक्षात मृत्यु है. जो अटकते रक्त झरते मांस से विदारण और भक्षण में आन्नद लेता है. स्वयं गबला देव कहता है कि मैं रुद्र के धनुष को तानता हूं, ताकि वह अपने तीर से देवताओं को भक्ति से घृणा करने वालों का संहार करे.

शिव पुराण के अनुसार प्रजापति दक्ष की पुत्री भगवान शंकर की पत्नी थी. अभिमानी दक्ष भगवान की वेष भूषा से अप्रसन्न रहते थे. दक्ष ने महायज्ञ में भगवान शंकर को आमंत्रित नहीं किया, पिता के दुव्यवहार से पतिव्रता सती की आत्मा को ठेस पहुंची और उसी पल भूमि में स्वंय अग्निदेव को समर्पित हो गयी इस समाचार से महादेव अत्यन्त दुखी हुए और उनके मन में क्रोध की अग्नि भड़क उठी. उसी समय वीर भद्र तथा महाकाली का जन्म कराकर आदेश दिया कि तुम लोग गण सेना सहित जाओ और दक्ष प्रजापति सहित उसका यज्ञ मण्डप नष्ट कर दो.

वीरभद्र की सेना ने सारे हिमालय में हाहाकार मचा दिया. सारी पृथ्वी में भूकम्प हुआ, दिशाएं मलीन हो गई और सूर्य में काले दाग दिखाई देने लगे. बिजली और अग्नि के समान नक्षत्र गिरने लगे. गिद्ध दक्ष के सिर मडराने लगे जिनकी छाया से यज्ञ मण्डप ढक गया. उसी समय आकाशवाणी हुई कि दक्ष तुझे धिक्कार है. यह सुनकर दक्ष बड़ा दुखी हुआ और कांपता हुआ विष्णु भगवान के शरण में जाकर स्तुति करते हुए बोला हे भगवान मेरी रक्षा कीजिए, विष्णु भगवान बोले, हे दक्ष तुमने भगवान शिवजी को क्यों भुला दिया? सर्वेश्वर भगवान शंकर की अवज्ञा का यही फल होता है. अतएव अब तुम श्रद्धापूर्वक भगवान शिव की पूजा करो.

तब तक महासेना सहित यज्ञ मण्डप में आ पहुंचा. सातों द्वीपों सहित पृथ्वी कांप उठी, समस्त समुद्र धर्रा उठे. भगवान विष्णु बोले हे दक्ष! यह वीरभद्र शिवजी के शत्रुओं का सदा ही नाश करता है. दक्षा सेना का शिवगणों से घोर युद्ध हुआ. इस पर महाबली वीरभद्र त्रिशूल लेकर देवताओं पर टूट पड़ा और एक-एक को मार गिराना आरम्भ कर दिया. इस भयंकर प्रहार से असंख्य देवता मारे गये और शेष भाग खड़ हुए. इस प्रकार की विध्वंसलीला को देख कर दक्ष अपने मुंह से खून की कै करने लगा. दक्ष अपनी पत्नी सहित भगवान विष्णु की चरण में गिरकर स्तुतिकरता है. हे स्वामी़? मेरे और मेरे यज्ञ की रक्षा कीजिए.

महाबलि वीरभद्र ने कहा है सभी चतुर देवताओं सावधान हो जाओ ऐसा कहकर चोटी के देवताओं पर अपनी तीखी मार करने लगे. उनकी भयंकर मार से सभी देवता भाग गये. स्वयं विष्णु भगवान वीरभद्र के साथ युद्ध करने लगे विष्णु भगवान के सभी प्रयास विफल होनेके उपरान्त वे अन्तर्धान हो गये. वीरभद्र यज्ञ सथल से बचे-खुचे देवताओं को एक-एक कर मारने लगा. दक्ष का सिर मरोड़ कर तोड़ डाला और अग्नि देवता को समर्पित कर दिया. इन समाचारों से भगवान शंकर अत्यन्त ही प्रसन्न हो वीरभद्र को अपने गणों का नायक बना दिया. विष्णु भगवान बोले अब हम सबको मिलकर भगवान शंकर की स्तुति करनी होगी.

तब सभी देवतओं ने मिलकर भगवान शंकर को बार-बार नमस्कार कर उनके अनेकों नामों सहित स्तुति की और कहा कि हे दयासागर! हे महेश्वर! हे परमेश्वर! आपकी कृपा के बिना हम सब नष्ट-भ्रष्ट हो गये हैं. आपसे हमारी प्रार्थना है कि आप प्रसन्न होकर हमारी रक्षा कीजिए हे शंकर जी! हे नाथ! आप कृपा करके सभी देवतओं को जीवित कर दीजिये और दक्ष के यज्ञ को पूर्ण कर दीजिये. हम लोग इस अवशिष्ट यज्ञ कर्म में आप को भाग देंगे. इसलिए यज्ञ की फिर रचना करना चाहते हैं. कहते हुए सभी महान देवता भगवान शंकर के चरणों में कटे पेड़ की भांति गिर पड़े भगवान शिव ने कहा कि तथास्तु. कहते हैं की वीरभद्र, गण सेना भगवान के निर्णय से उदास हो गये. तब भगवान शंकर ने कहा हे वीरभद्र, गण सेनाओं तुम्हारे कार्य से मैं अत्यन्त ही प्रसन्न हूं. तुम्हें उदास होने की आवश्यता नहीं है. मैं तुम्हें वरदान देता हूं कि हिमालय में निवास करने वाले मानव मात्र सुन्दर भेड़ों व बकरों की बलि चढ़ाकर उनके मांस से तुम्हें तृप्त करेंगे. मान्यता है कि तभी से हिमालय के हर पर्वतीय क्षेत्र में गणदेवता ‘‘जय हय दंत गर्बीला देव’’ निरन्तर विचरण करता है. यह भी विश्वास किया जाता है कि भगवान शिव पार्वती की सभी लीलायें इसी पंचाचूली के सौन्दर्यशील दारमा ‘दन्त’ नामक स्थान में सम्पन्न हुई हैं.

सौकों का विश्वास है कि देवताओं का ‘‘सुम सै दुक्शा ज्या’’ (360 दिन) एक वर्ष का एक दिन पितरों का 1 माह का दिन होता है. इसलिए ठीक एक वर्ष में देवपूजा, प्रतिमाह में श्यिमी थुमो (पितृ पूजा) होती है बारहवें वर्ष में देवताओं का एक विषेश पूजा ‘‘आलम सम्मों’’ किया जाता है. जिसको कुम्भ की संज्ञा दी जाती है.

इसी महान शक्तिशाली देवता की पूजा में‘दारमा रङ च्योपी च्यूखू एक जुट होकर हर्षो उल्लास के साथ भगवान का दर्शन करते हैं. अपनी सुख सम्पत्ति की याचना करते हुए खाते-पीते, गाते-नाचते हैं.

अमटीकर 2012 से साभार

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Sudhir Kumar

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  • काफल ट्री आपके प्रयासों की दिल से सराहना करता हूं आपके वाल से हमें बेहद रोचक जानकारी मिलती है परन्तु आज का यह लेख गबला देव के संदर्भ में शौका समुदाय से संबंधित न होकर रंग समुदाय से है। जिसे सही किया जाना आवश्यक है। ऐसे गलत पोस्ट से काफल ट्री वाल की विस्वसनीयता व शाख भी कम होती है। अतः सुधार आवश्यक है ???

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