सन 1900 के करीब अलीगढ़ के गांव काजमाबाद से रामचन्द्र जी भी यहां आये और साझे में हलवाई की दुकान पर कार्य शुरू कर दी. बाद में उन्होंने नया बाजार में खुद की हलवाई की दुकान खोली और फिर रस्सी बाजार में. मूछों वाले और घण्टे वलो के नाम से मशहूर रामचन्द्र जी ने किलाबाजार (मंगल पड़ाव से लगा) में भी दुकान खोली. इनके एकमात्र पुत्र यादराम थे. अपने पिता के साथ कार्य करते हुए यादराम जी ने सन 1944 के करीब यादराम फर्म खोल ली. यह एक ऐसी दुकान बनी जिसमें छुटपुट हर सामान उपलब्ध हो जाता था. आयुर्वेदिक दवाओं के लिये भी लोग दूर-दूर से यादराम जी की दुकान में अब भी आते हैं. यादराम के चार पुत्र दयाशंकर, महेश चन्द्र, नरेश कुमार और उमेश चन्द्र हैं.
राजस्थान के अलवर जिले के ग्राम बेडै़ात के नेताराम जी सबसे पहले यहां बसे. इनके भाई रामनारायण जी थे. रामनारायण के पुत्र शंकर लाल हुए और शंकर लाल के तीन पुत्र– बाबूलाल, भगवानदास, नरेश हैं. राजा-रजवाड़ों के जमाने में अलवर में भी राजाओं और उनके खास लोगों के शिकार खेलने के लिए रिजर्व जंगल होते थे. राजा कई लोगों के साथ जंगली जानवरों का शिकार करने जाते थे. उन दिनों समाज का मुख्य कार्य कृषि था और कृषि पर ही सारे कारोबार निर्भर करते थे. आखेट की इस परम्परा से भयभीत जंगली जानवर गांवों की ओर आने लगे. सुअरों ने खेतों में कहर ढा दिया. प्रजा को उन्हें मारने पर पाबंदी थी. ऐसे में लोग हाहाकार कर उठे और पलायन की सोचने लगे. दूसरे जगह जाकर काम-काज के लिये आर्थिक संसाधन भी जरूरी थे लेकिन कमजोर लोग पिसते चले गये. जब सैनिक लोग छुट्टी पर अपने घरों को जाते थे तो कुछ बहुत छोटी दुकानें चलाकर अपना समय काट लेते थे. इस प्रकार लोग ग्राम बेड़ौत से भी मुक्ति चाहने लगे थे. उस समय जमींदार या इस प्रकार के किसी व्यक्ति के सामने जाने पर लेाग बैठ नहीं सकते थे. एक दिन नेताराम जी ने ध्यान नहीं दिया और वह जमींदार के आने पर भी चारपाई में बैठे रहे, जमींदार ने उन्हें थप्पड़ जड़ दिया. नेताराम जी यह अपमान नहीं सह सके और गांव से चल दिये. उस समय गांव में कहावत भी चल पड़ी –‘राज का पिटा, पिटा नहीं होता है.’ नेताराम अविवाहित थे और वह बहेड़ी की प्रसिद्ध चीनी मिल में आकर काम करने लगे. उस दौर में मिल में चीनी सफाई के लिये हड्डियों का प्रयोग होता था, जिस कारण चीनी को लोग अशुद्ध मानते हुए प्रयोग में नही लाते थे और गुड़ का ज्यादा प्रचलन था. मिल की ओर से उस समय कई जगह डिपो खोले गये. उसी क्रम में नेतराम को अल्मोड़ा में मिल का मुनीम बनाकर भेज दिया गया, वहां उन्हें ‘बहेड़ी वाले लाला’ के नाम से जाना जाने लगा. चीनी डिपो बन्द होने के बाद सन 1936 में अल्मोड़ा में लक्ष्मीनारायण नेतराम फर्म खुली जिसमें राशन रखा गया. उस दौर में हल्द्वानी में 4-5 सिक्ख और इतने ही पंजाबी परिवार थे. जिनमें से दीनानाथ की तेल मिल हुआ करती थी. दीनानाथ जी जाने-माने व्यापारी थे. वह जब अपनी डौज कार से अल्मोड़ा जाया करते थे तो उनके ड्राइवर को रास्ते भर उनका हुक्का भी भरना होता था. तब हुक्का पीने का प्रचलन काफी था.
उस समय प्रसिद्ध डाक्टर खजान चन्द के भाई लोगों की अल्मोड़ा में दुकान थी जिनसे नेतराम की अच्छी मित्रता था. तब लाला की फर्म का सामान हल्द्वानी से भी आता था, ऐसे में नेतराम ने शंकरलाल को भी बुला लिया. अपना जमजमाव करने के बाद सन 1935 में शंकरलाल ने सदर बाजार में दुकान खोल ली. जगदीश प्रसाद रामेश्वर फर्म में तीन लोग साझीदार थे. उस समय के चिट्ठे देखने पर पता चलता है कि एक रुपये से कम के खर्च में सब्जी, दूध इत्यादि सारा सामान आ जाता था. पूरे साल में 360 रुपये का लाभ हुआ जो तीन हिस्सों में बांटा गया. उस दौर में सदर बाजार से लगे तेल बाजार में ‘नन्दलाल स्कूल’ था. पंजाबी परिवार के नन्दलाल ने इस स्कूल में जो अनुशासन बनाया वह दूर-दूर तक याद किया जाता था. इसमें कक्षा पांच तक पढ़ाई होती थी. इस स्कूल के पढ़े हुए बच्चों को कहीं भी आसानी से प्रवेश मिल जाता था.
उप्र राज्य में व्यापारियों का प्रतिनिधित्व कर चुके बाबूलाल का कई संस्थाओं को संरक्षण है. प्रान्तीय उद्योग व्यापार मण्डल के संरक्षकों में से एक बाबू लाल अपने बचपन को याद करते हुए बताते हैं कि पिता जी का कारोबार जमने के बाद वह अपने परिवार सहित राजस्थान से कक्षा पांच की पढ़ाई करके हल्द्वानी आ गये. उस समय इनका परिवार साहूकारा लाइन में रहता था. घरों में न न होने से सभी लोग बाहर पानी भरने जाया करते थे. शौच के लिये गौला के किनारे जाना होता था. स्नान के लिये मुखानी नहर या राममन्दिर से लगी मटरगली वाली नहर का पानी था. लोग मटर गली वाली नहर में स्नान के बाद पूजा करते थे. जगदीश प्रसाद रामेश्वर फर्म के बट जाने के बाद सन 1946 में हल्द्वानी में लक्ष्मीनारायण नेतराम फर्म बनी. लक्ष्मीनारायण इसी खानदान के थे जिन्हेांने बाबूलाल जी के चाचा रामकिशोर को संरक्षण दिया था. बाबू लाल बताते हैं कि उस जमाने में हल्द्वानी ट्रांजिट कैम्प सा बन गया था. हर जगह से लोग आने लगे थे और लोगों में भाईचारा था. भाईचारा बढ़ाने के लिये दीपावली के दिन एक परात में मिठाई रखकर सब दुकानदारों को चार-चार लड्डू दिये जात थे. इसी प्रकार रक्षा बन्धन के दिन ब्राह्मण रक्षा बांधने आते थे और लोग उन्हें दक्षिणा देते थे. मंगलवार को लगने वाली पैंठ में जो भी व्यापारी बैलगाड़ी खरीदकर आता था वह राममन्दिर में गुड़ की भेली चढ़ाता था. प्रति बैलगाड़ी दो भेली गुड़ के हिसाब से मन्दिर के लिये अलग रख दी जाती थी.
तकरीबन सौ साल पूर्व बड़ौत जिला अलवर से हल्द्वानी आकर बस जाने वालों में भैरव प्रसाद का भी बहुत बड़ा कुनबा यहां का होकर रह गया है. इस बड़े परिवार का कालाढूंगी चैराहे पर पुराना कार्यस्थल रहा है. मंगतराम-रामसहाय नाम से फल की पुरानी आढ़त इनका कारोबार थी. कपड़े की दुकान सहित व्यापार में जुटे रहने वाले इस परिवार के गजानन्द गुप्ता ने 1984 में लालकुंआ में सेन्चुरी पेपर मिल खुलते ही पेपर की एजेंसी शुरू कर दी. ‘माडर्न पेपर एजेंसी’ नाम से चली फर्म में सेन्चुरी के अलावा बरेली, मुरादाबार से कागज रखवाया गया. आज इस परिवार का पेपटर सप्लाई का बड़ा कार्य है. गुप्ता की वर्तमान में भोलानाथ गार्डन में कृष्णा पेपर एजेंसी के नाम से फर्म चलती है जो पूरे कुमाऊं को पेपर सप्लाई करते हैं.
ऐसा नहीं है कि बाहर से आने वाले सभी व्यापारियों ने सबसे पहले हल्द्वानी में अपना जमजमाव किया. व्यापारियों का पहाड़ से पुरान रिश्ता रहा है. अल्मोड़ा, पिथौरागढ़ सहित तमाम स्थानों में अपने कारोबार की शुरूआत करने के बाद कई परिवार बाद में हल्द्वानी आये. इसी प्रकार सुरम्य नगरी रानीखेत से व्यापारियों का बहुत लगाव रहा है. इन्हीं में से एक रामनिवास अग्रवाल का परिवार है.
(जारी)
स्व. आनंद बल्लभ उप्रेती की पुस्तक ‘हल्द्वानी- स्मृतियों के झरोखे से’ के आधार पर
पिछली कड़ी का लिंक: हल्द्वानी के इतिहास के विस्मृत पन्ने- 58
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