वर्तमान में इलैकट्रानिक मीडिया के कई चैनल काम करने लगे हैं. समाचार पत्रों के प्रकाशन की भी बाढ़ सी आ गई है और यह काम आधुनिक टैक्नालॉजी के प्रवेश से आसान भी होता जा रहा है. पत्रकारिता में व्यवसायिकता के प्रवेश ने पुरानी तमाम मान्यताओं को खारिज सा कर दिया है. आज प्रकाशन प्रारम्भ करने के साथ ही सरकारी मान्यता के लिए सौदेबाजी का दौर शुरू हो जाता है. समाचार पत्र प्रकाशन के बारह साल तक भी मुझे मान्यता नहीं मिल पाई. कारण स्पष्ट था. मेरी प्रतिबद्धता अपने पाठकों के प्रति थी और सूचना विभाग के अधिकारियों की प्रतिबद्धता एक गिरोह के प्रति थी, जिसमें राजनेता, सरकारी तंत्र और चाटुकार पत्रकार हुआ करते थे. नारायण दत्त तिवारी के कृपा पात्र तत्कालीन सूचना अधिकारी भैरव दत्त शर्मा जो उपनिदेशक हो जान के बाद नैनीताल में ही रहे, मेरे बहुत पुराने परिचित थे. मैं उन्हें तब से जानता था जब वे रूद्रपुर में सरस्वती शिशुमंदिर में आचार्य थे. उनका और मेरा आवास एक साथ था और हल्द्वानी में भी जगदम्बा नगर में हम आस-पास रहे थे. वे मान्यता कमेटी को भेजी जाने वाली रिपोर्ट में मेरे समाचार पत्र को ‘अनियमित प्रकाशित’ दर्ज कर देते. हालांकि, सरकारी विभागों की कार्यप्रणाली हमेशा एक सी रही हैं, किन्तु मेरी पत्रकारिता में इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा. मुझे अपने पाठकों के लिए पत्र प्रकाशित करने में सन्तुष्टि मिलती है और सरकारी विभागों को अपनी ताकत का दुरूपयोग करने में. समाचार पत्र को मुद्रण की पुरानी तकनीक से नई तकनीक में बदलने में आशुतोष उपाध्याय का प्रमुख योगदान रहा. उनसे मेरा परिचय मेरे पहले कहानी संग्रह ‘आदमी की बू’ के प्रकाशन के समय नैनीताल समाचार मुद्रण व प्रकाशन समूह के सचिव हरीश पन्त ने करवाया. हरीश पन्त के सहयोग से ही यह कहानी संग्रह भी प्रकाशित हो सका श्री उपाध्याय ने इस संग्रह को कम्प्यूटर में टंकित किया था. बाद में वे कुछ समय के लिए हिन्दुस्तान के नई दिल्ली कार्यालय में कार्यरत रहे.
1959 के जुलाई माह का यह पहला सप्ताह था. मैंने हाईस्कूल पास कर लिया था और यह तय हुआ कि आगे की शिक्षा के लिए मुझे आगरा भेजा जाए. मैं पिता जी के साथ दिनभर पैदल चल कर अल्मोड़ा पहुंचा और अल्मोड़ा से प्रातः केएमओयू की गाड़ी में बैठ कर काठगोदाम तक आया. अल्मोड़ा से हल्द्वानी तक तब रानीखेत होकर गाडियां चला करती थीं. उन दिनों कुमाऊं मोटर आनर्स की इन गाड़ियों में ड्राईवर की सीट के बाद यात्रियों के बैठने के लिए दो पंक्तियां होती थीं, जिनमें 5-6 सवारियां बैठ सकती थी. इन्हें अपर क्लास कहा जाता था और इनका टिकट भी कुछ ज्यादा था. इन सीटों के बाद एक जाली लगी रहती थी और उनके पीछे आमने-सामने दो लम्बी बैंच जैसी सीटें होती थीं, जिनमें लोवर क्लास के यात्री बैठा करते थे. बीच में सामान रखा जा सकता था और यदि यात्री अधिक हो जाये तो जमीन में ही या सामान के ऊपर बैठ जाया करते थे. बीच-बीच में लम्बी-लम्बी छींक सी मारती ये गाड़ियां बहुत धीमी रफ्तार से चला करती थीं. क्योंकि उन दिनों अधिकांश मार्ग कच्चे व सकरे हुआ करते थे. कच्चा मार्ग होने के कारण यात्री आधा-आधा फिट तक उछलते रहते और गन्तव्य तक पहुंचते-पहुंचते अधमरे हो जाते. अधिकांश लोग तो डीजल-पेट्रौल की बदबू और उछलते रहने के कारण उल्टियां करने लगते और भूल जाते कि वे एक दूसरे के ऊपर ही सारा खाया-पिया उलट दे रहे हैं. गाड़ी के भीतर का वातावरण बहुत ही दमघोटू हो जाता था. गाड़ी का इंजन बीच-बीच में गरम हो जाता और ड्राइवर गाड़ी रोक देता और पीछे की सीट पर बैठा क्लीनर इंजन की टंकी में पानी भरता. उन दिनों कंडक्टर नहीं हुआ करता था बल्कि 12-14 साल का कोई छोकरा ही क्लीनर हुआ करता था जो गाड़ी की धुलाई-पुछाई किया करता था. ड्राइवर साहब का भी अपना ही रूतबा हुआ करता था. वह जब चाहे जहां चाहे गाड़ी रोक दे और जिसे चाहे बैठा ले और जिसे चाहे धमका दे. पैसा देकर भी ऐहसान जैसा लगता था पहाड़ के इन यात्रियों को.यात्री चाहते थे कि उनके साथ अधिक से अधिक सामान भी जा सके. इसके लिए कुछ सामान छत पर रखा जाता, कुछ जरूरी सामान वे अपने साथ नीचे फर्श पर रख लेते. गाड़ी की छत पर और गाड़ी के भीतर ठूंस कर रखे सामान के कारण कभी-कभी तो यह भी पता नहीं चल पाता था कि यह मालगाड़ी है या यात्री गाड़ी. पहाड़ को जाने वाला यात्री हल्द्वानी से गुड़ जरूर ले जाता था, कपड़े आदि के साथ सुर्ती और तम्बाकू भी रखता. शादी-ब्याह के दिनों में तो सब्जियां और फर्नीचर आदि भी इन्हीं गाड़ियों में लादा जाता. हल्द्वानी के केएमओयू स्टेशन मंक रात तीन बजे से ही यात्रियों का जमघट लग जाता. टिकटघर खुलता तो भीड़ उधर ही दौड़ पड़ती. लेकिन ड्राइवर को इस सब की परवाह नहीं रहती थी. वह आराम से उठता था. उठते ही पहले एक बीड़ी सुलगाता, फिर पास की चाय की दुकान में कड़क चाय पीता फिर क्लीनर से एक बोतल पानी मंगाता और धीरे-धीरे गौला की ओर निकल पड़ता. तब तक यात्री ड्राइवर साहब का इंतजार कर रहे होते. इसी बीच किसका कितना सामान है इसकी जांच पड़ताल होती और सामान के भाड़े को लेकर अन्य कर्मचारियों और यात्रियों में कहा-सुनी, मान-मनुहार वगैरह-वगैरह का दृश्य देखा जा सकता था.
बाजे यात्री तो गाड़ी में सवार होने से पहले ही उल्टियां करने लगते, उनका पेट गाड़ी में जाना है इस भावना से पहले ही मथने लग जाता और मानसिक रूप से वे भयग्रसत हो जाते. बस स्टेशन की अफरातफरी के बाद गाड़ी चलते ही कुछ सुकून सा मिलने लगता. लेकिन बीरभट्टी में फिर हाथ में तौल का कांटा लेकर माल की चेकिंग करने वाले यात्रियों पर भारी पड़ जाते. किसका है यह सामान, क्या है इसमें, इसका भाड़ा पड़ेगा, वगैरह-वगैरह का शोर मचने लगता. इस सब के बावजूद केएमओयू की पहाड़ के दुरूह और जानलेवा रास्तों से होकर उन दिनों की गई सेवा का बहुत बड़ा महत्व रहा. इस सेवा को भुलाया जाना अपने ही अतीत को भुला दिए जाने के बराबर होगा. तब के ड्राइवर बहुत ही बड़े जीवट के और साहसी हुआ करते थे. उसी वर्ष जब में हल्द्वानी से चोरगलिया होते हुए टनकपुर, लोहाघाट, पिथौरागढ़ गया तो मैंने देखा कि गाड़ी के दो पहिए तो कई स्थानों पर सड़क से बाहर हैं और नीचे की ओर मीलों तक की गहरी खाइयां. गाड़ी गिर जाए तो टुकड़ा भी न मिले. जान हथेली पर लेकर ड्राइवर गाड़ियां चलतो और भगवान भरोसे यात्री गाड़ी पर बैठते. गाड़ियों के बाहर सामने ड्राइवर काले रंग की धमेलियां लटका देते, ताकि किसी प्रकार की बुरी नजर न लगे. गाड़ियों के रंग रोगन और उन पर लिखे स्लोगन का भी अपना अलग ही महत्व था. यूनियन की सभी गाड़ियों का रंग हरा हुआ करता था. पेन्टर गाड़ी के आगे जूते का निशान बना देता और लिख देता ‘जलने वाले तेरा मुंह काला. किसी गाड़ी में जीभ बाहर निकाली हुई काले रंग की विकराल खोपड़ी बनी रहती. अन्दर खिड़की से बाहर शरीर का कोई अंग न निकालने की हितायद होती ड्राइवर सीट के पास दरवाजे पर ड्राइवर सीट और गाड़ी के पीछे वाले दरवाजे के कोने पर क्लीनर लिखा रहता. बाद-बाद में कंडक्टर भी इन गाड़ियों में चलने लगा. गाड़ी के बाहर कई किस्म के चित्र और अगला भार, पिछला भार वगैरह-वगैरह अंकित होता. किसी-किसी गाड़ी में एक घुटनों तक की धोती पहने गोलमटोल आदमी का चित्र होता और उसकी लम्बी चुटिया होती. गाड़ी के पीछे लिखा होता ‘‘फिर मिलेंगे जै हिन्द.’ इन सब चित्रों के अलावा गाड़ी के एक कोने पर लिखा होता ‘हिमतुवा पेंटर.’ वैसे किसी गाड़ी में बाबू पेंटर भी लिखा होता किन्तु हिमतुवा पेंटर नाम ही अपनी ओर खींचने वाला होता.
(जारी)
स्व. आनंद बल्लभ उप्रेती की पुस्तक ‘हल्द्वानी- स्मृतियों के झरोखे से’ के आधार पर
पिछली कड़ी का लिंक: हल्द्वानी के इतिहास के विस्मृत पन्ने-51
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