आज स्थिति बिल्कुल अलग हो गई है पूरा हल्द्वानी और उसके आसपास के मीलों तक फैले गांव फतेहपुर, लामाचौड़, लालकुआं और रामपुर रोड के गांव सब कंक्रीट के जंगल में परिवर्तित हो गए हैं. एक गली, दूसरी, तीसरी, चौथी, पांचवी और गलियों का विस्तार गलियों के अलग-अलग नाम और उनमें बसने वाले पहाड़ और मैदान के लोग न जाने क्या सोचकर यहां बस रहे हैं. एक जमाना था मुफ्त में बसने में लोगों को परहेज था. आज मुंह मांगे दाम देकर जमीन खरीद रहे हैं. जमीनों के दलाल रातों-रात करोड़पति हो गए हैं. अनायास आए इस धन से वे बौरा भी गए हैं. आदमी की कीमत उनके सामने कुछ नहीं रह गई है. अब राजनीति में भी दखल देने लगे हैं. संस्कृति और समाज में उनका बहुत बड़ा दखल है. बाग बगीचे खेत सब गायब हो गए हैं, खेतों की सोंधी महक गायब हो गई है. लहलहाते धान के खेतों से मदमस्त कर देने वाली खुशबू गायब हो गई है रोज एक नया ताज महल जैसा खड़ा हो जा रहा है.
कहां से ला रहे हैं लोग इतना रुपया जिसे खर्च करने में उन्हें बिल्कुल भी दर्द नहीं हो रहा है. यहां के खेतों, बगीचों में पहले जंगली जानवर घूमा करते थे, अब अलग-अलग नस्ल के कुत्ते भौंका करते हैं. सामाजिकता का ह्रास हो गया है, एक ही गली में रहने वाले एक दूसरे से अपरिचित हैं. हर आदमी अपनी 1 इंच जमीन नहीं छोड़ना चाहता है. वह सड़क घेर लेने में बहादुरी समझता है, यह नहीं सोचता कि उसे भी सड़क घर लेने में परेशानी होगी. आलीशान कोठी खड़ी करता है लेकिन पानी की निकासी और सीवर टैंक सड़क में बनवा देता है. कई मोहल्लों में बड़ी त्रासदी पसरी दिखाई देती है. बहुत बड़े-बड़े मकान और उन मकानों में रह रहे होते हैं एक बुड्ढा एक-बुढ़िया. बच्चे दूसरे शहरों में रहते हैं, बहुतों के बच्चे देश छोड़कर विदेश चले गए हैं और वह यहां आना भी नहीं चाहते. उन्हें देखने वाला भी कोई नहीं है. सोचता हूं आखिर क्यों जिंदगी भर की कमाई यहां बर्बाद कर बैठ गए होंगे जहां इन्हें कोई पूछने वाला भी नहीं. किसी को कोई हमदर्दी भी नहीं. सभ्य कहे जाने वाले लोगों के मोहल्लों का हाल और भी अधिक बुरा है. यहां रहने वाले लोग कभी रहे होंगे उच्च पदों पर लेकिन अब रिटायरमेंट के बाद तो वे आम नागरिक ही हैं. लेकिन उनका गुरुर उन्हें सामाजिक बनने से रोकता है. वह कंधे उचका कर चलते हैं, सोचते हैं उन्हें हर कोई सलाम करे. वह आपस में भी सहजता से नहीं मिल पाते. बहुत से लोगों को अपने पड़ोसी का नाम और उसके काम के बारे में भी पता नहीं होता जबकि उसके घर के आगे उसका नाम पट लगा होता है. इस तरह देखा जाए तो सामाजिक विघटन की गति में तेजी आती जा रही है और आपसी सामंजस्य की भावना धूमिल होती जा रही है.
वैसे यहां मैदानी क्षेत्रों से आकर बस जाने वालों की संख्या भी बहुत हो गई है किंतु पहाड़ों से पलायन कर जाने और पहाड़ों को भू-माफियाओं के हवाले हो जाने का रोना रोने वाले लोगों को इस बारे में सोचना चाहिए कि वे यहां इतना धन लगा कर बस जाने के बाद क्या पा रहे हैं. अक्सर दिखाई देता है बड़े-बड़े मकान और उन में रहने वाले दो बूढ़े प्राणी. इंसानी शक्ल वाले जानवरों के बीहड़ में फंस कर रह जाना जैसा हो गया है. यहां कब चोर आकर गला दबा जाए कोई पता नहीं कब बीमारी में तड़पता कोई मर जाए पता नहीं. युवा पीढ़ी ने बुजुर्गों का लिहाज करना छोड़ दिया है. जहां उनका अपना कोई नहीं है जब वह अपनों को छोड़कर यहां बस गए हैं तो जिनके वे अपने हैं वे अपना बसेरा अन्यत्र क्यों ना बनाएं. उन्हें दूसरे शहर प्यारे हैं, दूसरे देश प्यारे हैं. उनका समाज बदल गया है. अपनी पैतृक संपत्ति को उजाड़ छोड़कर जो आशियाना उन्होंने यहां बना डाला है उनमें रहने के लिए तो नई पीढ़ी आने वाली नहीं है. जब इनके लिए अपने पुरखों की थाती केवल नराई जैसे शब्द तक सिमट गई है तो नई पीढ़ी को इस नए आशियाने से क्यों मोह होने लगा. इनका तर्क होता है कि पहाड़ों में किसी प्रकार की सुविधा नहीं है, न कुछ मिल पाता है, न शिक्षा का साधन है. न इलाज की व्यवस्था. तर्क बहुत हैं किंतु तर्कों पर विचार करने का उनके पास वक्त नहीं है. वर्तमान में एक सरकारी कर्मचारी को रिटायर होते वक्त 10 से 50 लाख रुपया तक मिल जाता है और प्रति माह 10 से 50,000 रुपए तक औसत पेंशन मिलती है, यदि इतना रुपया लेकर वे अपने पैतृक गांव जाएं तो उन्हें सारी सुविधाएं मुहैया हो जायेंगी. उनके गांव खुशहाल हो जाएंगे और उन्हें अपनत्व मिलेगा. यदि कई लोग इतना धन लेकर अपने पैतृक गांव का रुख करें तो निश्चित रूप से उन्हें बहुत बड़ी इज्जत मिलेगी और पहाड़ों की कायापलट हो जाएगी. वैसे भी अय्याश जीवन जी चुके सरकारी कर्मचारी का इलाज अब हल्द्वानी में हो भी नहीं हो पाता है और उसे बाहर ही जाना पड़ता है. हां यदि सामूहिक रूप से पहाड़ आबाद करने का मन बना लें तो सुविधाएं दौड़ी उनके पास आयेंगी.
(जारी)
स्व. आनंद बल्लभ उप्रेती की पुस्तक ‘हल्द्वानी- स्मृतियों के झरोखे से’ के आधार पर
पिछली कड़ी का लिंक: हल्द्वानी के इतिहास के विस्मृत पन्ने : 39
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