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हल्द्वानी के इतिहास के विस्मृत पन्ने : 31

रानी बाग यहां का एक पवित्र स्थान माना जाता है यहां एक पुराना चित्रेश्वर शिवालय के नाम से मंदिर है इस मंदिर को 25 जनवरी 1880 में रामगढ़ के चतुर सिंह द्वारा बनवाकर प्रतिष्ठित किया गया था यहां जसुली बूढ़ी की भी एक धर्मशाला है. कहा जाता है कि शौका परिवार की एक धनी महिला जसुली शौकयानी मैं स्थान स्थान पर यात्रियों के ठहरने के लिए धर्मशालाएं बनवाई जिन के अवशेष आज भी पहाड़ के पुराने मार्गों पर मिलते हैं लगभग 1805 में जन्मी वसूली बूढ़ी जसुली दाताल पिथौरागढ़ जिले के दारमा घाटी धारचूला के दांतू गांव की रहने वाली थी वह अपने माता पिता की एकमात्र वह निसंतान महिला थी कुछ लोग उनके बारे में बताते हैं कि पिथौरागढ़ से 175 किलोमीटर पर पंचाचूली पर्वतमाला के नीचे दांतू गांव ‘दरमा दाँतो गबला’ के नाम से जाना जाता है. इसी पवित्र भूमि में राजा ‘चर्का ह्यां’ का एकछत्र राज्य था. सुनपति शौका भी दारमा के थे. ग्राम दांतू में दो राठ हैं, पहला दांजन (ह्याऊं जन) दूसरा यानजन (जवों जन). वर्तमान काल में दांजन के केवल 25 परिवार शेष हैं. जसुली दांजन राठ परिवार में पैदा हुई और उसी गांव में ब्याही गयी. जसुली के 2 भाई थे — नुनु और तिनका. जसुली का एक पुत्र हुआ. जसुली के साथ भाग्य ने अन्याय किया. अथाह संपत्ति के बावजूद उसके पति और पुत्र की छोटी आयु में ही मृत्यु हो गयी. संपत्ति से घृणा होने से वह धौली नदी में रुपये डालकर बहाने लगी. तब कुमाऊँ कमिश्नर रामजे की उस पर दृष्टि पड़ी. उसने जसुली को समझाया और उसकी इच्छा के अनुसार सारे कुमाऊँ में धर्मशालाओं का निर्माण कराया.

कहा यह भी जाता है कि तत्कालीन कुमाऊँ कमिश्नर सर हैनरी रामजे एक बार दौरे पर दुगतु गांव से दांतू गाँव जा रहे थे. उन्हें वहां की नदी के किनारे खड़ी एक महिला मिली जो चांदी के सिक्कों को एक-एक कर नदी में बहा रही थी. रामजे को पता चला कि उसके पास चांदी के बहुत सारे सिक्के हैं किन्तु उसका वंश चलाने वाला कोई नहीं है. इसलिए वह हर सप्ताह मन भर रुपये नदी में बहा देती है. शायद उसके मन में नदी को धन अर्पित करने की भावना हो. रामजे साहब ने उसे समझाया कि यदि वह इन सिक्कों को बहाने की बजाय जनहित में खर्च करे तो उसे अधिक पुण्य मिलेगा. जसुली बूढ़ी को बात समझ में आ गयी और उसने अपना सारा धन घोड़ों और भेड़ों में लादकर अल्मोड़ा पहुंचा दिया. तब पैदल का ही ज़माना था. इस पैसे से पूरे पहाड़ में लगभग 10-10 मील के अंतर में 300 धर्मशालाओं का निर्माण करवा दिया. जिन्हें बनवाने में लगभग 20 साल लगे. रानीबाग में भी इस धर्मशाला के अवशेष बचे हैं. अब उस धरमशाला से सटाकर एक चाय-पानी की दुकान खुल गयी है.

रानीबाग में ही मिलट्री की छावनी भी है. ब्रिटिश शासन काल में काठगोदाम से लगे दमुवाढुंगा ग्राम-सभा के ब्यूरा खाम क्षेत्र को चांदमारी कहा जाता था, जहाँ सिपाही गोली चलाने का अभ्यास किया करते थे. यहाँ एक बहुत अच्छा डाकबंगला भी है. रानीबाग के चित्रशिला घात का अपना एक बहुत बड़ा धार्मिक महत्त्व भी है. कहा जाता है कि पुष्पभद्रा, गार्गी, कमलभद्रा, सुभद्रा, वेणुभद्रा, शेषभद्रा वे सात धाराएं चित्रशिला में सम्मिलित होती हैं.

यदि हम रानीबाग के नाम पर जायें तो कभी यहाँ निश्चित रूप से बहुत बड़ा बाग़ रहा होगा. बद्री दत्त पांडे ने कुमाऊँ का इतिहास में कहा है कि कत्यूरी राजा धामदेव व ब्रह्मदेव की माता जियारानी यहाँ निवास करती थी. उत्तरायणी के पर्व पर यहाँ जिया रानी का जागर लगाया जाता है और बहुत बड़ा मेला भी लगता है. गौला नदी के किनारे कई रंगों का एक बहुत बड़ा पत्थर भी है. लोग इसे जियारानी का घाघरा भी कहते हैं. लोग इसे चित्रशिला के नाम से भी जानते हैं और इसकी पूजा करते हैं.

वर्तमान में रानीबाग में शिव मंदिर के अलावा शनिदेव का मंदिर भी स्थापित किया गया है. दूर-दूर से लोग इसे बड़ा तीर्थ मानते हुए शवदाह के लिए यहाँ आते हैं. सव्दाह के लिए लकड़ी का प्रबंध वन-निगम द्वारा किया जाता है. रानीबाग के आस-पास का क्षेत्र गिरी व नाथों का बताया जाता है यहाँ उनकी समाधियाँ भी बनी हुई हैं.

( जारी )

स्व. आनंद बल्लभ उप्रेती की पुस्तक ‘हल्द्वानी- स्मृतियों के झरोखे से’ के आधार पर

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Sudhir Kumar

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