पिछली कड़ी का लिंक: हल्द्वानी के इतिहास के विस्मृत पन्ने- 67
हल्द्वानी का विस्मृत इतिहास (Forgotten History of Haldwani) सामाजिक समरसता का भी इतिहास रहा है. यहाँ विभिन्न समुदायों के ढेरों संगठन भी रहे हैं. अक्सर देखा जाता है कि एक ही शहर और परिवेश में निवास करने वाले लोग क्षेत्र, जाति, सम्प्रदाय, धर्म, भाषा, संस्कृति आदि के नाम पर अपने-अपने संगठन बना लेते हैं और प्रयास करते हैं अपनी अस्मिता और परम्पराओं को जिन्दा रखने का. किन्तु जब संगठन ओर एकता के नाम पर एक दूसरे पर हावी होने का प्रयास करने लगते हैं तो निश्चित रूप से सामाजिक विद्वेष पैदा होने लगता है. इसके पीछे संगठनों में कुछ गलत प्रवृत्ति के लोगों का प्रवेश प्रमुख होता है और आपस में एक दूसरे के सुख-दुख में भागीदारी का जज्बा होता है. हल्द्वानी शहर में भी केवल पहाड़ के लोग ही नहीं बसे हैं. यहां चारों धर्मों के लोग रहते हैं. विभिन्न प्रान्तों से आये विभिन्न भाषा-भाषी लोग निवास करते हैं.
हल्द्वानी बसने के साथ ही बाहर से आए वणिक वर्ग की संख्या भी यहां बहुत है. आजादी से पहले और आजादी के बाद पंजाब से आए लोगों की संख्या भी बहुत है. इनमें भी अपने-अपने वर्ग अलग-अलग हैं. अपनी भाषा, संस्कृति, परम्परा को जीवित रखना, उसकी उन्नति करना बहुत अच्छी बात है और अनेकता में एकता जो हमारे देश की महान परम्परा है, को बनाये रखना भी जरूरी है. इन सांस्कृतिक परम्पराओं का प्रदर्शन विभिन्न पर्वों पर लोग सार्वजनिक रूप से करते रहे हैं और एक समुदाय के लोग दूसरे समुदाय के इन प्रदर्शनों-आयोजनों में भागीदारी भी करते रहे हैं.
ईद मिलन हो, दीपावली या होली हो, ईसामसीह का जन्म दिन हो, गुरुपरब हो इनमें सामूहिकता का भाव दिखाई दिया है. किन्तु इससे आगे बढ़ कर जब यही आयोजन दिखावा और शक्ति प्रदर्शन के रूप में सड़कों पर उतर आए और एक भय का प्रतीक बनने लगे तो एक अलगाव की प्रवृत्ति जन्म लेने लगती है और आपसी तनाव की सम्भावनायें बढ़ जाती हैं. और यही हुआ इस शहर में भी.
जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है कि किस तरह पंजाब से आया सिख समाज यहां बस गया और किस तरह गुरुदारे का निर्माण हुआ और किस तरह यहां के तमाम आयोजनों में उसकी भागीदारी रही. आर्थिक रूप से सक्षम हो जाने के बाद उन्होंने अपनी परम्परा का जिस तरह भव्यता के साथ निर्वहन करना शुरू किया वह अनुकरणीय था. किन्तु धीरे-धीरे यही प्रदर्शन जब सड़कों पर एक शक्ति प्रदर्शन के रूप में होने लगे तो दूसरे वर्ग को भयभीत करने वाला बन गया.
परम्परा के नाम पर भी यदि यह प्रदर्शन सीमित रहता तो ठीक था किन्तु इसका प्रभाव अन्य प्रकार के आपसी व्यवहार पर भी पड़ने लगा. यह संगठित शक्ति तमाम व्यावहारिक जीवन पर भी प्रभाव डालने लगी. 60 और 70 के दशक में जब गुरु गोविन्द सिंह जी के प्रकाशोत्सव पर यहां का सिख समाज शब्द कीर्तन के साथ अनेक कार्यक्रमों का अयोजन करता था तो बहुत अच्छा लगता था और यहां के अन्य बाशिन्दे भी उसमें भाग लेते थे. यही नहीं सिख समाज द्वारा निकाली जाने वाली शोभा यात्रा में भी यहां के मुवज्जिज लोग हिस्सेदारी करते थे. इस शोभा यात्रा में आस-पास के कस्बों से बड़ी तायदाद में सिख समुदाय के लोग शामिल होते थे. यहीं से यह शोभायात्रा शक्ति प्रदर्शन में बदल कर भय और आतंक का आभास देने लगी.
शोभा यात्रा के बहाने इस शक्ति प्रदर्शन के बाद शाम को स्थिति तनाव पूर्ण हो जाया करती थी. बाहर से आये लोग होटलों में बैठ कर शराब पीते और सड़कों पर हुड़दंग मचाते. यह स्थिति यहीं तक रहती तो भी कोई बात नहीं उसके बाद भी शक्ति का यह जोश बरकरार रहता. हर समाज में कुछ ऐसे अराजक तत्व होते हैं जो पूरे समाज को ही बदनाम कर डालते हैं और शक्ति प्रदर्शन का यह जोश भी समाज को गलत-सही में विभेद करना भूल जाता है. दबंगता की ऐसी कई घटनायें आम पर्वतीय समाज के दिलों को कचोटती रहती.
ऊंचापुल के पास हीरा-प्रताप नाम के ऐसे ही दो भाई रहते थे. वे जब कालाढूंगी रोड पर बेकाबू ट्रेक्टर पर सवार होकर जाते थे तो आम लोग भयभीत हो जाते थे. नंगी तलवार लहराते हुए और तहमद उठा कर पेशाब करते हुए सड़क पर उनका निकलना भला किसे भयभीत नहीं करेगा. ऐसी सैकड़ों घटनाओं के साथ पहाड़ के लोगों को हीन भावना से देखना भी उनका शगल बन गया था.
1967 में हरिपुरा हरसान में घटी घटना और वहां रह रहे लोगों का आक्रोशित होकर हिंसक हो जाना भी इसी तरह की दबंगता का प्रतिफल था. यह तो तत्कालीन जिलाधिकारी बैंकटनारायण की सूझबूझ ने स्थानीय निवासियों के आक्रोश के सही कारणों को समझने का प्रयास किया और उनके खिलाफ लामबंद हो रहे दीगर दबंग लोगों का सख्ती से दबा डाला. इसी दौरान प्रखर जुझारू समाजवादी नेता जगन्नाथ मिश्रा की सरेआम दिनदहाड़े गदरपुर में हत्या भी पहाड़वासियों के लिए अपनी अस्मिता का सवाल खड़ा कर गई.
इसी तरह यहां का वणिक वर्ग भी पहाड़वासियों को उनके सहज, सरल स्वभाव का नाजायज लाभ लेने का प्रयास करता रहा. ऐसी बहुत सी कटु बातें हैं जो पर्वतीय क्षेत्र के लोगों के मन को आघात पहुंचाती थीं, को दोहराया जाना उचित नहीं है. यह तथ्य भी सर्वविदित है कि किसी क्षेत्र के मूल निवासी इस तरह अपना संगठन उस क्षेत्र में नहीं बनाया करते हैं. लेकिन जब उन्हें निरा ही बेवकूफ समझा जाने लगे तो उनका स्वाभिमान भी जागना स्वाभाविक है.
कई बार इस तरह के प्रयास पर्वतीय लोगों ने संगठित होने के किए लेकिन वे सफल नहीं हो सके. क्योंकि उनकी बौद्धिक क्षमता उन्हें रोके रखती और उन्हें ऐसा नेतृत्व नहीं मिला जो उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रदर्शित कर सके. चाहते सब थे कि इस तरह के शक्ति प्रदर्शनों को भय के बजाए सौहार्द की ओर ले जाने के लिए मुकाबले का शक्ति प्रदर्शन हो.
कभी-कभी कुछ घटनायें ऐसी भी घटित हो जाती है जो समग्र के मन में चल रही हलचल को बाहर लाकर रख देती है. यहां भी कुछ ऐसा ही हुआ. 1989 में बलवन्त सिंह चुफाल की यहां तिकोनिया में स्पेयर पार्टस की दुकान थी. किसी बात को लेकर बाजपुर के राणाबन्धुओं से उनका विवाद हो गया. बलवंत सिंह के बारे में आम धारणा थी कि गौलापार में कुछ सिखों की आतंकित करने वाली गतिविधियां उनके नेतृत्व में न केवल रुकीं बल्कि उस क्षेत्र में रह रहे तमाम सिख पलायन कर गए. उन्होंने प्रथमतः अपने सहयोगियों से विचार विमर्श किया और पहली आपसी बैठक ऐशबाग स्थित पालिका सभासद किरन पांडे के निवास पर हुई.
इस बैठक में पर्वतीय क्षेत्र के मूल निवासियों को संगठित करने की बात हुई और वक्त आने पर संगठित होकर मुकाबला करने तथा एक दूसरे को सहयोग करने पर विचार हुआ. यहां तक कि इस बैठक में कहा गया कि ‘हम अपने निहित स्वार्थों के लिए संगठित हो रहे हैं और एक दूसरे की सहायता करना हमारा उद्देश्य है.’ यद्यपि इस तरह का प्रस्ताव एक अजीब सा प्रस्ताव है लेकिन यह उन तमाम घटनाओं की प्रतिक्रिया है.
उसके बाद कई बैठकें हुईं और संगठन में कई लेाग जुड़ते चले गए तथा इसका स्वरूप सांस्कृतिक बनाये जाने पर विचार होने लगा. संगठन को मजबूत बनाने और इसकी गतिविधियों में तेजी लाने के लिए बलवन्त सिंह चुफाल को इसका संयोजक घोषित किया गया.
बैठकों में इस बात पर भी विचार हुआ कि संस्था को गैर राजनैतिक बनाये रखने के लिए किसी ऐसे व्यक्ति को इसका अध्यक्ष बनाया जाए जो निर्विवाद हो. एडवोकेट ललित मोहन भट्ट को सर्वसम्मति से इस योग्य समझा गया. संस्था का नाम रखा गया पर्वतीय सांस्कृतिक एकता मंच. कहने को संस्था पर्वतीय क्षेत्र के मूल निवासियों की समझी गयी किन्तु इसमें पंजाबी मूल के चमन लाल ज्वेलर, सिंधी मूल के ठाकुरदास तेजवानी और मूल रूप से सिख परिवार से सम्बंध रखने वाले होमगार्ड के दलीप सिंह कप्तान ओर संस्था के प्रतीक चिन्ह का डिजाइन बनाने वाले सरदार ज्ञान सिंह भी उतने ही महत्वपूर्ण थे. ठाकुरदास तेजवानी तो बाद में संस्था के कोषाध्यक्ष भी रहे.
कुछ समय बाद संस्था का कार्यालय मेरा कार्यालय यानी शक्ति प्रेस बन गया और तकरीबन तीन साल तक नित्यप्रति का मिलन केन्द्र यहीं रहा और सारी गतिविधियां यहीं से संचालित की जाने लगीं तथा प्रत्येक माह के द्वितीय शनिवार को ललित मोहन भट्ट के तिकोनिया स्थित आवास पर तथा समय-समय पर आयोजित होने वाली आम सभा की बैठकें रामपुर रोड हिन्दू धर्मशाले में होने लगीं.
संस्था का संविधान बनाने की जिम्मेदारी एडवोकेट केडी बल्यूटिया को दी गई और बाद में उसे संशोधित कर लिया गया. प्रतिदिन के मिलन और बैठकों के बाद यह निर्णय लिया गया कि किसी विशेष पर्व पर संस्कृतिक प्रदर्शन का अयोजन किया जाए. विचार विमर्श के बाद 14 जनवरी उत्तरायणी का पर्व यानी ‘घुघुतिया त्यार’ इसके लिए उपयुक्त समझा गया.
इसमें दो बातें शामिल हो गयीं एक तो इस आयोजन को सांस्कृतिक स्वरूप देना और दूसरा अधिक से अधिक जन सहभागिता. इसके लिए न केवल हल्द्वानी क्षेत्र वरन नैनीताल, भीमताल, भवाली, खटीमा, सितारगंज, रुद्रपुर, किच्छा, पन्तनगर, शान्तिपुरी, लालकुंआ, कालाढूंगी, हरिपुराहरसान ओर आस-पास के तमाम दुर्गम ग्रामीण क्षेत्रों में कई बार सम्पर्क किया गया.
इस जन सम्पर्क अभियान में अपनी बातें भी जन-जन तक पहुंचानी शामिल थीं ताकि वे इस आयोजन में आयें और अपनी शक्ति को पहचानें. बलवन्त सिंह चुफाल इस जनसम्पर्क अभियान में रोज ही अपने सहयोगियों के साथ शामिल रहते.
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