(पिछली क़िस्त: माफ़ करना हे पिता – 1)
इसी कोठरी में मुझसे तीनेक साल छोटी बहन लगभग इतनी ही उम्र की होकर गुजर जाती है. उससे कुछ समय बाद, जब एक दोपहर पिता मुझे डॉक्टर के पास ले गये थे. बीमार हम दोनों थे, वह कम मैं ज्यादा. उस बच्ची का नाम याद है, गुड्डी था. माँ, पिता और मेरी जो एक मात्र फोटो मेरे पास है, उसमें वह भी माँ की गोद में है- शहद वाला निप्पल चूसती हुई. पिता कुर्ते की बाँहें समेटे मुझे गोद में लिये बैठे हैं. मैंने उस वक्त किसी बात पर नाराज होकर अपना एक हाथ अपने ही गरेबान में अटका लिया था. वह हाथ आज भी वहीं टँगा है. वैसे मुझे याद नहीं, पर इस तस्वीर को देख कर पता चलता है कि माँ की एक आँख दूसरी ओर देखती थी. दो भाई-बहन मुझसे पहले गुजर चुके थे, दो मेरे बाद मरे. मुझमें पता नहीं क्या बात थी कि नहीं मरा. बाद में पिता ने कई बार मन्नत माँगी कि तू मर जाये तो मैं भगवान को सवा रुपये का प्रसाद चढ़ाऊँ. यार, नंगा करके चौराहे पर सौ दफे जुतिया लो, पर ऐसी‘बेइज्जती खराब’ तो मती करो ! प्रसाद की रकम पर मुझे सख्त ऐतराज है. कुछ तो बढ़ो. मैं इंसान का बच्चा हूँ भई,चूहे का नहीं हूँ. सवा रुपये में तो कुछ भी नहीं होगा, बुरा मानो चाहे भला. इंसान की गरिमा और मानवाधिकार नाम की भी कोई चीज होती है कि नहीं ? भगवान से या शैतान से, जिससे मर्जी हो कह दो कि जो चाहे उखाड़ ले,सवा रुपये में तो हम किसी भी सूरत नहीं मरेंगे. भूखे नंगे रह लेंगे, मरेंगे नहीं. प्रसाद खाकर तुलसीदास की तरह मस्जिद में सो रहेंगे.
फिर याद आता है कि माँ मायके चली जाती है. न जाने कितने अर्से के लिये और क्यों. मैं पिता के पास क्यों रह जाता हूँ जब कि उस उम्र के बच्चे को माँ के पास होना चाहिये ? पिता मुझे साथ लेकर दफ्तर में रहने लगते हैं. दफ्तर में दो-एक लोगों की आज भी याद है. एक दीक्षित जी थे, थोड़ा मोटे से, शकल याद नहीं. बड़ी ही संक्रामक हँसी हँसते थे. एक जल्ला सिंह थे पिता की तरह चपरासी (बकौल पिता- ‘चढ़ बेटा फाँसी’). शायद कांगड़ा के रहने वाले थे. जल्ला सिंह एक दिन घर से आयी चिट्ठी पढ़ रहे थे. उसकी एक पंक्ति याद है- कमर झुकाने का समय है,छुट्टी लेकर आ जाओ. मैंने पिता से इसका मतलब पूछा, उन्होंने बताया कि खेती-बाड़ी का समय है. धान यूँ झुक कर रोपते हैं. जल्ला सिंह को आज भी ग्रुप फोटो में नामों का क्रम देखे बिना पहचान लेता हूँ. पिता अर्थ एवं संख्या (सांख्यिकी) विभाग में थे. उनके कहे मुताबिक डी.एम. साला उनके विभाग के बिना दो कदम नहीं चल सकता. सारे डाटा हमारे पास होते हैं. डी.एम. हम से घबराता है.
शाम लगभग सात-आठ बजे का समय है. पिता खाना बना रहे हैं, मैं बरामदे में खेल रहा हूँ. गेट खोल कर ऑफिस का कोई कर्मचारी अहाते में दाखिल होता है. पिता उसका कमरा खोल देते हैं, वह आदमी बैठ कर कोई फाइल निपटाने लगता है. पिता फिर रसोई में जुट जाते हैं. करीब आधे घंटे बाद वह आदमी बाथरूम में घुस जाता है और तभी बिजली चली जाती है. पिता लालटेन या मोमबत्ती लेकर दफ्तर के खुले कमरे में जाते हैं. कुछ देर इन्तजार करने के बाद आवाज देते हैं. वह आदमी और जवाब दोनों नदारद. पिता मुझे कंधे में बिठाते हैं, हाथ में एक डंडा लेकर अंधेरे बाथरूम में ताबड़तोड़ लाठी चार्ज कर देते हैं. जवाब में जब किसी की चीख नहीं सुनाई दी तो उन्होंने नतीजा निकाला कि बिजली चली जाने के कारण वह आदमी बिना बताये चला गया. उनकी इस हरकत का मतलब मैं कभी नहीं समझ पाया. दुर्घटनावश मेरा खोपड़ा डंडे की जद में नहीं आ पाया.
कुछ समय बाद माँ फिर देहरादून आ जाती है. हम पास ही किराये की एक कोठरी में रहने लगते हैं. यह कोठरी पहले वाली से बेहतर है. कतार में चार-पाँच कोठरियाँ हैं, छत शायद टिन की हैं. मकान मालिक का घर हम से जरा फासले पर है. वह एक काफी बड़ा अहाता था जिसमें आम, लीची और कटहल वगैरहा के दरख्त हैं. अहाते में एक कच्चा पाखाना था जिसकी छत टूट या उड़ गयी थी. जब कोई पाखाने में हो उस वक्त दरख्तों में चढ़ना अलिखित रूप से प्रतिबंधित था. इसी तरह कोई अगर दरख्त में चढ़ा हो तब भी. अहाते में एक ओर मकान मालिक के दिवंगत कुत्तों की समाधियाँ थीं जिन में वह हर रोज सुबह को नहा-धोकर फूल चढ़ाता था. फूल चढ़ाने के बाद हाथ जोड़ कर शीश नवाता था कि नहीं, भगवान की कसम मुझे याद नहीं.
मकान मालिक लगभग तीसेक साल का था. दुबला पतला, निकले हुए कद का, चिड़चिड़ा सा, शायद अविवाहित था. परिवार में उसकी विधवा माँ और दो लहीम-शहीम सी बिन ब्याही बहनें थीं. एक नाम रागिनी था, दूसरी का भी शर्तिया कुछ होगा. परिवार में एक नौकर था श्रीराम. गठा हुआ बदन, साँवला रंग और छोटा कद. उसके नाम की पुकार सुबह के वक्त कुछ ज्यादा ही होती थी. मालिक मकान के परिवार का मानना था कि इस बहाने भगवान का नाम जबान पर आ रहा है. वे राम पर श्रद्धा रखने वाले सीधे-सच्चे लोग थे, हाथ में गंडासा लेकर राम-राम चिल्लाने वाले नहीं. ऐसे लोग तब अंडे के भीतर जर्दी के रूप में होंगे तो होंगे, बाहर नहीं फुदकते थे. बेचारा श्रीराम अपने नाम का खामियाजा दौड़-दौड़ कर भुगत रहा था. परिवार वाले उसे काम से कम बेवजह ज्यादा पुकारते.
(जारी)
शंभू राणा विलक्षण प्रतिभा के व्यंगकार हैं. नितांत यायावर जीवन जीने वाले शंभू राणा की लेखनी परसाई की परंपरा को आगे बढाती है. शंभू राणा के आलीशान लेखों की किताब ‘माफ़ करना हे पिता’ प्रकाशित हो चुकी है. शम्भू अल्मोड़ा में रहते हैं और उनकी रचनाएं समय समय पर मुख्यतः कबाड़खाना ब्लॉग और नैनीताल समाचार में छपती रहती हैं.
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माफ करना हे पिता आपकी यादगार रचना है। इसे पढ़ना हर बार एक नयी ताजगी से भर जाता है। हार्दिक साधुवाद।
बढ़िया रचना।
माफ़ करना हे पिता , सामाजिक इतिहास की तरह है।