ऐतिहासिक दृष्टि से मानव सभ्यता के विकास में आग का महत्वपूर्ण योगदान है. पुरातत्ववेत्ताओं के अनुसार अफ्रीका में पैलियोलिथिक काल से मानव विगत 60000 वर्षों से विभिन्न प्रयोजनों हेतु आग का प्रयोग करता आया है. प्रागैतिहासिक युग में मानव ने आग का प्रयोग खाना बनाने, रौशनी करने, शरीर गर्म रखने, जंगली जानवरों से सुरक्षा करने, कृषि कार्य हेतु भूमि की सफाई, संचार माध्यम एवं बौद्धिक विकास हेतु किया. आग एक सतत प्राकृतिक घटना है जिससे विश्व के कई वनस्पति समुदायों का उदय हुआ है. कुछ वनस्पतियों के अस्तित्व हेतु आग की पुनरावृति आवश्यक है. वैज्ञानिकों का मत है कि विश्व के चीड़ के जंगल, अफ्रीका के घास के मैदान एवं भूमध्यसागरीय झाड़ी युक्त क्षेत्र आग पर निर्भर पारिस्थितिकी तंत्र हैं एवं उनकी उत्पत्ति एवं अस्तित्व आग पर निर्भर करते है. हालांकि सामान्यतः आग से वनों एवं वनस्पतियों का विनाश ही होता है लेकिन वैज्ञानिकों का मत है कि विवेकपूर्ण तरीके से लगाई गई आग को एक पारिस्थितिकी औजार के रूप में प्रयोग किया जा सकता है. यह एक सामान्य कहावत है कि आग एक अच्छा सेवक लेकिन दुष्ट स्वामी है.
(forest fire causes prevention uttarakhand)
उत्तराखण्ड में समुद्र सतह से 300 से 2000 मीटर की ऊँचाई पर पाये जाने वाले वनों में क्रमशः साल, चीड़ एवं बांज वनों में चीड़ वनों का बाहुल्य है. हमारे प्रदेश में वन विभाग के अंतर्गत 23670 वर्ग किलोमीटर भूमि का चीड़ वनों द्वारा लगभग 8000 हजार वर्ग कि.मी. क्षेत्र आच्छादित है. स्थानीय निवासी चीड़ वनों से जलावनी लकड़ी, चारा, खाद्य फल-फूल एवं अन्य वन्य उत्पाद अपनी आजीविका हेतु इक्ट्ठा करते हैं. वन विभाग हेतु चीड़ के वृक्ष लीसा एवं ईमारती लकड़ी के रूप में एक मुख्य आय के स्रोत हैं. सालाना लगभग 70 से 80 हजार क्वींटल लीसा उत्तराखंड में प्राप्त होता है. जिसके विक्रय से लगभग 195 लाख रू. की आय उत्तराखण्ड को होती है. चीड़ वृक्षों के उपयोग में इसकी फर्नीचर एवं ईमारती लकड़ी, फलों के पैकिंग हेतु इसकी पेटिया, कागज बनाने हेतु लुग्दी, इसके लीसे से प्राप्त होने वाले उच्च गुणवत्ता के तारपीन तेल एवं रोजिन का दवाओं एवं अन्य उपयोगी पदार्थों हेतु इस्तेमाल शामिल है.
उत्तराखण्ड में मुख्यतः चीड़ वन ही जंगलों में आग की विभिषिका हेतु उत्तरदायी है. स्थानीय निवासी चारागाहों के नियोजन एवं वन विभाग चीड़ वनों के नियोजन हेतु नियन्त्रित आग प्राचीन समय से ही लगाते आये हैं. जहां एक ओर स्थानीय निवासियों को आग लगाने के बाद वर्षा ऋतु में मुलायम घास की अच्छी पैदावार प्राप्त होती है, वहीं वन विभाग गर्मियों में वनों में आग की विभिषिका को कम करने हेतु नियन्त्रित फुकान की तकनीक को अपनाता रहा है. हाल के वर्षों में वन विभाग द्वारा मोटर मार्गो के दोनों ओर चीड़ पत्तियों को एकत्र करके नियन्त्रित फुकान भी किया जाने लगा है. जिससे यात्रियों की लापरवाही से लगने वाली आग को रोका जा सके. यद्यपि वनों में आग प्राकृतिक व मानव जनित कारणों से उत्पन्न हो सकती है तथापि प्रकाशित साहित्य से ज्ञात होता है कि उत्तराखण्ड में चीड़ वनों में आग मुख्यतः सिर्फ मानव जनित कारणों से ही लगती है.
गढ़वाल विश्वविद्यालय में 1985-86 के दौरान किये गये अध्ययन से ज्ञात हुआ कि उत्तराखंड़ में 63 प्रतिशत वनों की आग की घटनायें जान-बूझकर लगाई गई एवं शेष 37 प्रतिशत दुर्घटनावश थी. आकाशीय बिजली गिरने से वनों में अग्नि लगने की घटना नहीं पाई गई. चीड़ वनों में आग की पुनरावृत्ति 2 से 5 वर्षों में होती है एवं उत्तराखण्ड के 11 प्रतिशत वनों में हर वर्ष आग लगती हैं. मानव जनित आग के मुख्य कारणों में स्कूली बच्चों एवं ग्वालों का कौतूहलवश आग लगाना, स्थानीय निवासियों द्वारा कृषि हेतु खेतों की सफाई एवं कटीली झाड़ियों को जलाते समय आग का पास के जंगल में हवा के रूख से प्रवेश कर जाना, मधुमक्खियों को भगाकर शहद निकालने, वन विभाग द्वारा नियन्त्रित आग लगाते समय अनियन्त्रित होकर जंगल में फैल जाना, घुमन्तु चरवाहों एवं लकड़हारों की लापरवाही, वाहन यात्रियों एवं पैदल पथ पर चलते समय धूम्रपान करने वालों द्वारा जलती तीली व बीड़ी-सिगरेट फेंक देना, मोटर मार्गो की मरमत्त एवं सफाई हेतु प्रयुक्त आग, रात्रि शिविर में पर्यटकों द्वारा भोजन बनाने इत्यादि हेतु आग जलाना अन्य कारण हैं. इसके अतिरिक्त भूमि पर कब्जा करने, वनीकरण की असफलता पर पर्दा डालने, आग के उपरांत गिरने वाले वृक्षों की नीलामी से स्थानीय ठेकेदारों को होने वाले लाभ, ईर्ष्यावश विरोध जताने के तरीके भी जन-सामान्य द्वारा चर्चा में आग लगने के कारणों में गिनाये जाते हैं.
उत्तराखण्ड में वनाग्नि के विगत 15 वर्षो के आकड़ों पर नजर दौड़ाये तो पता चलता है कि वर्ष 2002-03, 2003-04, एवं 2008-09 में प्रत्येक वर्ष क्रमशः 4983, 4850 एवं 4116 हेक्टर वन क्षेत्र चपेट में आये. इस अवधि में वर्ष 2010-11 में न्यूनतम 232 हेक्टर वनअग्नि की चपेट में आये. वर्ष 2016-17 (दिनांक 08 मई 2016 तक) में वनाग्नि की कुल 1826 घटनाओं से अब तक 4016 हेक्टर वन क्षेत्र प्रभावित हुआ है. जिससे वन विभाग के सेड्यूल रेट के अनुसार लगभग 50 अरब रू. की क्षति होने का अनुमान लगाया गया है जो कि वास्तविकता से अधिक प्रतीत होता है. ध्यान देने योग्य बात है कि अभी जून मध्य तक वनों में अग्नि की घटनाओं से इन्कार नहीं किया जा सकता है.
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सरकारी आकड़ों के अनुसार उत्तराखण्ड में वर्ष (2016-17) में वनों की अग्नि से अब तक 9 लोगों की मृत्यु हो चुकी है एवं 16 व्यक्ति झुलस चुके हैं तथा 48 व्यक्तियों के पुलिस विरूद्ध वनों में अग्नि लगाने के मुकदमें दर्ज किये गये हैं. इस वर्ष वनाग्नि की भयावहता से निबटने हेतु राज्य एवं केन्द्र सरकार ने सक्रियता से फायर बिग्रेड, एस.डी.आर.एफ एवं एन.डी.आर.एफ. के जवानों के अलावा भारतीय वायुसेना के हेलीकोप्टर भी आग बुझाने में लगाये गये. गृह मंत्रालय के अन्तर्गत राष्ट्रीय आपदा प्रबन्धन संस्थान की रिर्पोट के अनुसार विगत 25 वर्षो में भारत वर्ष में जंगल की आग की घटनाओं में सन् 2008 में मेलाघाट में 10,000 हेक्टर क्षेत्र तथा वर्ष 2010 में हिमाचल प्रदेष में 10,000 हेक्टर वन क्षेत्र तथा वर्ष 1999 में गंगा-यमुना जलागम क्षेत्र में वर्ष 80,000 हेक्टर क्षेत्र आग की चपेट में आया था. वर्ष 2012 में सूदूर संवेदन (Remote Sensing) के माध्यम से किये गये एक अध्ययन के अनुसार सम्पूर्ण हिमालयी क्षेत्र में प्रतिवर्ष 3908 वनाग्नि की घटनायें होती है जिससे कि लगभग 112900 हेक्टर वन क्षेत्र जल जाता है जिससे 431 टन कार्बन का वायुमंडल में उत्सर्जन होता है. इस कार्बन युक्त धुएँ के हवा द्वारा फैलने से ग्लेषियरों के पिघलने की रफ्तार में तेजी आने की आषंका भी व्यक्त की जा रही है.
तीन प्रकार की आग (छत्राग्नि- Crown Fire, धराग्नि- Surface Fire, तलाग्नि- Ground Fire) में से मुख्यतः धराग्नि ही यहां के वनों में पाई जाती है जो कभी-कभी हवा के वेग से व पहाड़ की तलहटी से ऊँचाई की ओर ढलानों पर छत्राग्नि में परिवर्तित होकर विनाशकारी हो जाती है. जंगल की आग की तीव्रता विभिन्न कारकों जैसे हवा की दिशा व वेग, वायुमंडल की गर्मी, भूमि में ज्वलनशील पदार्थ की उपलब्धता, भू-आकृति, पत्तियों एवं झडे़ हुए टहनियों के सूखेपन, वनस्पति के जीवन चक्र की अवस्था एवं ऋतु इत्यादि पर निर्भर करती है. कम तीव्रता वाली धराग्नि जंगलों के लिए सामान्यतः नुकसान देह नहीं होती है क्योकि यह जमीन पर पड़े एवं देर से सड़ने वाली चीड़ की पत्तियां, टहनियां, एवं कार्बनिक पदार्थ को जल्दी से सड़ा-गलाकर पोषक तत्वों में विघटित कर देती है. जो कि वनस्पतियों की वृद्धि हेतु लाभदायक होता है. इसके अलावा जमीन में पडे़ हुए सुसुप्त बीजों, कलियों एवं अधोस्तरीय वनस्पतियों हेतु राख उर्वरक का काम करके उनके तेजी से बढ़ने में सहायता करती है. जिससे जंगलों में ज्वलनशील चीड़ पत्तियों की मात्रा में वृद्धि नहीं हो पाती है एवं छत्राग्नि का खतरा भी टल जाता है. छत्राग्नि भारी मात्रा में वनों का विनाष करती है जिसका आकलन आसानी से सम्भव नहीं है. सामान्यतः हम वनों में हुई हानि को वनस्पतियों की क्षति से ही कर लेते है जबकि वन पारिस्थितिकी तंत्र के अन्य घटकों पर दूसरे दुष्प्रभावों का आकलन नहीं कर पाते. उदाहरणार्थ – अग्नि कांड से वन्य जन्तुओं के आवासों का विनाश, जैव-विविधता का ह्रास, वायुमंडलीय कार्बन में वृद्धि, भू-क्षरण एवं वन भूमि की आद्रता एवं जलधारण क्षमता में कमी आदि. विश्व में अब वनों की इन अप्रत्यक्ष लेकिन महत्वपूर्ण पर्यावरणीय सेवाओं के आकलन एवं मूल्यांकन पर काफी ध्यान दिया जाने लगा है.
प्राकृतिक रूप से चीड़ वनों में पिरूल के पेड़ों से झड़ना मार्च अंत से शुरू होकर जून तक चलता है. माह अप्रैल मध्य से मई मध्य तक यह प्रक्रिया शीर्ष पर होती है. उत्तराखण्ड के वनों में इस पिरूल की मात्रा प्रतिवर्ष 4-5 टन हैक्टर मापी गई है अतः इस प्रदेश में प्रतिवर्ष लगभग 4 लाख टन पिरूल का उत्पादन होता है. इस विशाल कार्बनिक संसाधन का कम लागत से उपयोग ढूंढना अनिवार्य है. लेकिन पिरूल में पाये जाने वाले उच्च लिग्निन एवं सैलुलोज तथा निम्न नाइट्रोजन के कारण इसके प्राकृतिक रूप से सड़कर विघटित होने की रफ्तार अन्य चौड़ी पत्ती के वृक्षों की पत्तियों की अपेक्षा काफी धीमी है. पिरूल को प्राकृतिक अवस्था में पूर्णतया सड़कर विघटित होने में लगभग 2 वर्ष लगते हैं. जिसकी वजह से इसे खेतों की उर्वरा शक्ति बढ़ाने हेतु गोबर की खाद के रूप में उपयोग को स्थानीय ग्रामीणों द्वारा प्राथमिकता नहीं दी जाती है पुनः इसके उच्च कार्बन-नाइट्रोजन अनुपात के चलते इसकी खाद का प्रयोग फसलों को नुकसान पहुचाने वाले कुरमुलों कीट के प्रकोप में वृद्धिकारक पाया गया है. चीड़ के वृक्षों की विशेषताओं में पशुओं की चराई के डर से मुक्ति, उर्वरकता विहीन शुष्क मिट्टी, अल्प वर्षा वाले क्षेत्रों एवं चट्टानी जगहों में इसके तेजी से उगने व पुर्नजनन की अदभुत क्षमता शामिल है. इसके विपरीत बाॅज स्थानीय निवासियों हेतु एक बहुउपयोगी वृक्ष है, जिससे वर्ष भर उत्तम चारा, उच्च कोटी की जलावनी लकड़ी, मृदा एवं जल संरक्षण जैसे हिमालयी जीवन की आधारभूत आवष्यकताओं की पूर्ति होती है. लेकिन बांज वृक्ष में उपरोक्त वह अन्य गुण नहीं है जो चीड़ में पाये जाते है. उत्तराखंड में जल संरक्षण की दृष्टि से महत्वपूर्ण बांज वनों का धीरे धीरे सिकुड़ना बेहद चिन्ता का विषय है क्योंकि इन वनों से न केवल यहां का जन-जीवन व जलवायु जुड़ी है बल्कि यहां से निकलने वाली सदाबहार नदियां गर्मियों में पानी की अत्याधिक कमी व वर्षा ऋतु में बाढ़ की आवृति बढ़ रही है.
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वर्तमान में वनों की आग से निपटने हेतु वन विभाग द्वारा ग्रीष्म ऋतु से पहले अग्नि रेखाओं (Fire line) एवं नियन्त्रित फुकान द्वारा भीषण आग की घटनाओं को कम करने के प्रयास किये जाते है. प्रदेश के वनों में बनी हुई लगभग 8500 कि.मी. फायर लाईनों की साफ-सफाई प्रतिवर्ष आवश्यक है. तथापि वनों में अग्नि के मुख्य कारकों में उच्च वायुमंडलीय तापमान, चीड़ वनों में पिछले कुछ वर्षो से गिरी पत्तियों के न हटाऐ जाने से ज्वलनशील पदार्थ का भारी मात्रा में इक्ट्ठा होना, जाड़ों में वर्षा का न होना एवं स्थानीय निवासियों की कृषि एवं पशुपालन पर निर्भरता घटने से वनों के प्रति अलगाव एवं वनों को सरकारी सम्पत्ति समझना शामिल है. ग्रामीणों के साथ चर्चा में यह भी ज्ञात हुआ है कि लीसा टिपान से घायल चीड़ वृक्षों में आग जल्दी पकड़ लेती है एवं वह वृक्ष को कमजोर कर देती है एवं मामूली आंधी में यह वृक्ष गिर जाते है. वन पंचायतों सरपंचों के अनुसार पूर्व में वह अपने वनों के कटान-छटान करके चीड़ को पनपने नहीं देते थे लेकिन वर्ष 1980 से समुद्र सतह से 1000 मीटर से अधिक ऊँचाई पर वृक्षों के पातन पर रोक होने से चीड़ वृक्षों की संख्या बढ़ चुकी है जिससे अग्नि पर नियन्त्रण पिरूल की अधिकता के कारण मुश्किल होता जा रहा है.
वनों की अग्नि के पीछे जन-सामान्य में तरह-तरह की भ्रांतिया हैं. स्थानीय निवासी व ग्रामीण अपने आपको वनों की रक्षा के प्रति सजग ठहराते हैं एवं कालान्तर से ही ग्रामीणों द्वारा वनों की आग बुझाने में महत्वपूर्ण पहल की जाती रही है. ग्रामीणों का अपने ग्राम वनों, पंचायती वनों एवं ग्राम से सटे सरकारी सिविल एवं आरक्षित वनों से रोजमर्रा के ईधन, चारा विछावन इत्यादि का अटूट नाता होने के फलस्वरूप उनकी वनो को बचाने हेतु स्वयंस्फूर्त प्रतिबद्धता रही है. जिसका प्रमाण इस प्रदेश में पंचायती वनों के प्रबन्धन के इतिहास तथा चिपको जैसी आंदोलनों की विश्व प्रसिद्ध परम्परा से स्पष्ट है. इस पृष्ठभूमि में यहाँ के निवासियों में वनाग्नि एवं अन्य नुकसान से वनों को बचाने हेतु जागरूकता कार्यक्रमों से इतर वन विभाग के सीमित संसाधनों को वनों में अग्नि के निवारण में उपयोग करने हेतु ग्रामीणों के साथ एक व्यापक कार्यक्रम के क्रियान्वयन की आवश्यकता है. कहना न होगा कि आज यद्यपि वन प्रबन्धन का भले कितना ही समृद्ध तकनीकी व ज्ञान उपलग्ध हो लेकिन जब स्थानीय ग्रामीणों में वन संरक्षण एवं प्रबन्धन की बहस होती है तो ग्रामीणों एवं महिलाओं का परम्परागत ज्ञान इस आधुनिक ज्ञान पर भारी पड़ता है. अतः मात्र यह कहकर पल्ला झाड़ देने से कि स्थानीय लोग (गांव वाले) जंगलों में आग लगाते हैं, से इस ज्वलन्त एवं बहुआयामी समस्या का समाधान निकलने वाला नहीं है.
ग्रामीणों का मत है कि विभाग की तैयारियां इस वर्ष के लगातार सूखे से वनों में अग्निशमन से निपटने की तैयारी नाकाफ़ी थी. ग्रामीणों को अन्ततः झापे (पत्तीदार टहनियों के गट्ठे) से ही आग बुझानी पड़ती है. उन्हें अग्निशमन में सहायक उपकरण (रेक आदि) तथा दुर्घटना होने या झुलस जाने पर कोई चिकित्सा की राहत समय पर नहीं मिल पाती है. ग्रामीणों को यह भी आंषका रहती है कि अग्नि बुझाने गये व्यक्ति वन में आग लगाने के झूठे मामलें में भी फँस सकते हैं. अतः एक दूसरे के प्रति इस अविष्वास भरे वातावरण में यह आवष्यक है कि इस समस्या के समाधान की रणनीति एवं क्रियान्वयन आपसी तालमेल एवं एक दूसरे के अनुभवों को सम्मान देकर किया जाय.
आग के उपरोक्त दुष्प्रभावों को मद्देनजर रखते हुए इसके नियन्त्रण हेतु निम्न विकल्पों पर ध्यान देने की आवश्यकता है –
(1) उत्तराखण्ड में वनों की अग्नि के न्यूनीकरण हेतु चीड़ वनों के पुर्नउद्भवन को नियन्त्रित करने हेतु प्राकृतिक रूप से उगने वाले चीड़ के छोटे पौधों मुख्यतः सड़क मार्गो, पैदल पथ, सार्वजनिक स्थानों एवं बसासतों के इर्द-गिर्द को हटा कर वृक्षों की सघनता को न्यूनतम रखा जाय.
(2) चीड़ वृक्षों के जमीन से लगभग 10 फीट ऊँचाई तक की टहनियों को जाड़ों में छटान करके पिरूल की मात्रा में कमी लायी जाये जिससे जमीनी सतह से लगने वाली आग को वृक्षों के छत्रक तक पहुंचने में नियन्त्रण पाया जा सके
(3) लीसा टिपाने हेतु वृक्षों की मोटाई के मानक को 30 से.मी. से अधिक किया जाना चाहिए.
(4) ग्रामीण रास्तों एवं मोटर मार्गो के दोनों ओर अति संवेदनशील स्थानों से लगभग 50 मीटर दूरी तक के पिरूल को लगातार मार्च से जून माह तक हटाकर नियन्त्रित फुकान किया जाय. पिरूल का उपयोग बिजली, बायोगैस, औषधीय तेल, कागज गत्ता, बायोब्रिकेट (ईधन कोयला), जैविक खाद इत्यादि बनाने में किया जाय. पिरूल का उपयोग वनों के अन्र्तगत जल संरक्षण हेतु चैक डेम के लिए किया जाए. पिरूल के उपयोग में लगी स्वंय सेवी संस्थाओं इत्यादि के साथ समन्वय बनाकर एवं उन्हें प्रोत्साहित कर आधारभूत सुविधा उपलब्ध करायी जाय.
(5) पिरूल के औद्योगिक इस्तेमाल हेतु उत्तराखण्ड में पिछले वर्षो ग्रामीणों से एक रूपया प्रति किग्रा पिरुल खरीदने के कार्यक्रम को दुबारा चालू किया जाय एवं पिरुल का मूल्य बढ़ाया जाय.
(6) वनों को आग से बचाने के लिए स्थानीय लोगों की दिलचस्पी बढ़ाई जाए एवं उन्हें अग्निशमन हेतु आवश्यक उपकरण एवं तकनीकी उपलब्ध कराई जाय तथा वनों में अग्नि की रोकथाम कर रहे ग्रामीणों को पारितोषिक का प्रावधान भी किया जाय.
(7) चीड़ के रोपण को मुख्यतः सड़क मार्गों, पैदल पथ, सार्वजनिक स्थानों एवं बसासतों के इर्द-गिर्द, प्रोत्साहन न देकर इसके स्थान पर चौड़ी पत्ती के बहुपयोगी वृक्ष प्रजातियों (जैसे – मेहल, खड़िक, सांदण, सिरिस, ग्वीराल, भीमल, शीशम, डैकण, गेठी, तुन, बांज इत्यादि) का रोपण किया जाय.
(8) वर्षा ऋतु के जल को एकत्रित करने हेतु वनों में तालाब, खाईया एवं खंतिया खोदी जाए जिससे मिट्टी की नमी को बढाने से आग के दुष्प्रभाव को कम किया जा सकता है.
(9) वनों में अग्नि पर नियन्त्रण हेतु चीड़ वनों को हटा कर चौड़ी पत्ती के वन लगाने की सिफारिश करने से पूर्व चौड़ी पत्ती की प्रजातियों का इस मिट्टी एवं जलवायु में पनपकर वृक्ष एवं वन बनने की अवस्था तक की गहराई से वैज्ञानिक समझ विकसित करने के उपरांत ही कोई कदम उठाना पर्यावरण संतुलन के हित में होगा.
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-डॉ. गिरीश नेगी
गोविन्द बल्लभ पंत हिमालय पर्यावरण एवं विकास संस्थान, अल्मोड़ा में डॉ. गिरीश नेगी का यह लेख हमें काफल ट्री की ईमेल आईडी पर प्राप्त हुआ. डॉ. गिरीश नेगी से इनकी ईमेल आईडी negigcs@gmail.com पर सम्पर्क किया जाता है.
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