ह्या छूङ की कृपा से तीदांग की दल-दल भूमि सूख कर हरे-भरे घास के मैदान में परिवर्तित हो चुकी थीं. एक समय ऐसा आया कि ग्राम सीपू दाङा खर्सा से एक बैल व नागलिंङ, बालिङ से एक बैल चरते-चरते तीदांग के हरे-भरे घास के मैदान में पहुंच कर चरने लगते हैं. पीछे से उन दोनों बैलों के मालिक भी अपने हाथ में च्याकचमा (शिरछिङ व स्यांकसिङ पेड़ की सूखी टहनियां) लेकर ढूंढते-ढूंढते तीदांग का लम्बा चैड़ा घास का मैदान व चारों तरफ नदी-नाले, पहाड़ों को देख कर मंत्र मुग्ध (मोहित) हो गये और ये नीचे ऊपर से आये आदमियों ने अपनी च्याकचमा (लकड़ी की सूखी टहनी) यह कहकर जमीन में गाड़ दी कि अगर यह हरी-भरी भूमि हमारे लिये फलदायक होगी तो इन सूखी च्याकचमा (टहनियों) में हरे पत्ते उग आयेंगे नहीं तो जैसे के तैसे यानी सूखी रह जायेंगी. हम लोग नौंवे दिन फिर आयेंगे, वचन देकर अपने बैलों को लेकर वापस अपने गांव चले जाते हैं.
नौवें दिन वे दोनों आदमी तीदांग आते हैं और अपने गाड़े हुए च्याकचमा (सूखी टहनियों) में हरे-हरे पत्ते उग आये देखकर बहुत खुश हो जाते हैं और उन्हें यकीन हो जाता है कि तीदांग की भूमि हमारे लिये फलदायक (फलीभूत) है. अपने गांव लौट कर अपने भाई बिरादरों के साथ सपरिवार तीदांग आकर बस जाते हैं.
थोड़े समय (सालों) बाद चार राठ (पट्टी) के चार सौ परिवारों को तीदांग के नाम से जाना जाने लगा. इन चार राठ के अपने-अपने अलग से मिलन चबूतरा बने थे और गांव के बीच में एक सामूहिक मिलन चबूतरा था जो वर्तमान समय में भी है क्योंकि इलाके में सबसे बड़ा गांव होने के कारण चौदह गांव वाले मिल कर मामला तय करते थे. यह चबूतरा हल्दौसिङ के पास था.
शुरू में दो आदमियों ने शिरसिङ व स्याकसिङ का च्याकचमा (टहनी) जिस जगह में गाड़े थे वे हरे-भरे पेड़ हो गये उसी जगह पर स्याङ सै (भूम्याल) को हर साल पूजा-पाठ दिया जाता है.
समय बीतता गया इसी बीच में एक गर्दिश का समय तीदांग गांव वालों के ऊपर आ जाता है कि स्याङ सै (भूम्याल) के पूजा के दिन गांव के सौ से ऊपर शैतान नौजवान लड़के तड़के सवेरे ही पश्चिम दिशा के गौलंती नाले वाले पहाड़ के खोह के जंगलों में छिपने चले गये. गांव वालों को इसी जानकारी नहीं थी. गावं के मर्द लोग सवेरे से पूजा की तैयारी में लगे थे. जब अपराहन पुजारी द्वारा पूजा-पाठ हो जाता है, इसके बाद गांव सभी मनोरंजन करने लगते और बच्चे लोग मैदान में खेलने लग जाते हैं ठीक उसी समय गोलन्ती फू के नाले से गांव की तरफ सौ से ऊपर आदमी आते दिखाई देते हैं. गांव वाले इन्हें जूमला-हूमला नेपाल के डकैत, डकैती डालने हमारे गांव में आ रहे हैं, समझकर उनसे लड़ने के लिये दौड़ पड़ते हैं. सिलीम कागै की फसली (खेत) मैदान में खूनी संघर्ष (लड़ाई) आपस में हो जाती है. इस लड़ाई में वे सभी सौ ऊपर शैतान लड़के मारे जाते हैं इस प्रकार देवता का पूजा-पाठ के वक्र्षा (अपशगुन) हो जाता है और गांव में प्रलय (प्रकोप) आ जाता है.
गोलन्ती नाले में ग्लेशियर की बाढ़ में पश्चिम का फसली मैदान दब जाता है और दक्षिण से च्यूलौती नदी में लाया पहाड़ का ग्लेशियर टूट कर बाढ़ आकर तमाम फसली मैदान दबा देता है. सिर्फ स्यां सै कै पास स्याकसिङ के पेड़ व मैदान तथा ह्या छूङ सै का मन्दिर व मैदान पर प्रकोप का असर नहीं पड़ा यानी साफ बच गया. बड़ी मुश्किल से इस प्रलय (प्रकोप) में सिर्फ 12 (बारह) मवासे (परिवार) बच पाये जो देवी-देवताओं का पूजा-पाठ करते रहे तभी ह्या छूङ सैका धामी (पुजारी) द्वारा मालूम हुआ कि ह्या छूङ सै अपने पुराने निवास स्थान वापस चला गया. तभी गांव के 4-5 आदमी ह्या छूङ सै के निवास किदाङ (तकलाकोट) तिब्बत जाकर वहां की जनता से मिलकर ह्या छूङ सै का पूजा-पाठ करते हैं. ह्या छूङ सै के मन्दिर से सफेद गोल पत्थर (लिङग) जिसको छकरमा ऊङ कहते हैं तथा याक का पूछ व भगवान बुद्ध की तस्वीर लेकर अपने गांव वापस आते हैं और ह्या छूङ सै फिर से अपना निवास स्थान तीदांग आ जाते हैं हर एक पीढ़ी में एक बार तीदांग में ह्या छूङ सै के मन्दिर में तीदांग के लोग पूजा-पाठ करने जाते हैं. उपरोक्त तीदांग की प्रलय घटना की छाप अभी भी पड़ी हुई
साफ नजर आती है. वर्तमान समय में गांव वाले जब भी नया मकान बनाते हैं तो जमीन के नीचे दबे हुए मकान के दीवालों से पत्थर निकाल कर लाते हैं.
उस शुरूआत के समय के स्यांसिङ व शिरसिङ के टहनियां गाड़ कर हरे-भरे पेड़ बन गये थे दोनों पेड़ अभी भी काफी उम्रदार के रूप में विराजमान है.
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