पहाड़ में इन दिनों वनों में लाल-लाल बुरांश के फूल खिल गए हैं. हरे-भरे वनों में जहां नजर डालो, लगता है बुरांश के पेड़ों ने लाल ओढ़नी ओढ़ ली है. बचपन में सुना वह गीत कानों में गूंजने लगा हैः (Flowers Declare Spring in Uttarakhand)

पार भिड़ा बुरोंशी फुली रैछ. 
मैं झै कौनूं मेरि हिरू यै रैछ!

(उस पार बुरांश खिले हुए हैं. मुझे लग रहा है, जैसे मेरी हिरू आई हुई है.)

वन-वन बुरांश के फूल क्या खिले कि वसंत ऋतु के आने की खबर मिल गई. वन-वन ही नहीं मन-मन में बुरांश खिल उठे. बुरांशों के साथ ही न जाने और कितने-कितने फूल खिल उठे. कविताओं में, गीतों में. वहां देखिए, वसंत की अगवानी में उमा भट्ट क्या लिख रही हैं अपनी कविता में:

बैदेलि ह्वला त्विन ललांगा बुरांस
बौड़ेली ह्वेली अब कफूवा हिलांस!

बुरांशों के खिलने से वनों में लालिमा छा गई है. दिनों-दिन गर्मी बढ़ेगी. कफुवा और हिलांस चहकने लगेंगे! कफुवा बोलने लगेगा- कुक्कू! कुक्कू! (Flowers Declare Spring in Uttarakhand)

उधर हमारा प्यारा लोक गायक राजुला-मालूशाही की राजुला का बखान करेगा कि ‘पिंगली नारेंगा जसी, फुलिया बुरूंश जसी!’ और, बुरांश के फूलों को देख कर प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पंत अपनी बोली-बानी में गुनगुना गए हैं:

सार जंगल में त्वै जस क्वे न्हां रे, क्वे न्हां
फुलन छै के बुरांश, जंगल जस जलि जांछ!

ठीक ही तो कह रहे हैं वे कि सारे जंगल में तुझ जैसा कोई नहीं है, कोई नहीं. तू क्या खिलता है बुरांश कि जैसे सारे जंगल में आग लग जाती है. यानी, जैसे मैदानों में पलाश जंगल की ज्वाला है, वैसे ही वन-वन खिला बुरांश पहाड़ों की ज्वाला है.

वहां गढ़वाल अंचल में झुमैलो गीत गूंज रहा है:

रैमासी को फूल फुलौं कबिलास.
रैमासी को फूल फुलौं कबिलास.
कै मैना फूलालों फुलो कबिलास.....

कैलाश में रैमासी के फूल खिल गए हैं. किस माह खिले रैमासी के फूल! कैलाश ही क्यों शायद कभी नागनाथ-पोखरी के ऊंचे पहाड़ में भी रैमासी के फूल खिले होंगे जिन्हें अपने बचपन में देख कर प्रिय कवि चंद्रकुंवर बर्तवाल ने उन्हें मन में संजो लिया होगा. तभी तो अपनी कविता में रैमासी के फूल गूंथे उन्होंने:

कैलाशों पर उगते ऊपर,
रैमासी
के दिव्य फूल! 

वसंत आ चुका है. तापमान बढ़ता जाएगा और फिर ग्रीष्म ऋतु आ जाएगी. पहाड़ों में प्यूंली के पीले फूल खिल चुके हैं. किलमोड़े ने भी फूलों की वासंती ओढ़नी ओढ़ ली है. नदी घाटियों में बासिंग पर श्वेत फूलों की बहार आ गई होगी और सेमल के पेड़ों पर लाल-नारंगी रंग के मांसल फूल खिल रहे होंगे. बुरांशों की बहार के आसपास वनों में प्रकृति ने मेहल का सफेद फूलों से श्रंगार कर दिया होगा. पांगरी की पर्णविहीन टहनियों के सिरों पर अंगुलियों जैसे चटख लाल फूल खिलने लगे होंगे. जल्दी ही पेड़ों पर झूलती मालू की बेलें सुनहरे फूलों से लद जाएंगीं और गर्म इलाकों के जंगलों में अमलतास के पेड़ों पर चटख पीले रंग के फूलों के झुमके झूलने लगेंगे. गढ़वाल अंचल के तमाम गांव और सड़कें जैकरेंडा यानी नीले गुलमोहर के स्वप्निल फूलों से सज जाएंगीं. सुदूर ब्राजील देश का निवासी यह सुंदर पेड़ यहां हमारे पहाड़ों में कितना खुश है! अहा, कितने सुंदर फूल! बताइए, कविताओं और गीतों में कोई क्यों न गूंथे इन्हें?  (Flowers Declare Spring in Uttarakhand)  

सच तो यह है कि गीतों और कविताओं में फूल कोई आज से नहीं, सदियों से गूंथे जा रहे हैं. व्याकरणाचार्य पाणिनी ने ईसा से लगभग 350 वर्ष पूर्व अपने ग्रंथ ‘अष्टाध्यायी’ में पलाश और कदंब के सुंदर फूलों का वर्णन किया तो शूद्रक ने 100 ईस्वी पूर्व अपने प्रसिद्ध नाटक ‘मृच्छकटिकम्’ में बाग-बगीचों में खिले मनोहारी कमल और दूसरे कई सुंदर फूलों के बारे में लिखा. (Flowers Declare Spring in Uttarakhand)

बौद्धकाल में तो न जाने कब से कविताओं में फूल खिलते रहे. प्रसिद्ध कवि अश्वघोष ने ‘बुद्ध चरितम्’ ग्रंथ में नंदनवन का वर्णन किया है जिसमें गौतम बुद्ध फूलों से लदे वृक्ष और कमल के सुंदर पुष्प देखते हैं. बौद्धकाल में मठों और स्तूपों के चारों ओर भिक्षु फूलों की बगिया लगाते थे. और, महाकवि कालिदास के ग्रंथ तो फूलों के वर्णन से भरे पड़े हैं. उन्होंने कमल, कचनार, पलाश, पारिजात और माधवी लता जैसे न जाने कितने रंग-बिरंगे, भीनी सुगंध बिखेरते लता-गुल्मों का वर्णन किया है.

फूलों ने मानव का इतना मन मोहा कि उसने इनके सुंदर चित्र बनाए. इन्हें अपने भित्तिचित्रों में उकेरा. कपड़ों में काढ़ा और बुनाइयों में बुना. बेलबूटों से चीजें सजाईं. स्वागत में फूलों की सौगात दी, फूलमालाएं पहनाईं, फूलमालाओं से घर सजाया. पंखुड़ियों की अल्पनाएं बनाईं. फूलों का इत्र बना कर सुंगध फैलाई. फूलों से शुभकामनाएं दीं, पंखुड़ियां बिखेर कर स्वागत की रस्म निभाई. अपने घर-आगंन को फूलों से सजाया, फूलों से महकाया. दोस्तो, हमारी पूरी संस्कृति ही फूलों में रसी-बसी है. (Flowers Declare Spring in Uttarakhand)

पहाड़ों में तो चैत्र माह का पहला दिन फूलों के नाम ही कर दिया गया है. इस दिन से फूलदेई का त्योहार शुरू होता है. टोकरियों में फूल लेकर बच्चे घर-घर जाते हैं और देहरी पर फूल चढ़ाते हुए गाते हैं:

फूल देई छम्मा देई 
दैंणी द्वार, भर भकार
ये देई कें बार-बार नमस्कार!

वासंती हवा चली और फूलों का मौसम आ गया! लेकिन, क्या आप विश्वास करेंगे कि एक समय ऐसा भी था, जब धरती पर फूल नहीं थे! करोड़ों वर्ष पहले की बात है. धरती पर चारों ओर बड़े-बड़े दलदल फैले हुए थे. उनमें ऊंचे-ऊंचे मॉस और फर्न के पेड़ उगते थे. दलदलों में विशालकाय डायनोसॉर विचरते थे. फिर ऐसे पेड़ों का जन्म हुआ जिनमें काठ के फल और बीज बने. हमारे आज के चीड़, देवदार उन्हीं के तो वंशज हैं. फिर ऐसे पेड़-पौधों का जन्म हुआ जिनमें फूल खिल उठे. पहले तो केवल पत्तों की हरियाली थी. तब चारों ओर हरा ही हरा रंग दिखाई देता होगा. फिर फूल खिले और चारों ओर रंगों की बहार छा गई.

प्राचीनकाल के पेड़-पौधों पर शोध करने वाले वैज्ञानिक कहते हैं कि पहली बार फूल शायद तेरह- चौदह करोड़ वर्ष पहले खिले होंगे. काठ के कड़े फलों वाले पेड़ों और विशाल फर्नों के बीच फूलदार पौधे पनप उठे होंगे. फूल खिले, उनमें खूब बीज बने. बीज धरती पर गिरे. उनसे फिर हजारों फूलदार पौधे उग गए होंगे. छह-सात करोड़ वर्ष पहले वे पूरी दुनिया में छा गए.

वैज्ञानिकों के हाथ फूलों के करोड़ों वर्ष पुराने ‘फॉसिल’ लगे हैं. उन्हें लगभग 12 करोड़ वर्ष पहले खिले एकवर्षी पौधों और करीब 9 करोड़ 30 लाख वर्ष पुराने मैग्नोलिया जैसे फूलों के पथराए अवशेष मिले हैं.

आज हमारी धरती पर पेड़-पौधों की 3 लाख 70 हजार से भी अधिक प्रजातियां हैं. उनमें 2 लाख 70 हजार से भी अधिक प्रजातियां फूलदार पौधों की हैं. उनमें साल भर में खिल कर सूख जाने वाले पौधे हैं तो सालों-साल खिलते रहने वाले पेड़-पौधे भी हैं. सुंदर लताएं भी हैं और झाड़ियां भी. दिन में फूलों के चटक रंगों से मन मोहने वाले पेड़-पौधे भी हैं तो रात में भीनी-भीनी खुशबू बिखेरने वाले पेड़-पौधे भी. सच पूछिए तो फूलों ने अपने मन मोहक रंगों से हमारे जीवन में खुशियों के रंग भर दिए.

पहली सदी की बात है. रोम का निरंकुश सम्राट था नीरो. उसकी सेना में डायोस्कोरिडीज नामक एक नामी चिकित्सक था. उसने ‘डी मटीरिया मेडिका’ नामक पुस्तक लिखी. उसमें तमाम पेड़-पौधों का वर्णन किया. फूलों के चित्र बनाए. वह पुस्तक इतनी महत्वपूर्ण थी कि 1500 वर्षों तक वही चली. वैसी कोई दूसरी पुस्तक नहीं लिखी गई. हमारे देश में भी आयुर्वेद में पौधों के औषधीय महत्व का खूब वर्णन किया गया.

अपनी गंगा-जमुना तहजीब पर नज़र डालें तो हमारे देश में फूलों की खेती को मुगल बादशाहों ने बहुत बढ़ावा दिया. बाबर ने न केवल हमारे देश के फूलों को गले लगाया बल्कि वह फारस और मध्य एशिया से भी एक से एक खूबसूरत फूल यहां लाया. सन् 1526 के आसपास गुलाब के पौधे वही हमारे देश में लाया था. उसके जीवन की तमाम बातें ‘बाबरनामा’ में लिखी गई हैं. वह लिखता है, “हिंदुस्तान में फूल बहुत तरह के हैं. एक जासून है, जिसे गुलहड़ कहते हैं. लाल गुलाब के फूल जितना होता है, पर कली गुलाब की तरह नहीं खिलती….एक ही दिन में मुरझा जाता है….केवड़े की महक मन को मोह लेती है….यहां यास्मीन भी है. सफेद को चंपा कहते हैं. हमारे यास्मीन से बड़ा है. महक भी उससे बढ़ी-चढ़ी है.”… (Flowers Declare Spring in Uttarakhand)

बादशाह अकबर भी बाग-बगीचों और फूलों का बड़ा शौकीन था. उसके शासनकाल की बातें ‘अकबरनामा’ और ‘आइने-अकबरी’ नामक ग्रंथों में लिखी हैं जिन्हें अबुल फजल ने लिखा. उसने ‘आइने-अकबरी’ में 21 सुगंधित फूलदार पौधों के फूलों के रंगों और खिलने के मौसम के बारे में बताया है. इनमें सेवती, चमेली, मोगरा, चंपा, केतकी, कुजा, जुही, नर्गिस, केवड़ा आदि का वर्णन किया है. इनके अलावा सूरजमुखी, कमल, गुड़हल, मालती, कर्णफूल, कनेर, केसर, कदंब आदि 29 सुंदर फूलदार पेड़-पौधों के बारे में भी बताया है.

जहांगीर तो प्रकृति प्रेमी था ही. उसे भारत के सुगंधित फूल बहुत पसंद थे. इनमें से भी चंपा की मीठी सुगंध उसे सबसे अच्छी लगी. वह लिखता है कि चंपा का एक ही पेड़ पूरे बाग को महका सकता है. उसने मौलश्री और केवड़े की सुगंध की भी तारीफ की है. ये बातें ‘तुजुके जहांगीरी’ पुस्तक में लिखी गई हैं. और हां, गुलाब के इत्र की खोज जहांगीर की रानी नूरजहां की मां ने की थी. नूरजहां और जहांगीर को गुलाब बहुत अच्छे लगते थे. यह आज से लगभग 400 साल पुरानी बात है.

गुलाब, नरगिस, आइरिस, कार्नेशन, लिली, डेफोडिल, ट्यूलिप आदि फूल मुगल बादशाह हमारे देश में लाए. उसके बाद जब पुर्तगाली और अंग्रेज आए तो वे भी हमारे देश में विदेशी पौधे लाए. वे हमारे देश से भी अनेक सुंदर फूलदार पेड़-पौधों को विदेश ले गए. अंग्रेज वनस्पति विज्ञानियों ने तो नए फूलों और दूसरे पेड़-पौधों की तलाश में देश का चप्पा-चप्पा छान डाला. उन्हें हमारे देश के नए-नए सुंदर फूल मिले जैसे प्रइमुला, एनीमोन, आइरिस, लिलियम, एस्टर, बालसम, बिगोनिया, बुरांश, कुंज और आर्किडों की अनेक प्रजातियां. उत्तराखंड के वनों में उन्होंने बुरांश की पांच प्रजातियां खोज डालीं जिनके फूलों का रंग लाल, गुलाबी, बैंगनी या हल्का पीला होता है. फ्रैंक किंगडनवार्ड नामक वनस्पति विज्ञानी ने असम और वर्मा के जंगलों को छान कर पॉपी की नीले फूलों वाली नई जाति खोज डाली. हिमालय, उत्तरपूर्व और अन्य इलाकों के फूलों की तमाम जातियां वे इंगलैंड ले गए जो वहां विश्व प्रसिद्ध क्यू गार्डन और अन्य बाग-बगीचों की शोभा बने.

सुदूर स्वीडन में अठारहवीं सदी में वनस्पति विज्ञानी कारोलस लिनीअस ने फूलों को पढ़ते-पढ़ते पता लगा लिया था कि पेड़-पौधों में भी नर-मादा होते हैं और उनका विवाह फूलों में रचा जाता है. उन्हीं में बीज बनते हैं. उसने फूलों के आधार पर पेड़-पौधों का नामकरण किया. इस तरह वह पौधों का पुरोहित बन गया. उसने देखा, फूलों के खिलने का अपना-अपना समय होता है. इस बात को ध्यान में रख कर उसने अपने नगर उपसाला में एक फूलघड़ी बनाई. उस फूलघड़ी में सुबह सबसे पहले सैल्सिफाई पौधे के फूल खिल जाते. फिर अपने-अपने समय पर दूसरे फूल खिलते. आधी रात में टार्च थिसिल के फूलों की पंखुड़ियां बंद होने के साथ ही उस दिन का समय पूरा हो जाता! (Flowers Declare Spring in Uttarakhand)

हमारे देश के बाग-बगीचों और घर-आंगन की फुलवारियों में भी आज एक से एक सुंदर फूलों की प्रजातियां उगाई जा रही हैं. वसंत आता है और वे हजारों रंग-बिरंगे फूल खिल कर खिलखिला उठते हैं. न जाने कहां-कहां से कितनी सुंदर तितलियां और भौंरे आकर उनका पराग और मकरंद बटोरने लगते हैं. हमें फूलों को बचाए रखना चाहिए, तभी हमारी दुनिया सुंदर बनी रहेगी और हमारी आने वाली पीढ़ियां भी देख सकेंगी कि हमारी इस धरती में कितने सुंदर फूल हैं.

देवेन मेवाड़ी

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वरिष्ठ लेखक देवेन्द्र मेवाड़ी के संस्मरण और यात्रा वृत्तान्त आप काफल ट्री पर लगातार पढ़ते रहे हैं. पहाड़ पर बिताए अपने बचपन को उन्होंने अपनी चर्चित किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ में बेहतरीन शैली में पिरोया है. ‘मेरी यादों का पहाड़’ से आगे की कथा उन्होंने विशेष रूप से काफल ट्री के पाठकों के लिए लिखना शुरू किया है.

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