(यह संस्मरण मेरे दादाजी (स्व. मथुरादत्त शर्मा), दादी (स्व. माधवी देवी), और परदादी, जिन्हें अम्मा कहा गया है, (स्व. दुर्गा देवी) की 1960 में बद्रीनाथ धाम की पैदल तीर्थ यात्रा पर उनसे सुने गए संस्मरणों पर आधारित है. – लेखिका) – Badrinath Dham Winter 1960
1960 के उस दौर में चारधाम यात्रा आज के समान आसान नहीं थी. पैदल तीर्थयात्रा पूरी करने में महीनों का वक्त लग जाता था. उस दौर में तीर्थ यात्रा के लिए निकलते हुए महीने भर का राशन, खाने-पकाने के लिए बर्तन, कपड़े-लत्ते, ओढ़ना-बिछौना समेत सभी आवश्यक सामान साथ लेकर ही चलना पड़ता था. महीनों तक ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों व गाड़-गधेरों को पार करने की थकान, उस पर 20 से 25 किग्रा. तक के बोझ यात्रा को बहुत ज्यादा बीहड़ और रोमांचक बना देते थे. इतनी लम्बी यात्रा और चढ़ाई वाले पहाड़ी रास्तों को पार करने के लिए अपार साहस और इच्छाशक्ति की जरूरत हुआ करती थी. ऊपर से हमारी लोकपरम्परायें, रीति-रिवाज और रूढ़ियों को सहजता से अपनाते हुए सब कुछ सह लेने वाली पर्वतपुत्री की वो अद्भुत जिजीविषा, जो हम सबको जीवन के कष्टों को हंसकर सहने की प्रेरणा देती है, ही इस संस्मरण की विषयवस्तु है—
सन 1960 के अप्रैल माह की एक सुबह, ब्रह्ममूहूर्त का समय. अल्मोड़ा जिले के दौला गाँव में खासी चहल-पहल का माहौल है. बद्रीनाथ धाम के केवाड़ खुल चुके हैं. तीर्थयात्रियों का एक दल बद्रीनाथ की यात्रा पर जाने की तैयारी कर रहा है. मेरी दादी भी दादाजी और अम्मा के साथ यात्रा पर जाने की तैयारियों में मसरूफ हैं. सारी तैयारियाँ पूरी कर ली गई हैं. दादी यात्रा के रोमांच को लेकर बहुत उत्साहित है. लेकिन अपनी पाँच साल की बिटिया शान्ति को घर पर ही छोड़कर जाने का विचार उनकी सारी उत्सुकता को व्याकुलता में बदल दे रहा है. हालांकि वह जानती है कि शान्ति अपने ठुल इजा (ताईजी) और ठुल बाज्यू (ताऊजी) के साथ सुरक्षित है, परन्तु माँ का हृदय अपनी बच्ची को छोड़कर जाने के ख्याल से व्याकुल होना स्वाभाविक है. “शान्ति खाना ठीक से खाएगी कि नहीं, मेरे बिना वो सो तो जाएगी ना, हमें याद करके रोएगी तो नहीं, अपनी ठुल इजा को परेशान तो नहीं करेगी” आदि-आदि विचार दादी को अधीर कर रहे हैं.
दादी की विचारमग्नता अम्मा की आवाज के साथ ही भंग हो जाती है. “जल्दी कर मधी सब आ गए हैं.” दादी सोती हुई बिटिया के माथे पर प्यार से हाथ फेरते हुए, नम आँखों के साथ ही राशन-पानी का बोरा सिर में उठाए बाहर आ जाती है. बतियाते, हंसते-गाते 26 लोगों का दल चल पड़ता है अपनी मंजिल की ओर. सभी लोग अपने लिए नियत सामान साथ लिए चल रहे हैं. ज्यों-ज्यों शाम अपने पैर पसारने प्रारम्भ करती, दल को रात्रि विश्राम के लिए उचित स्थान ढूँढ़ने की चिंता सताने लगती. सामान्यतया मार्ग में बने तीर्थयात्री धर्मशालाओं में ही रात्रि विश्राम किया जाता है. पौ फटने के साथ ही आगे की यात्रा प्रारम्भ कर दी जाती है.
जैसा कि सब जानते ही हैं कि देवभूमि उत्तराखण्ड में आदिकाल से ही लगभग प्रत्येक घर में देवता के डंगरियों का होना स्वाभाविक है. हमारे घर में भी अम्मा और दादाजी देवता के डंगरिये हैं. अम्मा में कत्यूरियों की अधिष्ठाता देवी जिया रानी का अवतरण होता है. मान्यता है कि जियारानी परियों की रानी है और परियाँ बुरांश के फूलों में निवास करती हैं. इसलिए दल के वयोवृद्ध डंगरिये द्वारा ये घोषणा कर दी गई है कि बुरांश के जंगलों में दल को विशेष सावधानी के साथ चलना है और अम्मा का विशेष ध्यान रखना है. रास्ते में जहाँ-जँहा पर भी बुरांश के जंगल आते हैं, अम्मा मूर्छित हो जाती हैं. दल के सभी युवा बारी-बारी से अम्मा को अपनी पीठ पर रखकर ले जा रहे हैं. गजब का सौहार्द है आपस में. रास्ते की कठिनाइयों को झेलते हुए महीने भर की यात्रा के बाद आखिरकार वह स्वर्णिम दिवस आ पहुँचा है, जब भगवान बद्रीविशाल के अनन्य दर्शनों का लाभ पाकर पूरे मार्ग की थकान छूमंतर होने वाली है.
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लेकिन यह क्या? दादी घबरायी हुई, डरी-सहमी सी अकेले क्यों खड़ी है? दादाजी अम्मा के कान में कुछ खुसुर-फुसुर कर रहे हैं. अम्मा नम आँखों के साथ दादी के पास आकर कहने लगी, “मधी! तू भी किस्मत की बहुत ही धनी है, इतनी कठिनाइयों को सहते, इतना भारी बोझ उठाते यहाँ तक पहुँची और पहुँचते ही बाहर हो गई.”
भले ही मेरी दादी को मंदिर पहुँचते ही मासिक धर्म से पीड़ित होने का दुख झेलना पड़ा हो, लेकिन उस दौर में इतनी ममतामयी सास का मिलना वास्तव में उनके सौभाग्य को ही दर्शाता है. अब क्या किया जा सकता है, जो होना था वह हो गया. यात्रा के दौरान ऐसी घटना का घटित होना कोई नई बात नहीं है. इन लम्बी-लम्बी तीर्थयात्राओं में महिलाओं के साथ ऐसा होना स्वाभाविक है. हर समस्या का समाधान है. निश्चित ही इसका भी. कुछ विधि-विधानों के साथ दादी को पाँच दिन तक सबसे अलग रहना है. उसके पश्चात् नियत कर्म-काण्ड पूरे होने पर ही वे बद्रीविशाल के दर्शनों का लाभ ले पायेंगी. सबके लिए धर्मशाला में रहने की व्यवस्था की गई है, लेकिन दादी तो अब उनके साथ रह नहीं सकती. उनके लिए अलग से एक छोटी सी जर्जर कुटिया में रहने की व्यवस्था की गई है. शरद ऋतु के अवशेष अभी भी कुटिया के टूटे हुए भाग के सामने जमी बर्फ के रूप में देखे जा सकते हैं. कुटिया के खुले भाग से आती सर्द हवाओं को रोकने के लिए सामने पड़े एक लकड़ी के दरवाजे को दादाजी ने उस टूटे भाग से सटाकर रख छोड़ा है. इस बर्फीली रात में ठण्ड से बचने के लिए दादी के पास बिछाने के लिए मात्र एक बोरा और ओढने के लिए एक पंखी है. करुणाशील अम्मा ने अपनी एक जोड़ी धोती और घाघरा भी दादी को लपेटने के लिए दे दिया है और एक जोड़ी कपड़े तो दादी ने पहने ही हैं. इससे ज्यादा और क्या चाहिए ऐसी बर्फानी रात गुजारने के लिए. जैसे-तैसे रात तो कट गई, लेकिन वास्तविक परीक्षा तो अभी भी बाकी है. दादाजी को बताया गया है कि सूर्योदय के साथ ही दादी को पवित्र स्नान के लिए उफनती अलकनन्दा नदी के किनारे पहुँचाना है. जहाँ बर्फीले पानी में स्नान करने के बाद अपने पहने हुए कपड़ों को धोना और सुखाना है. ब्रह्मकपाली से थोड़ा आगे नीचे की तरफ एकान्त जगह पर एक समतल चट्टान पर उन्हें स्नान-ध्यान के लिए रख छोड़ा गया. रात में अम्मा के दिए वस्त्रों ने जितनी गर्मी दी थी उसकी सारी कसर उन्हें बर्फीले पानी में धोने के काम ने निकाल दी. यह क्रम चार दिनों तक चलता रहा.
चौथे दिन दादी को धर्मशाला के एक कोने में रहने की अनुमति मिल गई है. पाँचवें दिन उनका पहला स्नान धर्मशाला में ही होता है. तदोपरान्त अलखनन्दा के तट पर मंत्रोच्चार के साथ अलखनन्दा के पवित्र बर्फानी जल के 122 लोटा जल उनके सिर पर डालकर पवित्र स्नान कराया जाता है. पुनः तप्तकुण्ड में डुबकी लगाने के लिए उस ओर ले जाया जाता है. वहाँ अनेक महिलाएं हाथों में दीए लिए मनोकामना पूर्ति हेतु रातभर से तप्तकुण्ड में खड़ी थी, जिसे स्थानीय भाषा में ’ठाड़ दी’ कहते हैं. दादी को भी कुण्ड में उतरने को कहा जाता है.
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चूंकि दौला एक पहाड़ी चोटी पर बसा गाँव है. अतः दादी को गाड़-गधेरों में चलने का अभ्यास नहीं है. वे कुण्ड की गहराई का अनुमान नहीं लगा पाती और कूद जाती हैं, लेकिन टिकने की जगह न मिल पाने के कारण नीचे गिर जाती हैं. भला हो दादाजी का, जो साये की तरह दादी के साथ थे. उन्होंने झट से दादी का हाथ पकड़ ऊपर खींच लिया. फिर दादाजी का हाथ पकड़े हुए ही दादी ने तप्तकुण्ड में पाँच डुबकियाँ लगाई. तप्तकुण्ड के आरामदायक जल ने मानो दादी के इतने दिनों की ठिठुरन को हर लिया. इसी के साथ पूरे हुए सारे विधि-विधान.
स्वच्छ-निर्मल वस्त्र धारण कर दादी बद्रीनारायण की प्रतिमा को नयनों में भरकर अपने दल के साथ वापस लौट आई. दादी के मासिक धर्म ने सभी को पाँच दिनों तक बद्रीनाथ धाम की पवित्र भूमि में रुकने का सौभाग्य प्रदान किया. वास्तव में, उनका मासिक धर्म उस पावन धाम में उनकी तपस्या का स्रोत था, शायद यह उनकी सहनशीलता की परीक्षा भी थी, जिसमें वे शतप्रतिशत उर्त्तीण हुई.
मूल रूप से मासी, चौखुटिया की रहने वाली भावना जुयाल हाल-फिलहाल राजकीय इंटर कॉलेज, पटलगाँव में राजनीति विज्ञान की प्रवक्ता हैं और कुमाऊँ विश्वविद्यालय से इतिहास की शोध छात्रा भी.
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बहुत ह्रदयस्पर्शी वर्णन...।
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