मदान थियेटर और इम्पीरियल भारत में पहली बोलती फिल्म से पहले फिल्म निर्माण की सनसे
बड़ी दो कम्पनियां थी. बोलती फिल्म बनने के बाद इनके मालिकों के बीच एक नयी प्रतिस्पर्धा शुरू हो गयी. इमपिरयल के मालिक अर्देशियर ईरानी ने भले सबसे पहली बोलती फिल्म बनाकर बजी मार ली लेकिन 1931 के साल में प्रदर्शित 23 बोलती फिल्मों में 7 मदान थियेटर्स की और 5 इम्पीरियर की थी.
मदान थियटर के मालिक जे.जे. मदान थे और मदान थियेटर की पहली फिल्म शीरीं फरहाद थी. शीरीं फरहाद तकनिकी तौर पर आलमआरा से बेहतर फिल्म थी यही कारण था कि शीरीं फरहाद आलमआरा से अधिक सफल रही. इसमें शीरीं और फरहाद की भूमिका में जहांआरा कज्जन और मास्टर निसार की जोड़ी भी आलमआरा की जुबैडा और मास्टर विट्ठल की जोड़ी से अधिक लोकप्रिय हुई. जहांआरा कज्जन मूक फिल्म के दौर की सबसे कामयाब अभिनेत्री थी. उन्हें देखने भर के लिए लोग सिनेमा घर भीड़ से उमड़े रहते. शीरीं फरहाद मूक फिल्म के दौर में दो बार और बोलती फिल्म के दौर में चार बार बनी. इस तरह हिंदी सिनेमा ने बड़ी विनम्रता से यह साबित किया कि प्रेम देश और काल की सीमाओं में नहीं बंधता.
हिंदी सिनेमा के शरुआती प्रमुख लेखक पारसी थियेटर के ही नाटककार थे इसलिये इस फिल्म में पूरी तरह पारसी प्रभाव रहा. शीरीं फरहाद फिल्म के लेखक और गीतकार यशस्वी आगा हश्र काश्मीरी थे.
द्रोपदी, देवी देवयानी, नूरजहाँ 1931 में प्रदर्शित कुछ एनी बोलती फ़िल्में थी. देवी देवयानी चंदूलाल शाह द्वारा निर्देशित थी. शाह को सिनेमा का ही नहीं स्टाक मार्केट का भी बादशाह कहा जाता है. 1931 में बनी सभी बोलती फिल्मों में देवी देवयानी तकनीकी रूप से सबसे सशक्त फिल्म थी.
देवी देवयानी की शीर्षक भूमिका कय्यूम गौहर मामाजीवाला ने अदा की थी. गौहर अपने समय की सबसे मशहूर अदाकारा में शुमार थी. शाह की सभी फिल्मों में गौहर ही नायिका होती थी. शाह और गौहर का प्रेम प्रसंग हिंदी सिनेमा की पहली गासिप है.
वसुधा के हिंदी सिनेमा: बीसवीं से इक्कसवीं सदी तक अंक के आधार पर
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