Featured

1857 के ग़दर में काली कुमाऊँ का स्वतंत्रता सेनानी

भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम में उत्तराखण्ड की भी अपनी भूमिका रही. उत्तराखण्ड के काली कुमाऊँ में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के हाथ मजबूत करते हुए ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ बगावत का बीज बोया गया. (Kalu Singh Mahara)

काली कुमाऊं में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आन्दोलन का परचम बुलंद करने वाले सेनानियों का नेतृत्व किया आजादी के दीवाने कालू सिंह महरा ने. उन्होंने प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में काली कुमाऊँ के लोगों के ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ गुस्से को स्वर दिया और उसका नेतृत्व किया. वे भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने वाले उत्तराखण्ड के पहले सेनानी थे.

1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम में काली कुमाऊँ की भूमिका इतिहास के सुनहरे पन्नों में अंकित है. ब्रिटिश हुकूमत इस क्षेत्र से किसी भी बगावत के लिए तैयार नहीं थी. कालू सिंह महरा के नेतृत्व में अंग्रेजों के खिलाफ काली कुमाऊँ के संग्राम ने ब्रिटिश हुकूमत को हतप्रभ कर दिया था.

उत्तराखण्ड के पहले स्वतंत्रता सेनानी कालू सिंह महरा का जन्म लोहाघाट के पास एक गांव थुआमहरा के सामान्य परिवार 1831 को हुआ. कालू सिंह महरा ने अपनी युवावस्था में ही ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ विद्रोह लामबंद करना शुरू कर दिया. वे आजादी के आन्दोलन को संगठित करने के लिए काली कुमाऊँ के इलाके में सक्रिय हुए. रूहेलखण्ड के नबाव खानबहादुर खान, टिहरी नरेश और अवध नरेश द्वारा अंग्रेजों के खिलाफ बगावत के लिए कालू महरा को सहयोग करने का वायदा किया गया था. उनकी सक्रियता को देखते हुए अवध के नवाब ने कालू महरा को इस आशय का पत्र लिखा कि यदि इस क्षेत्र को अंग्रेजी शासन से मुक्त करा लिया जाता है तो पहाड़ी इलाके का शासन कालू महरा को सौंप दिया जायेगा और तराई के इलाके को अवध राज्य द्वारा शासित किया जायेगा. विशंपट्टी के मुखिया कालू मेहरा का विद्रोही फजलहक से सम्पर्क था. कालू मेहरा के पास वाजिद अलीशाह के पत्र आने की बात पाण्डे ने लिखी है.

कालू महरा

इसके बाद पहले से ही सक्रिय कालू माहरा ने काली कुमाऊँ क्षेत्र की जनता को संगठित कर बगावत का बिगुल फूंक दिया. इस विद्रोह के नायक बने कालू महरा और उनके अभिन्न सहयोगी थे आनंद सिंह फर्त्याल, बिषना करायत, माधों सिंह, नूर सिंह तथा खुशा सिंह आदि. सारी तैयारी कर लेने के बाद सबसे पहले लोहाघाट के चांदमारी में स्थिति अंग्रेजों की बैरकों पर हमला किया गया. इस अप्रत्याशित हमले के बाद ब्रिटिश सैनिक और अंग्रेज अधिकारी भाग खड़े हुए और स्वतंत्रता सेनानियों ने ब्रिटिश हुकूमत की इन बैरकों को आग के हवाले कर दिया.

पहली लड़ाई में कामयाबी मिलने के बाद कालू महरा और उनके लड़ाकों ने नैनीताल और अल्मोड़ा की तरफ से काली कुमाऊँ की ओर आगे बढ़ रही ब्रिटिश सेना को रोकने के लिए पूरे काली कुमाऊँ में इस लड़ाई को और ज्यादा तेज करने के लिए स्थानीय जनता को साथ लेकर लड़ाई और तेज कर दी. तय शर्तों के अनुसार इस लड़ाई को तीनों नवाबों द्वारा यथासंभव सहयोग और समर्थन दिया जा रहा था. अब कालू महरा के नेतृत्व में इस सेना ने बस्तिया की ओर आगे बढ़ना शुरू किया. यहाँ इन्हें रास्ते में छिपाए गए हथियारों और धन को लेकर आगे बढ़ना था. लेकिन अमोड़ी के नजदीक क्वैराला नदी के किनारे बसे किरमौली गांव में छिपाए गए हथियारों और धन के बारे में किसी मुखबिरी द्वारा अंग्रेजों को पहले ही सूचना दे दी गयी. कालू महरा और उनके दल के इस जगह तक पहुँचने से पहले ही ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा इसे कब्जे में ले लिया गया. इस तरह भीतरघात की वजह से सफलतापूर्वक आगे बढ़ रहा काली कुमाऊँ की जनता का यह आजादी अभियान बस्तिया में बिखर गया.

कालू महरा को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया और उनके दो नजदीकी सहयोगियों, आनंद सिंह फर्त्याल तथा बिशन सिंह करायत को भी हिरासत में ले लिया गया. कालू महरा को 52 जेलों में घुमाया गया. आनंद सिंह फर्त्याल तथा बिशन सिंह करायत को अंग्रेजों ने लोहाघाट के चांदमारी में गोली से उड़ा दिया.

काली कुमाऊँ की जनता ने इस बगावत का दंड लम्बे समय तक भुगता. 1937 तक काली कुमाऊँ के किसी भी व्यक्ति को सेना में भर्ती नहीं किया गया. अंग्रेज सरकार ने यहाँ के सभी विकास कार्य रुकवा दिए. कालू माहरा के घर पर हमला बोलकर उसे जला दिया गया. इस दौरान ब्रिटिश सरकार के पक्ष में बयान देने वालों को बरेली में जागीरें दी गयी.

1857 के गदर के बाद जुलाई 1858 में रैमजे ने सरकार को एक रिपोर्ट सौंपी. अपनी रिपोर्ट में रैमजे ने बताया कि जून 1857 के समय डाक व्यवस्था पूरी तरह भंग हो गयी थी और अंगेजों को मैदानी इलाक़ों से किसी भी प्रकार की सूचना नहीं मिला रही थी. पहाड़ो में गदर की किसी भी घटना के शुरू होने से पहले ही काबू पा लिया गया था. जुलाई अंत तक मसूरी के रास्ते डाक व्यवस्था पुनः प्रारंभ की गयी. इस दौरान बरेली और मुरादाबाद से अनेक शरणार्थी नैनीताल पहुँचने लगे. हैनरी रैमजे ने इस दौरान पूरे कुमाऊं में मार्शल लॉ लागू किया था.

कुमाऊं में  1857 के विद्रोह संबंधी सरकारी रिपोर्ट

हैनरी रैमजे पिछले 15 सालों से कुमाऊँ क्षेत्र में विभिन्न पदों पर रह चुका था. हैनरी रैमजे कुमाऊँ क्षेत्र से इतना परिचित हो चुका था कि वह स्थानीय लोगों से टूटी-फूटी कुमाऊंनी में ही बातचीत भी करता था. उसकी इसी पकड़ के कारण ही उत्तराखण्ड में 1857 की क्रान्ति का बड़े पैमाने पर प्रभाव नहीं देखा गया. कालू महरा को उनके शौर्य और वीरता के लिये उत्तराखण्ड का प्रथम स्वतंत्रता सेनानी कहा जाता है.

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Sudhir Kumar

View Comments

  • इसमें एक गड़बड़ है,
    1815 में गढ़वाल नरेश को उसका खोया हुआ राज्य, आधा-पाधा ही सही, अंग्रेजों की मदद से मिला था। उसके बाद से 1947 तक वे अंग्रेजों के अहसान तले स्वामिभक्त होकर रहे।
    इसलिए 1857 की क्रांति में कालू मेहरा का साथ देना, या आश्वासन देना गलत बात है।
    टिहरी नरेश ने 1857 के युद्ध में अंग्रेजों की हर संभव मदद की थी, सेना, रसद आदि, हर तरफ से।
    झांसी की रानी को हराने में भी इनका योगदान था।

  • काली कुमाऊं के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम सेनानी वीर कालू सिंह मेंहरा के वंशज आज भी आरक्षण से वंचित हैं।

Recent Posts

‘गया’ का दान ऐसे गया

साल 1846 ईसवी. अवध के कैंसर से जूझते नवाब अमजद अली शाह अपने अंतिम दिन…

4 hours ago

कोसी नदी ‘कौशिकी’ की कहानी

इस पहाड़ से निकल उस पहाड़कभी गुमसुम सी कभी दहाड़यूं गिरते-उठते, चलते मिल समंदर से…

3 days ago

यो बाटा का जानी हुल, सुरा सुरा देवी को मंदिर…

मुनस्यारी में एक छोटा सा गांव है सुरिंग. गांव से कुछ तीन किलोमीटर की खड़ी…

5 days ago

कुमौड़ गांव में हिलजात्रा : फोटो निबन्ध

हिलजात्रा एक ऐसी परंपरा जो पिछले 500 सालों से पिथौरागढ़ के कुमौड़ गाँव में चली…

6 days ago

शो मस्ट गो ऑन

मुझ जैसा आदमी... जिसके पास करने को कुछ नहीं है... जो बिलकुल अकेला हो और…

2 weeks ago

सेंट जोसेफ कॉलेज नैनीताल : देश का प्रतिष्ठित स्कूल

किसी भी समाज के निर्माण से लेकर उसके सांस्कृतिक एवं आर्थिक विकास में शिक्षा की …

2 weeks ago