Featured

लगी हो आग जंगल में कहीं जैसे, हमारे दिल सुलगते हैं

यदि आप हाल-फिलहाल उत्तराखण्ड में पर्यटक या ट्रेकर या पर्वतारोही बनकर आये हैं या ऐसा करने की मंशा रखते हैं तो आपको इससे आगे पढ़ने की जरूरत नहीं.

फोटो : अमर उजाला से साभार

यह विसूवियस या सकूराजीमा के ज्वालामुखी का नहीं नैनीताल से कोई दस किलोमीटर दूर बल्दियाखान के जंगल का कल का फोटो है जिसे आज के स्थानीय अमर उजाला ने छापा है.

उत्तराखण्ड के पहाड़ों में फिर से आग लगी हुई है. असकोट-चम्पावत से लेकर पिथौरागढ़, ज्योलीकोट से लेकर गरमपानी और पतलोट से लेकर बिनसर तक के जंगल जल रहे हैं. एक मोटा अनुमान बताता है कि करीब चार सौ हेक्टेयर क्षेत्र के जंगल होम हो चुके हैं. कुमाऊँ भर में पचास से ऊपर ऐसी जगहें चिन्हित की जा चुकी हैं जहाँ वनाग्नि का कहर जारी है.

पहाड़ों में गर्मियों में आग लगना आम बात है. ऐसा सदियों से होता आ रहा है. अच्छी घास उगाने की नीयत से जंगलों में फैली हुई चीड़ की सूखी पत्तियों यानी पिरूल को नियंत्रित रूप से जलाने की परंपरा रही है. पुराने समय में इस आग पर काबू पाने को वन विभाग ने पतरौल और अगलैन जैसे पद सृजित किये हुए थे. इन पदों का अभी क्या स्टेट्स है मैं नहीं जानता. समूचा वन विभाग इस बात को सुनिश्चित करता था कि हर साल अप्रैल-मई-जून में लगने वाली इस आग से कम से कम नुकसान हो.

फिलहाल नया राज्य बनने के बाद समाचार खबर आई थी कि सरकार ने इस बाबत ठोस कदम उठाने की पहल करते हुए अलग से बाकायदा एक विभाग इसके लिए बनाने का निर्णय लिया था. इस उद्देश्य से हेलीकॉप्टरों की खरीद किये जाने और उनके जंग खा जाने की खबरें भी सामने आई थीं. इस विभाग की बाबत भी मेरी जानकारी शून्य ही है.

आग लगाने के सीजन का समय हमारे टूरिस्ट सीजन के समय से पूरी तरह मेल खाता है. इस लिहाज से सरकारी जिम्मेदारी और बढ़ जानी चाहिए थी क्योंकि दो दशक पूर्व नया राज्य बनने के बाद से ही उत्तराखण्ड को पर्यटन प्रदेश के रूप में विकसित किये जाने के सरकारी चर्चे हैं.

वन विभाग कहता है उसकी व्यवस्था पूरी तरह चौकस है और आग लगाने का काम शरारती तत्व करते हैं. इन शरारती तत्वों का नाम बताने वाले को 5000 रुपए का इनाम दिए जाने की घोषणा भी आज के अखबार में है. जनता से पूछा जाय तो वह कहती है कि सरकार और जंगलात वाले नाकारा और घूसखोर हो गए हैं. कोई अपना काम ढंग से नहीं करता. और इन दोनों के अलावा जिस-जिस को इस आग से कोई तात्कालिक नफा-नुकसान न हो रहा हो, उससे पूछेंगे तो वह कहेगा – “मेरे कद्दू से!”

असल बात तो यह है कि पहाड़ों में लगी आग को बुझाने का काम सरकार और जनता दोनों का साझा होता था और होना भी चाहिए. जाहिर है यह काम बेहद मुश्किल होता रहा होगा लेकिन काम को अंजाम हर हाल में दिया जाना होता था.

चौरानवे साल के मेरे सबसे बुजुर्ग मित्र श्री त्रिलोक सिंह कुंवर जीवन भर वन विभाग की नौकरी की थी. 70 साल पहले के उनके संस्मरणों में से आपको एक टुकड़ा पढ़ाना चाहता हूँ. उन दिनों वे युवा थे और भवाली रेंज में फ़ॉरेस्टर के पद पर तैनात थे.

त्रिलोक सिंह कुंवर

आग का मौसम – 1948

अगली सुबह चन्द और ग्रामीणों की मदद से हमने एक सूखे नाले से सटे बांज के जंगल में लगी आग को बुझाने का काम शुरू किया. इसके अलावा हम इस बात की निगरानी भी कर रहे थे कि चिंगारियां सुरक्षित इलाके को नुकसान न पहुंचा सकें. यह कार्य शाम तक चलता रहा. हम सब बेतरह थक चुके थे. उस रात हम एक नज़दीकी गांव में रहे जहां हमें अपनी नींद पूरी कर पाने का समय मिल सका. तीसरी सुबह मैंने देखा कि आग पर तकरीबन काबू पाया जा चुका था. इलाके की निगरानी करते हुए मैंने पहाड़ी से नीचे उतरते एक सन्देशवाहक को देखा. उसने पास आकर मुझे बताया कि उत्तर प्रदेश के चीफ़ कन्ज़रवेटर श्री एम. डी. चतुर्वेदी और कुमाऊं के कन्ज़रवेटर श्री जे. स्टीफ़ेन्स भवाली सैनेटोरियम कैम्पस के नज़दीक एक रिज पर मौजूद थे और मैंने तुरन्त उन्हें रिपोर्ट करना था. चूंकि मेरे तात्कालिक उच्चाधिकारी अनुपस्थित थे, मेरे कार्य की किसी भी कमी के लिए मुझे बचाने वाला कोई न था. ऊपर चढ़ते हुए मैंने अनुमान लगाया कि सम्भवतः भयभीत होकर भवाली सैनेटोरियम के सुपरिन्टेन्डैन्ट ने आला अफ़सरान को सूचित कर दिया होगा.

चूंकि उन दिनों नैनीताल राज्य की ग्रीष्मकालीन राजधानी हुआ करती थी, हमारे विभाग के उच्चाधिकारियों से मामले को गम्भीरता से देखने को कहा गया होगा. ढाई दिनों तक आग से लड़ते हुए मेरा चेहरा काला पड़ा हुआ होगा और मेरे बालों और कपड़ों की दुर्गति अलग. मुझे ठीकठीक याद नहीं मुझसे क्या पूछा गया और मैंने क्या जवाब दिए. चूंकि उच्चाधिकारियों के सामने मैं आदतन मुखर रहा करता था मैंने ढाई दिन तक की मशक्कत और तनाव को लेकर काफ़ी कुछ कहा होगा. बाद में मुझे पता चला कि हमारे रेन्ज अफ़सर से अनुपस्थित होने के बाबत स्पष्टीकरण मांगा गया क्योंकि कैज़ुअल लीव को हमेशा ऑन-ड्यूटी माना जाता था. चीफ़ कन्ज़रवेटर ने लिखित में कहा कि उनका सामना एक बेवकूफ़ अफ़सर यानी मुझसे हुआ था.

सबक: अच्छा निस्वार्थ काम करने वाला तब भी बेवकूफ माना जाता था और अब भी.

क्या मैं उम्मीद करूं कि कुंवर साहब जैसे दो-चार बेवकूफ अफसर हमारे काबिल वन विभाग में अब भी बच रहे हैं जिन्हें ढाई दिन भूखे-तिसाने, आग से लड़ते हुए अपना चेहरा काला करवाना और फिर आला अफसर की लताड़ खाना भी मंजूर है!

– अशोक पांडे

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Girish Lohani

Recent Posts

उत्तराखंड में सेवा क्षेत्र का विकास व रणनीतियाँ

उत्तराखंड की भौगोलिक, सांस्कृतिक व पर्यावरणीय विशेषताएं इसे पारम्परिक व आधुनिक दोनों प्रकार की सेवाओं…

2 days ago

जब रुद्रचंद ने अकेले द्वन्द युद्ध जीतकर मुगलों को तराई से भगाया

अल्मोड़ा गजेटियर किताब के अनुसार, कुमाऊँ के एक नये राजा के शासनारंभ के समय सबसे…

5 days ago

कैसे बसी पाटलिपुत्र नगरी

हमारी वेबसाइट पर हम कथासरित्सागर की कहानियाँ साझा कर रहे हैं. इससे पहले आप "पुष्पदन्त…

5 days ago

पुष्पदंत बने वररुचि और सीखे वेद

आपने यह कहानी पढ़ी "पुष्पदन्त और माल्यवान को मिला श्राप". आज की कहानी में जानते…

5 days ago

चतुर कमला और उसके आलसी पति की कहानी

बहुत पुराने समय की बात है, एक पंजाबी गाँव में कमला नाम की एक स्त्री…

5 days ago

माँ! मैं बस लिख देना चाहती हूं- तुम्हारे नाम

आज दिसंबर की शुरुआत हो रही है और साल 2025 अपने आखिरी दिनों की तरफ…

5 days ago