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पहाड़ का संपन्न किसान शरणार्थी बन गया

आपदाएं आती हैं और चली जाती हैं. आपदाओं का विध्वंसक रूप कुछ दिनों अखबार और टीवी पर दिखता है. इसी दौरान सरकारें और शासन-प्रशासन की भी सक्रियता दिखाई देती है. अफसरों के दौरे होते हैं और बाद में अफसर लौट जाते हैं. इसके बाद अगली आपदा में ही नजर आते हैं. दो आपदाओं के बीच का समय दिलीप सिंह जी जैसे लोगों को अकेले ही काटना पड़ता है शरणार्थी की तरह. दिलीप पैदाइशी अभागे नहीं हैं. वे एक संपन्न किसान परिवार से थे. आपदाओं के इतने थपेड़े खाने के बावजूद उनके चेहरे की रौनक बताती है अतीत खूबसूरत रहा होगा. (Farmer of the Mountain Became a Refugee)

गोरी नदी के किनारे बसे दिलीप की जिंदगी पिछले सात सालों में उजड़ी है. जीआईसी बरम के राहत कैंप में अपनी बुजुर्ग मां, पत्नी और बेटे के साथ रह रहे दिलीप सिंह के पास 2013 तक 51 नाली जमीन थी. अपने गांव के सबसे बड़े जोतदारों में थे वे. खाने-पीने और दूध-दही-घी के लिए कभी बाजार पर निर्भर नहीं रहे. 2013 में आई बेहताशा बारिश ने उनकी आधी खुशियां छीन लीं. बरसात का पानी उनकी 20 नाली जमीन ले गया लेकिन उन्होंने संतोष रखा क्योंकि घर-मकान बच गया था. उन्होंने अपनी मेहनत से 31 नाली जमीन से ही 51 नाली के बराबर फसल लेने का हौसला रखा.

उन्हें क्या पता था कि बारिश के बाद उनकी बची जमीन को वही नदी खा जाएगी जिसकी कलकल-छलछल सुनकर वे बड़े हुए. जिसकी आवाज लोरी जैसी थी उनके लिए. बचपन से जवानी तक वे पूरे-पूरे दिन महबूब की तरह समाए रहते थे उसमें. 2020 में उसी गोरी ने उनकी बची हुई जमीन भी छीनकर उन्हें बेघर कर दिया. तबाही के सदमे से जवान बेटा डिप्रेशन में चला गया. जमीन से बर्बाद दिलीप औलाद से भी गए. राहत कैंप में बैठी उनकी बुजुर्ग मां की आंखों को गौर से देखें तो लगेगा जैसे जानना चाह रही हों कि प्रकृति इतनी बेरहम क्यों और कैसे हो गई?

दिलीप सिंह से मिलने से पहले भी जौलजीवी-मुनस्यारी के बीच मैंने कई बार सफर किया लेकिन मुझे कभी एहसास ही नहीं हुआ कि मेरे साथ-साथ चल रही शांत गोरी इतनी बड़ी अपराधी भी है? पर्यावरणविद् तर्क दे सकते हैं कि मानवीय हस्तक्षेप के कारण ही गोरी अपराधी बन रही है. लेकिन मैं विश्वास से कह सकता हूं कि हस्तक्षेप करने वाले मानव गोरी घाटी के दिलीप सिंह जैसे लोग तो कतई नहीं. इन लोगों ने तो हमेशा यहां के जंगल, नदियों और पहाड़ों को संवारा ही है. यहां के जंगलों का पत्ता-पत्ता गवाही देता है कि सब कुछ खुला होने के बावजूद गोरी घाटी के लोगों ने कभी लालच नहीं किया. पहाड़ में आप कहीं भी चले जाइए सबसे संपन्न और आबादी वाले गांव आपको यहीं दिखते हैं. ईजा के मरने का इंतजार…

आप भूल सकते हैं कि उत्तराखंड को पलायन का कीड़ा लगा है. ये लोग सरकार के भरोसे यहां नहीं टिके हैं. ये टिके है अपने जंगलों, खेतों और जानवरों की बदौलत. पलायन रोकने का ढोंग करने वाली सरकार तो अब तक सैकड़ों गांवों को सड़क तक से नहीं जोड़ पायी है. ये असली पहाड़ी हैं जिन्हें वास्तव में अपनी जमीन से प्यार है.  सरकार को चाहिए था कि गांव बचाकर रखने वाले ऐसे ग्रामीणों को हर बुनियादी सुविधा-संसाधन उपलब्ध कराए लेकिन हुकमरानों ने तो जमींदारों तक को शराणार्थी बनाकर छोड़ दिया.

शहीद होते फौजी को अंतिम क्षणों में बीवी के अल्ट्रासाउंड की चिंता सताती रही

राजीव पांडे की फेसबुक वाल से, राजीव दैनिक हिन्दुस्तान, कुमाऊं के सम्पादक  हैं.

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Sudhir Kumar

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