फैजाबाद, रहै आबाद
-राहुल पाण्डेय
जबसे सरकार बहादुर ने मेरे फैजाबाद का नाम बदला है, सोच रहा हूं कि मेरे मोहल्ले कंधारी बाजार का नाम क्या रखा जाएगा? या फिर जिस रिकाबगंज चौराहे पर अमेरिका तक गमकती महावीर की टिक्की छनती है, उसका नाम क्या रखा जाएगा? चार गोल दागने पर जिस अकब बजाजा में हमने केवड़े से गमकती रबड़ी फालूदा से अपने गले तर किए, उसका नाम क्या रखेंगे सरकार बहादुर? जिस गुलाबबाड़ी में हमारे नवाब शुजाउद्दौला पिछले 243 सालों से मीठी नींद सोये हुए हैं, क्या वह कमल वाटिका बन जाएगा? या फिर जिस सआदतगंज में हमारे सांसद महोदय रहते हैं, उसका नाम सियारामपुर रख दिया जाएगा?
जिस तरह से इलाहाबाद से लेकर फैजाबाद होते हुए अहमदाबाद तक नाम बदलने की बुलेट ट्रेन बिन पटरी के पहुंच चुकी है, अब गंजों, बाजारों और बजाजों का नंबर आने में ज्यादा देर नहीं लगने वाली. लेट होने की आदत तो बस पटरी पर दौड़ने वाली ट्रेन की पड़ी हुई है. बारा पत्थर का वह मैदान, जहां हम तकिया के तबरेज, घम्मड़, सकीना, संजू और पतारू के साथ खेले, जहां हम लड़े-भिड़े और एक दूसरे का मुंह नोचा, वह मैदान भी इस हवा में उड़ जाएगा. बड़े-बड़े शहर उड़ रहे हैं, एक मामूली मैदान की क्या औकात?
रीडगंज में अख्तरी फैजाबादी यानी बेगम अख्तर की कोठी है. इनमें क्या बदलेंगे? रीडगंज या बेगम? फैजाबाद में ही पंडित बृजनारायण हुए, जिन्होंने अपना नाम चकबस्त रख लिया था. दुनिया इधर से उधर हो जाए, वे तो चकबस्त नाम से ही जाने जाएंगे.
आजमगढ़ वाले दोस्त ने फोन किया तो उठाते ही बड़ी देर तक हम दोनों हंसते रहे. हैलो भी नहीं बोला, बस हंसते रहे. बेवकूफी से जन्मा क्रोध कॉमेडी को जन्म देता है, और वही हो रहा है. पहले क्षोभ होता था, क्रोध भी आता था, लेकिन अब सिर्फ हंसी आती है.
हमारे जिन पूर्वजों ने फैजाबाद बसाया और बगल में अयोध्या के लिए भरपूर जगह बनाई, वे भी हंसते ही होंगे. नाम तो बदले जा रहे हैं, लेकिन ‘नाम’ का नाम क्या रखेंगे? यह शब्द तो संस्कृत में भी है और फारसी में भी. शादी-ब्याह, हंसी-खुशी, बाल-बच्चे, दंगा-फसाद, दीन-धरम, दाना-पानी, चोली-दामन, रंग-रूप, लाज-शरम, राम-रहीम, बनिया-बक्काल, खेल-तमाशा, हल्वा-पूरी, खुले-आम, साधु-बाबा, अंदर-बाहर, हाल-चाल जैसे जोड़ों में एक शब्द उर्दू का है, दूसरा हिंदी या संस्कृत का.
बाबू श्यामसुंदर दास ने अपने ‘बाल शब्द सागर’ में पांच हजार ऐसे अरबी-फारसी शब्द छाप रखे हैं, जो अनपढ़ों की भी जुबान पर चढ़े हुए हैं. यहां क्या करेंगे? इस अंधी बयार में भी कोई दिल की जगह हृदय नहीं बोलने वाला. लेकिन शायद सरकार बहादुर को यह समझने के लिए पचास सालों का अतिरिक्त कार्यकाल भी कम पड़े कि शहर नाम से नहीं, काम से बनते हैं. और जब काम नहीं होता तो नाम भले बड़ा हो जाए, दर्शन छोटे ही रह जाते हैं.
दिल्ली में रहने वाले राहुल पाण्डेय का विट और सहज हास्यबोध से भरा विचारोत्तेजक लेखन सोशल मीडिया पर हलचल पैदा करता रहा है. नवभारत टाइम्स के लिए कार्य करते हैं. राहुल काफल ट्री के लिए नियमित लिखेंगे.
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