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उत्तराखंड में पूजे जाने वाले नागराजा

उत्तराखंड गढ़वाल मण्डल में ऐसा कोई जनपद नहीं जहां श्री कृष्ण के रूप में पूजे जाने वाले नागों के मंदिर न हों.अनेक वैष्णव मंदिर नागराजा मंदिर और नागराजा मंदिर वैष्णव मंदिर कहे गए जिसका कारण यह कि गढ़वाल में नागराजा एवं विष्णु या भगवान श्री कृष्ण को एक ही माना जाता है.नागों का प्रभाव शिव जी की पूजा के साथ भी रहा.
(Famous Nag Devta Temples in Uttarakhand)

कहते हैं कि जब ब्रह्मा जी ने नागों को श्राप दिया तो नागों ने पुष्कर पर्वत पर जा कर शिव जी को प्रसन्न करने के लिए कठिन तप किया. शिव उनके समर्पण व प्रार्थना से प्रसन्न हुए और तभी से नाग उनके गले के भूषण बने. नागों के साथ साथ पर्वत, नदी, वृक्ष, शिला, मातृ देवी व ग्रामदेवी के पूजन की परिपाटी चली. प्रायः हर गाँव में किसी बड़े पेड़ के नीचे लोहे का त्रिशूल, लोहे का दीपक, लोहे के ही दो मुँह वाले नागके साथ नागदेव की प्रतिष्ठा होती थी. लोहे के त्रिशूल के रूप में उनके साथ नरसिंग देवता भी विराजमान होते.

गढ़वाल में नागों का सबसे बड़ा तीर्थ सेम -मुखेम है. साथ ही नागराजा के 65 से अधिक अन्य प्रधान मंदिर हैं. नागथात और नागटिब्बा में नाग पूजा संपन्न की जाती है. विरणेश्वर को समर्पित मंदिर दूधातोली की चौथानपट्टी में है. पांडुकेश्वर में शेषनाग पूजनीय हैं तो रथ गाँव में भीखलनाग. कुमोट में वनपुरनाग की मान्यता है तो तलवर में मंगलनाग. नीति घाटी में लोहियानाग, पौड़ी में नागदेव, दशौली में तक्षकनाग, नागपुर में वासुकीनाग तो जौनसार में बिमहणनाग के साथ ही वसीनाग, बढ़वानाग व उलहणनाग पूजनीय हैं. नागनाथ में पुष्करनाग पूजे जाते हैं.

नागों के प्रतीक नाम अनगिनत हैं जिनकी अलग अलग स्थानों में, गावों में पूजा -अर्चना की जाती है. विशेष पर्व -उत्सवों में षोडशोचार पूजन व कहीं बलि भी चढ़ती है. नागों में मुख्य शेषनाग, नागदेव, वोखनाग,, पुष्कर नाग, बेरिंगनाग, चन्दनगिरिनाग, कम्बलनाग, लोहनदोनाग, कालिकनाग, वाम्पानाग, पूंडरिकनाग, संगलनाग, लुद्देश्वरनाग, हूणनाग, छद्देश्वर नाग, करमजीतनाग, शिकारूनाग, बगासूनाग, नागदेव टटोर डांडा इत्यादि माने गए हैं.जौनपुर में बैट गाँव, औतड़, श्रीकोट, गौगी, दीवान, भटोगाक्यारकुली, मौलधार, बिच्छू, वाडासारी व मयाणी इत्यादि गावों में प्रतिष्ठित नागमंदिर हैं.
(Famous Nag Devta Temples in Uttarakhand)

कुमाऊं मण्डल में प्रमुख नाग मंदिरों में चम्पावत में नागनाथ, ग्वालदम के नागदेवता, दानपुर के वासुकी नाग, सालम के नागदेव पदमगीर, भगोटी में सितेश्वर नाग, पुंगराऊ पट्टी के काली नाग, अठीगाँव के वासुकी नाग, छकाता नैनीताल में करकोटक नाग, विर्नेश्वर के अनंत नाग, विलानाग, फुंकार नाग, हुंकार नाग, तक्षक नाग, पुष्कर नाग, विसुनाग, शिशुनाग, शेषनाग, शिशु नाग, फिशनाग, धुमरी नाग,धौली नाग, खरही नाग, फेणी नाग व बेणीनाग उल्लेखनीय हैं जहां स्थानीय परिपाटी के अनुसार धूप- दीप -नैवेद्य से रोज इनकी नैमितिक अर्चना तो होती ही है विशेष अवसरों पर षोडशोपचार पूजा भी की जाती है. रोट भेट चढ़ता है. नारियल व बकरे की बलि भी चढ़ती है.

पहाड़ के गावों में माना जाता है कि खेत में हल चलाते हुए अगर सर्प दिखे तो नागराजा अर्थात श्रीकृष्ण रुष्ट हैं. बुजुर्ग बताते हैं कि पहले अगर नस्यूड़ या हल की फाल के नीचे कोई सांप दब जाए , मर जाय तो हलिये को पहने हुए कपड़े हल- बैल और यहाँ तक कि खेत को भी त्यागना होता था. शुद्धि तभी होती थी जब संगम में स्नान कर चांदी से बना नाग नागिन का जोड़ा नागमंदिर में चढ़ाया जाये. सेम मुखेम के नाग तीर्थ में जा यह उपाय करना सबसे अच्छा माना जाता. फिर घर में नागराजा के प्रसाद के रूप में रोट प्रसाद बाँटना होता था जिसे ‘कड़ाई’ करना कहा जाता था. ऐसे ही अपना मकान बनाने में बुनियाद में चांदी के नाग- नागिन का जोड़ा दबाने से सर्प भय नहीं रहता. नागराजा सेम मुखेम की जात्रा और तीर्थ जा कर चांदी का जोड़ा चढ़ाने पर न तो सर्प भय होता

और न ही नागराजा नाराज होते. वहीं हिमांचल की पांगी और चंद्र भागा घाटी में सावन मास में ग्रामीण अपने घरों से दूध एकत्रित कर नागराजा को अर्पित करते रहे हैं. प्रसिद्ध नागतीर्थं सेम मुखेंम में सीता राम ममगई लिखते हैं कि नाग पूजन से सम्बन्धित अनेक रीतियाँ और विधि विधान गढ़वाल में प्रचलित रहीं . जनश्रुतियों के अनुसार टिहरी गढ़वाल के फतेह परबत की सीमा में नागदेवता की वर्जना के कारण दूध पीना मना है. ऐसे ही भागीरथी नदी के वामपार्श्व के इलाके को बाणासुर का इलाका माना जाता है सो इस इलाके के लोग दही नहीं जमाते हैं. ये भी कहा जाता है कि भादों के मास में गुप्तसेम के समीप आंचरियां आ कर धान कूटतीं दिखाई देतीं .इसी तरह प्रकटा सेम में जो श्रृद्धालु भक्ति भाव से रात्रि जागरण करता उसे मध्य रात्रि में बांसुरी के साथ ढोल, तुरही, घंटे-धड़ियाल का निनाद सुनायी देता. नागराजा सेम द्वारा स्वप्न में दर्शन दिए जाने की स्वीकारोक्ति उत्तरकाशी में आम है. मान्यता है कि सैम मुखेम की जात्रा से सुख समृद्धि का फल प्राप्त होता है व पशु सम्पदा में भी वृद्धि होती है. इस तीर्थ में विधि विधान से पूजन कर कुंडली में वर्णित कालसर्प दोष का निवारण भी किया जाता है. मंदिर के समीप के जल स्त्रोत में स्नान से कोढ़ व त्वचा विकार दूर होते हैं.

नागराजा के अनेक स्वरुप हैं. नेगी याणा गाँव, पट्टी गगवाड़स्यूं, जिला पौड़ी गढ़वाल के निवासी नेगी लोगों का ईष्ट देवता पहले धावड्या नागरजा कहा जाता था जो किसी संकट के समय ग्रामवासियों को आवाज लगा सावधान कर देता था. उसे बकरे की बलि भी दी जाती थी पर अब यह परिपाटी खत्म हो चली है. अब इस गाँव के निवासी नागराजा की डोली को स्नान कराने देवप्रयाग ले जाते हैं जहां भागीरथी -अलकनंदा का संगम है. स्नान के बाद वापस गाँव में लौट कर नागराजा का घड़ियाला लगा फिर उन्हें मंदिर में प्रतिष्ठित कर देते हैं. नागराजा को भूमि रक्षक के रूप में, ‘भूम्याल’ और पशुओं की रक्षा के लिए, ‘रखवाल्या’ या ‘जगवाल्या’ कहा जाता है.
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डॉ वाचस्पति मैठाणी, गढ़वाल हिमालय की देव संस्कृति में लिखते हैं कि ऐसी जनश्रुति है कि पौड़ी गढ़वाल के डोभ गाँव में डोभाल परिवार में एक महिला नै सांप के बच्चे को जन्म दिया. उस परिवार ने उसका समुचित पालन पोषण किया. बड़ा होने पर उस सर्प ने परिवार को धन संपन्न बना दिया. यह भी कहा जाता है कि डोभाल जाति के लोगों को सांप नहीं काटता. इसी तरह सेमवाल, चौहान, नेगी, राणा व रमोला जाति के लोगों पर भी सर्प विष असर नहीं करता.

डॉ हरि कृष्ण रतूड़ी गढ़वाल में राणा और असवालों को नागवंशी मानते हैं. अन्य इतिहासकारों ने नेगी,कठैत, चौहान, मलेठी, जागनेगी, मलनास नेगी एवं भयानेगी नागवंशी हैं और चमोली में नागपुर के अनेक राठ इन्हीं के वंशज बताये जाते हैं. डॉ शांतन सिंह नेगी के अनुसार गढ़देश की राजधानी श्रीनगर में नेगियों के तीन दल थे. राजा की ओर से नेगियों को राजस्व का कुछ हिस्सा दिया जाता था जिसे नेगी चारी कहते थे. पंडित बद्री दत्त पांडे के अनुसार कुमाऊं में बुर्फू के बुर्फाल, जंगपांगी और चरखमियां जंगपांगी अपने को नागवंशी बताते हैं.

नागराजा का दूसरा रूप ‘नगेला’ कहा गया.गढ़वाल में नगेला कुमाऊं से नेगी बिरादरी के साथ आया. नगेला गद्दी धारी देवता माने गए. इनकी गद्दी बडियार गढ़ खोलागांव तथा मुख्यतः लस्या पट्टी के वजिरा ग्राम में हैलस्या पट्टी के थूले गाँव में इसे ‘अदम ‘कहा जाता है. यहाँ से इसे गढ़वाल के लोस्तु बडियार गढ़, कड़ाकोट, वासर एवं थाती कठूड़ में लाया गया.नगेला देवता न्यूता या निमंत्रण भी देखता है. इसकी डोली भी निकाली जाती है. नगेला देवता उपरोली गाँव में राणा जाति और खोला गाँव में कपरुबाण जाति के व्यक्तियों पर पश्वा के रूप में अवतरित होता है. उनियाल ब्राह्मण इसके पुजारी हैं. कहा जाता है की पहले लस्या पट्टी में इतने अधिक सर्प थे कि बच्चे भी इनसे नहीं डरते थे.कभी कोई सर्प किसी को डंस ले तो उसे मंदिर में दीप जला कर छोड़ देते थे. रात भर में वह स्वस्थ हो सुबह घर वापस आ जाता था.

नगेला की पूजा अर्चना पीली मिठाई व अक्षत से होती है. अलग अलग स्थानों में इसकी पूजा भिन्न भिन्न समयों में होती है.डॉ वाचस्पति मैठाणी के अनुसार लस्या पट्टी के ग्रामवासी जब कुमाऊं में नमक लेने जाते थे तो नगेला देवता के लिए नये चावल, कोदा, फापरा, गूगुल, माखन इत्यादि का भोग ले जा उसे अर्पित करते थे. लस्या पट्टी के निवासियों की ऐसी भक्ति व समर्पण देख ही यह देवता लस्या आया. श्रीनगर में अलकनंदा नदी के जल प्रवाह को रोक इसने अपनी शक्ति से ग्रामवासियों को नदी पार करवाई. पर लस्या ग्राम पहुँचने पर उन्होंने नगेला के पत्थर के लिङ्ग को छ महिने तक बाहर ही रख दिया. इससे नगेला देवता नाराज हो गया और गाँव भर में बीमारी फैलने लगी. जब यह बात लोगों को समझ में आई तब उन्होंने विधिवत देवता की पूजा अर्चना व प्राण प्रतिष्ठा की.नगेला देवता को नागर्जा यानी नागराजा के रूप में ही अवतरित किया जाता है इसमें भगवान श्री कृष्ण के जागर नहीं लगाए जाते.

नगेला देवता की ‘लस्या थाती वजीरा गादी’ कहावत प्रसिद्ध है और उनका दयूल नगेल ‘नाचलू’ का गीत सबकी जुबान पै :

दयूल नगेलो आयो जसीलो देवता,
दयूल नगेलो आयो भक्तों देंद जस.
दयूल नगेलो आयो मुलुक लगे दिएऊ,
दयूल नगेलो आयो रमोली की थाती.
दयूल नगेलो आयो लेंदी देंदी दूध,
दयूल नगेलो आयो मनखी देंद वूध.

नागदेवता धन का देवता माना गया. वह गढ़े धन की रक्षा करता जिस पर प्रसन्न होता उसे समृद्ध कर देता. अगर रुष्ट हो गया तो बर्बाद करने में भी देर नहीं करता.

उत्तराखंड में नागराजा की पूजा चार रूपों में की जाती रही है. रोज नाग मंदिर में धूपदीप,फल -फूल और नैवेद्य चढ़ाना इसका प्रारंभिक स्वरुप है तो दूसरी ओर किसी विशेष आयोजन या तिथि -पर्व पर षोडशोपचार पूजन होता रहा. तीसरा जब नागराजा का दोष लगे तब इनका घडियाला लगता है. तिथि- पैट देख नागराजा का जागर लगता है. डौँर -थाली बजा धामी द्वारा नागराजा के पश्वे को नचाया जाता है. वह समाधान और उपाय सुझाता है.पूजा के चौथे रूप में सेम मुखेम तीर्थ की जात्रा के लिए रमोली पट्टी में सेम नागराजा के मंदिर में जाते हैं. वहाँ मंदिर के गर्भ गृह में पूजन कर चांदी के बने नाग के जोड़े को जल में विसर्जित किया जाता है. घर आ कर गुड़ आटा घी का हलवा बना गाँव में प्रसाद रूप में बांटा जाता है.
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 पहाड़ में नागराजा को ईष्ट देवता, ग्राम देवता, कुलदेवता तो कहीं भूमि के भूमियाल के रूप में पूजा जाता है. यह भूमि का स्वामी, पशुओं का रक्षक, दुख, आदि -व्याधि नाशक, अनिष्ट कारी शक्तियों को हरने वाला माना जाता है.नियत पर्व त्योहारों पर नागराजा को डोली में बैठा नदियों के संगम व तीर्थ स्थानों में ले जाते हैं. साथ ही नागराजा अपने इलाके में जनता की आशल -कुशल जानने, उनकी चिंताओं व समस्याओं को दूर करने और शादी ब्याह नियत करने हेतु कुंडलियों का मिलान करने को गाँव का भ्रमण भी करता है. नागराजा की पूजा अन्य देवताओं के साथ भी की जाती है. जैसे शिव पूजा में नागों का पूजन भी किया जाता है. सेम तीर्थ में दस गते मंगसीर को रात्रि जागरण किया जाता है. धूनी व लकड़ी जला कर खुले प्रांगण में श्री कृष्ण के रूप में नागराजा की स्तुति के गीत व भजन गाते हुए रात्रि जागरण किया जाता है. अगले दिन ग्यारह गते को जनसमूह स्नान- ध्यान कर गर्भगृह में प्रवेश कर शेष नाग की शिला की पूजा कर मनौती मांग अपने गावों को प्रस्थान करते हैं.

पौड़ी में डांडा नागर्जा, उफलडा श्रीनगर में नागर्जा देवालय, क्वीसू श्रीनगर में धद्देश्वर, अलकनंदा घाटी में भूमियाल. भिलंगना घाटी में हूण नाग, फतेहपर्बत में बेरिनाग और अगस्तमुनि में करमजीत नाग पूजनीय हैं. क्वीसू इलाके में धद्देश्वर नागर्जा के बारे में कहा जाता है की पहले ये देवता गाँव में पड़ रही किसी भी विपत्ति की सूचना भी देता था.भटवाड़ी उत्तरकाशी के सालंग गाँव में भाटिया नाग मुख्य देवता है. भागीरथी घाटी में नागर्जा की डोली वैशाखी व आषाढ़ की आखिरी संक्रांति को संपन्न मेले में ग्राम के हर घर में घुमाई जाती है. इस देवालय के पास एक ताल है जिसमें मनौती पूर्ण होने पर श्रृद्धालु हलवा पूरी, खीर, दूध, दही,शहद ,पुष्प -पत्र इत्यादि चढ़ाते हैं साथ ही देवालय की दीवारों में अपने नाम का सिक्का ठोक देते हैं . सिक्का ठोकने की यह प्रथा भागीरथी घाटी के साथ रवाईं जौनपुर में स्थित सभी मंदिरों में विद्यमान है.

कुमाऊं में मल्ला और तल्ला छकाता,छकाता परगने में आता है जो काली कुमाऊं, महरूढ़ी, धनियाकोट, कोटा और तराई के बीच है. मल्ला छकाता को पहाड़ छकाता और तल्ला छकाता को भाबर छकाता भी कहा जाता है.मल्ला छकाता में बेतिया नामक सर्प बहुत जहरीला होता है. छकाता और अस्कोट के इलाके में पहले नाग पूजक और किरात निवास करते थे. छकाता में करकोटक नाग की पूजा होती है.छकाता का सबसे बड़ा परबत गागर है. यहाँ गर्ग ऋषि ने तपस्या की थी.
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‘जीबार’ या जोहार परगने में बुर्फू गाँव के चरखमियाँ जंगपांगी अपने को नागवंशी मानते हैं. गंगोली इलाके में व्यापक रूप से कालीनाग, बेनीनाग, द्योलनाग, पिंगलनाग, खरहरिनाग, अठगुलीनाग की पूजा होती है. ऐसे ही महरूड़ी पट्टी से काली कुमाऊं की सरहद मिली हुई है. यहाँ के बारे में “जाड़ी -जोड़ी बेर की महरूड़ी ” कथन है जहां शिलाओं में बड़े बड़े ‘उडयार’या गुफाएं हैं.जिनमें नागदेवता स्थापित हैं. पंडित बद्रीदत्त पांडे के अनुसार महरूड़ी पट्टी केदारनाथ मंदिर को गूंठ में चढ़ी जिसकी आमदनी केदारनाथ के यात्रियों को सदावर्त के लिए गोरखा सरकार ने चढ़ाई थी.

हिमालयन गजेटियर के दूसरे भाग में ए टी एटकिंसन ने नागों से सम्बन्धित पौराणिक कथाओं का उल्लेख करते हुए लिखा कि सतयुग में ब्रह्मा जी ने मिलम और राई पर्वत के मध्य का प्रदेश जिसे जीवर या जुहार कहते हैं और दारु के मध्य का प्रदेश जिसे नाकुरी या नागपुर कहा जाता है और अब यह दानपुर परगने के एक पट्टी, राजस्व उपखण्ड है नागों को प्रदान की . नागों के प्रमुख मल्ल थे जो विष्णु भक्ति कर मल्ल नारायण कहे गए. पिंडारी ग्लेशियर को जाते समय रस्ते में सुरिंग के ऊपर पहाड़ी धार का नाम मुलेन है. यह मल्ल नागराजा नारायण का निवास था. उन्होंने जब ऋषियों से जल की कामना की तो उन्होंने नागों को भद्र गंगा सौंप दी.नागों ने कामधेनु को देख कर गायों की मांग की तो उन्हें देवताओं से गो सम्पदा प्राप्त हुई . नागों ने गायों के लालन पालन के लिए गोठ बनाये और उनकी सेवा के लिए अपनी पुत्रियां नाग बालाएं लगा दीं. नाग कन्याओं ने जिस स्थान पर महादेव को देखा तो उस स्थान का नाम गोपेश्वर और उस वन का नाम गोपीवन ‘गोपैण’ पड़ा. गडयार में नागराजा वासुकी की वर्तमान में भी पूजा होती है तथा वैशाख और कार्तिक में मेला लगता है.

पट्टी बड़ाऊँ, गंगोली परगने में सरयू और पूर्वी रामगंगा के बीच पाताल भुवनेश्वर में नागसभ्यता के दर्शन होते हैं. यहाँ कालीयनाग, बेरीनाग, पिंगल नाग, द्योल नाग, फनी नाग, खरहरी नाग, अठागुली नाग के स्थान रहे. कहा जाता है कि इसके नीचे स्मर, स्मेरू व स्वधाम नामक तीन गुफाएं हैं.सूर्यवंशी राजा ऋतु पर्ण शिकार खेलते पाताल भुवनेश्वर की गुफा के समीप पहुंच गया. वहाँ उसने विश्राम करने के लिए क्षेत्र पाल से पूछा तो उसने राजा को गुफा के भीतर भेज दिया. गुफा के भीतर राजा को धर्म सिंह और नरसिंह मिले. वह राजा को शेषनाग के पास ले गए. शेषनाग ने राजा को बताया की इस गुफा में ब्रह्मा, विष्णु और महेश भुवनेश्वर के रूप में रहते हैं.

राजा को शेषनाग ने दिव्य चक्षु प्रदान करे जिससे राजा को महादेव -पार्वती, देव -दानव, गन्धर्व -राक्षस व नागों के दर्शन हुए. इसी प्रकार राजा ने सर्प के आठ कुलों, विश्वेश्वर शिवलिंग, इन्द्र का हाथी एरावत व घोड़ा उच्चे:श्रवा, कल्पवृक्ष, भृगु मुनि, सनत कुमार इत्यादि के साथ सर्प राजा अनंत की गुफा शेषावती के दर्शन कराये जिसके बारे में कहा जाता रहा कि इसका श्वास भृगुतुंग से होते हुए बहुत वेग से धरती पर प्रविष्ट होता है. जिसकी प्रतीक बनी पोखरी के समीप भृगु ऋषि के शिखर में स्थित वह गुफा जिससे हवा निकलती है.शेषनाग ने राजा को इसी प्रकार ऐसे सारे कौतूहल के स्थल दिखाए जो यहाँ की भूमिगत शिलाओं में निर्मित थे जैसे शेषनाग के फन पर टिकी हुई पृथ्वी, स्वर्ग को जाने वाला मार्ग, पाताल भुवनेश्वरी देवी, बागीश व वैद्यनाथ शिवलिंग, सतेश्वर शिवलिंग, गण नाथ लिङ्ग, धार्मिक अनुष्ठान में लगे ऋषि मुनि तथा दैत्य व दानव के आवास स्थल.
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इसके साथ ही शेषनाग ने कुछ चमत्कारिक क्रियाएं भी राजा के साथ कीं जैसे उन्होंने गुफा में रहते हुए ही अचानक राजा को उज्जैन पहुंचा सरस्वती नदी और महाकाल के शिवलिंग के दर्शन कराये तो दूसरी गुफा में गणेश जी, मार्कण्डेय ऋषि व कदलीवन दिखाया. चालीस कोस लम्बी और इतनी ही चौड़ी गुफा से होते हुए वह राजा को रामेश्वरम के सेतुबंध व चंद्रशेखर के दर्शन करा लौटा लाये. दूसरी गुफा से गोदावरी नदी तक ले जा स्नान करवाया. अन्य से गंगा सागर पहुंचे व चंडेश्वर शिवलिंग का पूजन करवाया.राजा ने पाताल भुवनेश्वर में मार्कण्डेय ऋषि का आश्रम, पांच केदारों के पांच शिवलिंग, नीलकंठ का शिवलिंग, बैजनाथ जाने वाला मार्ग, दानव राजा बलि, ब्रह्म द्वार गुफा व उसके शिवलिंग भी देखे. ब्रह्मद्वार गुफा में शिवलिंगों पर कामधेनु का दूध गिरता है. यहाँ शिवकुण्ड नामक ताल भी है. चन्द्रमा, तारों के साथ यहाँ वह विशाल महादेव लिङ्ग जिसके एक ओर ब्रह्मा तो दूसरी ओर भगवान विष्णु विराजे हैं. स्मर नामक गुफा में महादेव पार्वती के साथ पासा खेल रहे हैं. अब आती है दस हजार योजन घेरे वाली वह गुफा जहां एक सर्प रक्षक बना कुंडली मारे बैठा है.गुफा में रत्नोँ का प्रकाश आलोकित था जिसके मध्य रत्नोँ से बने घर और पलंग पर वृद्ध भुवनेश्वर महादेव व पार्वती विराजमान हैं.

अब राजा को शेषनाग एक गुफा के रस्ते कैलास मानसरोवर ले जाते हैं और वापसी में स्मेरू गुफा दिखाते हैं जहां शिवजी अपने केशों का सिरहाना बना कर निद्रा मग्न थे तब उन्होंने बाघ की खाल ओढ़ी थी और सर्प का जनेऊ धारण किया था. उनके समीप उग्रतारा देवी बैठी थीं. फिर शेषनाग ने राजा को स्वधाम कंदरा दिखाई जिससे दिव्य प्रकाश आलोकित हो रहा था. शेषनाग ने बताया कि ये तेजोमय महादेव हैं जिनके प्रकाश से ब्रह्मा -विष्णु -शिव की उत्पत्ति हुई है.मध्य में विराजमान विष्णु को ही ब्रह्म कहा जाता है.अंत में शेषनाग राजा को केदार ले गए वहाँ शिवलिंग का दर्शन करा उन्हें उदक कुंड का जल पिलाया. केदार से और आगे महापंथ दिखा शेषनाग राजा को वापस पाताल भुवनेश्वर ले आए. राजा यह लीला देख चकित हो गया. समुचित सत्कार के बाद शेषनाग ने राजा को एक हजार भरण रत्न और वायु की गति से भागने वाले अश्व भेंट कर विदा किया.
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मानसखंड में उल्लेख है कि ब्रह्मा ने पृथ्वी की रचना के बाद नागों को जीवारा त्यौहार एवं दारु अर्थात दारूकावन अठागुली जोगेश्वर का नागवंशी राज्य दिया जिसे नागपुर कहा गया. डॉ शिव प्रसाद नैथानी के अनुसार अलकनंदा से पिंडर कोसी तक सर्वत्र नागपुर राज्य था. वहीं डॉ शिव प्रसाद डबराल बताते हैं कि नागवंशी राजा गुप्तकाल से पूर्व कुमाऊं और गढ़वाल में राज करते थे जो बदरीकाश्रम व केदारनाथ से भी आगे भोटांत तक विस्तृत रहा. उत्तराखंड गढ़वाल में नागों के निवास स्थल को नागपुर या नागलोक कहा गया. पुराणों में इसे पाताल कहा गया. गढ़वाल में कुछ नागवंशी शाखाओं को करकोटक नाग से जोड़ा गया कुमाऊं छखाता और नेपाल में करकोटक नाग से सम्बन्धित जातियाँ कश्मीर से आई बताई गई.

डॉ शिवानंद नौटियाल ईसा सन की तीसरी शताब्दी को नागयुग की संज्ञा देते स्पष्ट करते हैं कि नाग राजाओं के शासन काल में नृत्य एवं संगीत कला का अभूतपूर्व विकास हुआ. नाग कन्याएँ नृत्य कुशल होती थीं. इसी युग में भरत मुनि का नाट्य शास्त्र प्रकाश में आया जिसके माध्यम से नाट्य, नृत्य गीतों का विशेष प्रचार प्रसार हुआ.

डॉ शिवप्रसाद नैथानी का मत है कि समस्त उत्तराखंड में दो हजार साल पहले नागों का शासन था. बाड़ाहाट उत्तरकाशी में नाग सत्ता का प्रतीक शक्ति स्तम्भ व उस पर लिखा लेख इसका प्रमाण है. कहा जाता है कि महाभारत काल से ही नाग जाति जल परिवहन के जानकार ,व्यापार में कुशल और खनन के विशेषज्ञ थे. पाताल भुवनेश्वर के इलाके में ताँबे, शीशे व रांगे की खानें थीं जिनमें 1834 ई. शती तक खनन होता रहा.यहाँ की ताँबे की खान के आकर्षण ने नागों की आठ जातियों में सर्वश्रेष्ट शेषनाग को इष्ट मानने वाली जाति को बसने के लिए प्रेरित किया. आठवीं शती ई. से पहले गंगोलीहाट से आठ मील उत्तर में पाताल भुवनेश्वर नाग जाति के राज्य का केंद्र था. तब गंगोली हाट के समीप पोखरी ग्राम की भृगुतुंग गुफा अतीव आस्था का केंद्र थी जिससे निकल नागराज अनंतनाग प्रजा को दर्शन देते थे.
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उत्तराखंड में नाग गढ़पतियों की पूजा होती रही. इनमें जौनसार, उत्तरकाशी व टिहरी में सागराजा या सर्वनाग, भदूरा टिहरी में हूण नाग व दानपुर में वासुकी नाग विशेष रहे. सेम मुखेम में शेषनाग व गुप्त सेम में वासुकी नाग की अर्चना प्राचीन काल से होती रही. खेंट परबत पर सात नागकुमारियों की अतृप्त आत्माओं की पूजा के विधान रहे.
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प्रोफेसर मृगेश पाण्डे

जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

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इसे भी पढ़ें: ‘दिवारा यात्रा’ जिसमें देवता की डोली गाँव के घर-घर में घूमती है

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