यूं तो मुझे दर्जनों लेखकों से मुहब्बत है, लेकिन शंभू राणा, अशोक पांडे और अनिल यादव उनमें विरले कहे जाएंगे. आज तक मैंने जिन भी दिल को छू लेने वाले लेखकों को पढ़ा, उनमें ज़्यादातर से मुलाकात न हो सकी. कुछ दिवंगत हो गए और बाकियों से मिलने का कभी मौका ही नहीं मिला. शंभू राणा से दोस्ताना हुआ तो मुझे कभी महसूस ही हुआ कि वह लेखक हैं और यही बात आशुतोषदा, अनिलदा और विवेक सौनकिया के बारे में भी कही जा सकती है.
लेकिन! इस बीच अशोक पांडेजी के साथ उन्हीं के घर और उन्हीं के कमरे में लंबी बैठकी का सुयोग बन पड़ा. महसूस हुआ कि लेखक एक तरह से दुनिया-जहान का बही खाता लिए हुए सीटी स्कैन/एमआरआई मशीन की तरह होते हैं. आपके शरीर की कोई भी बनावट उनसे बच नहीं सकती. लोग कहते हैं कि पत्रकारों से लेखकों का दर्ज़ा बहुत आगे होता है. पत्रकार महज ब्लैक एंड वाइट एक्सरे मशीन की तरह हुए. दूर पहाड़ों के अस्पतालों में मात्र एक्सरे मशीने ही डॉक्टरों की तारणहार होने वाली हुईं, मगर गंभीर रोगियों के सामने जब यह मशीन कॉलगेट छाप दांत दिखा समर्पण कर देती है तो डॉक्टरों के हाथ स्वयमेव खड़े हो जाते हैं. ऐसे में गढ़वाल के वाशिंदे ऋषिकेश, देहरादून और कुमाऊं वाले हल्द्वानी या बरेली को दौड़ लगाते हैं. इसके बाद में दिल्ली की शरण ही बचती है.
खुशवंत सिंह की आत्मकथा- ‘सच प्यार और थोड़ी सी शरारत’ पढ़ी तो लगा जैसे इस खूंसठ सरदार ने खुद अपने कपड़े उतार दूसरों को भी वस्त्रहीन कर दिया हो. शैलेश मटियानी, राही मासूम रज़ा, श्रीलाल शुक्ल, हृदयेश समेत कई और लेखकों का लिखा शंभूजी ने पढ़ाना शुरू किया तो पता चला कि ये लेखक तो किसी और गोले से धरती पर आकर मानव जाति में घुलमिल अपना संदेश अपनी तरह से दे जाते हैं.
इधर फरवरी की शुरुआत में आँखों ने अचानक धोखा दे दिया. सामने कोई परिचित आते तो उनकी बातों से ही उनकी पहचान का अंदाज़ लगा लेता लेकिन बाकी लोग बीते जमाने के एंटीना टीवी की झिलमिल तस्वीरों की तरह दिखाई देने लगे. दो दिन बीतने के बाद भी यह सिलसिला जब थमा नहीं तो मुझे शक होने लगा कि ज़रूर कहीं कुछ गड़बड़ है. आनन-फानन में जिला अस्पताल का रुख किया. डॉक्टरों ने टॉर्च, मोबाइल और एक अदद बचे-खुचे उपकरण से जांच के बाद हाथ खड़े कर दिए तो मैं दिल्ली भाग लिया. दिल्ली में बसे रेलवे के मित्र हरीश जोशी जी ने एक प्राइवेट क्लीनिक में दिखवाया. विटामिन जैसी गोलियां थमाने के बाद डॉक्टर ने आश्वस्त किया गया कि जल्द ही आँखों में झक्क रोशनी आ जाएगी. हफ्ता गुजर जाने के बाद भी कुछ नहीं हुआ तो फिर पूर्व नौसैनिक मूल कौसानीवासी हाल हल्द्वानी मित्र किशन खत्रीजी से गुहार लगाई. लंबे-चौड़े प्रवचन के बाद उन्होंने हल्द्वानी में ही चैकअप कराने को कहा. आँखों के स्पेशलिस्ट को दिखाने के बाद न्यूरो सर्जन की परिक्रमा की गई. कई परीक्षणों से गुजरने के बाद दोनों डॉक्टरों ने सब ठीक हो जाने का भरोसा दिलाया. ‘मुझे हुआ क्या है?’ पूछने पर कुछ अबूझ से नाम बताये गए- एंकायलूजिंग, स्पॉन्डिलाइटिस, रूमेटाइड आर्थराइटिस.
डाक्टरों के साथ-साथ खत्रीजी की सख्त ताकीद पर ‘शराबी सरकार’ के राजस्व में रोजाना इज़ाफ़ा करने का इरादा त्याग तीनों वक्त बेस्वाद गोलियों का रसास्वादन इस उम्मीद से शुरू किया कि जल्द ही मुझे अदृश्य आत्माओं का दर्शन लाभ भी मिल सकेगा. महीने भर बाद जब एक कान ने भी हड़ताल कर दी और घर-समाज की बातों को सुनने से मना कर दिया तो फिर से हल्द्वानी जाकर खत्रीजी की चरण पादुका पकड़ी. कुछ टेस्ट कराने के बाद बताया गया कि कानपुर की हड़ताल के साथ ही आँखों की झिलमिलाहट जारी रहेगी तो मन टूट सा गया. अब मन फिर से सरकार के राजस्व में इजाफा करने के लिए जोर मारने लगा.
अचानक एक सुबह अशोक पांडेजी का उलाहना भरा फोन आया, “केशव तुमने बताया था आँखों की तकलीफ़ के बारे में. उसके बाद फिर फोन नहीं किया. अजीब किस्म के हो यार तुम भी! बकौल शंभूजी- एक बार किसी से काम के लिए कहने के बाद दोबारा नहीं कहते बल! अरे! मैं भूल गया था तो तुम्हें याद दिलानी चाहिये थी ना. अब जल्दी यहां आ जाओ. सुशीला तिवारी में आँखों के सीनियर डॉक्टर तितियालजी हैं. मेरी उनसे बात हो गई है. आ जाओ.”
मैंने खत्रीजी को इस बारे में सूचना देना राजकीय धर्म समझा तो कई सारी हिदायतों के बाद उन्होंने भी हामी भर दी. तय दिन को मैं एक मित्र के साथ हल्द्वानी के लिए निकला. शाम को हल्द्वानी में साथी मित्र के पुराने बाल सखा के घर में डेरा डाल खत्रीजी के साथ–साथ अशोकदा को भी पहुंचने की सूचना दे दी. अशोकदा ने बताया कि कल हल्द्वानी में स्वास्थ्य महकमे के डिग्रीविहीन सफेदपोश नेतृत्व का आगमन है तो डॉक्टर साहब बहुत बिजी हैं. वह खुद बताएंगे कि उन्हें कब मुझे देखने का वक्त मिलेगा.
देर रात अशोकदा का दोबारा मैसेज आया कि डॉक्टर साहब ने सुबह साढ़े नौ का वक्त दिया है. मैं अस्पताल में चला आऊँ और वह भी वहाँ पहुँच जाएंगे. सुबह मैं सुशीला तिवारी अस्पताल पहुँच गया. अस्पताल में भीड़ देख लगा जैसे पूरा शहर बीमार हो गया है. घंटाभर लाइन में लगने के बाद पांच रुपये की पर्ची कटी तो ऐसा महसूस हुआ जैसे बहुत बड़ी जंग जीत ली हो. बाहर सड़क किनारे ओट में बीड़ी सुलगाते हुवे मैंने खत्रीजी को पर्ची कटने की सुखद सूचना दी. उन्होंने बताया कि वह भी जल्द आ रहे हैं. बीड़ी बुझ चुकी थी. खत्रीजी आए और उन्होंने बोर्ड परीक्षा के उड़न दस्ते के लीडर की तरह तीखे नेत्रों से मेरा एक्सरे किया. आधी-अधूरी तसल्ली के बाद उन्होंने मुझसे बीती रात के बारे में सवाल पूछे. उनकी मौखिक परीक्षा में पास होने के बाद उनके चेहरे पर बच्चों जैसी मुस्कान लौट आई तो मुझे डॉक्टर के चैंबर में ले चले. पल भर बाद अशोकदा भी मुस्कुराते हुए आ गए और मेरा हाथ पकड़ डॉक्टर तितियाल जी के चैंबर में ले गए. डॉ. तितियाल और अशोकदा की आत्मीय मुलाकात देख मुझे भरोसा होने लगा कि अब मेरी आंखें धरती के साथ ही ब्रह्मांड के बाहर भी बिना चश्मे के देखना शुरू कर देंगी. एक पल के लिए मुझे भीमताल में नयना चश्मालय वाले मित्र विनीत की याद हो आई, जो सोचता था कि सभी की आंखें ठीक हो जाएंगी तो उस बेचारे का क्या होगा?
अशोकदा का गज़ब का जलवा था. डॉक्टर साहब ने पूरी तसल्ली से मेरी शारीरिक जन्मकुंडली बाँची. इस बीच खत्रीजी डॉक्टर साहब को बताते रहे कि मुझे क्या-कुछ हुआ है और मैं क्या-क्या कर्म करता हूं जो मुझे नहीं करने चाहिए. डॉक्टर साहब मुझे दूसरे चैंबर में ले गए. बॉस को चैंबर में देखते ही वहां अफरा-तफरी मच गई. कई सारी मशीनों में डॉक्टर साहब ने खुद ही मेरा परीक्षण करने के बाद बताया कि, आंखों का कॉन्ट्रास्ट जो चला गया है उसका वापस ठीक हो पाना मुश्किल है. रिपोर्ट के मुताबिक कान का भी ठीक होना मुश्किल जान पड़ रहा है. डॉ. तितियालजी का शुक्रिया अदा कर अस्पताल से बाहर निकलने के बाद अशोकदा ने उनके घर चलने की जिद पकड़ ली, “अरे! यहीं पर घर है मेरा जज फार्म में. चलो चाय हो जाएगी थोड़ी सी.” मिमियाते हुए मैंने कहना चाहा कि मुझे मित्र के पास जाना है, वह इंतजार में होगा.
“तुम्हें करना क्या है वहां, गाड़ी की सर्विस होने में तो अभी काफी वक्त है. चलो घर को.” अशोकदा मेरा हाथ पकड़ अंदर की सड़क को ले चले. खत्रीजी भी मुस्कुराते हुए साथ हो लिए. डॉक्टरजी की बातों से मैं परेशान हो गया था. आगे की जिंदगी क्या ऐसी ही चलेगी! मन बीड़ी के साथ ही स्कॉच के लिए मचलने लगा.
अशोकदा का घर नजदीक ही था. बीसेक मिनट में वहां पहुंचे तो एक कोठीनुमा घर का गेट खोल अंदर बरामदे को पार कर उन्होंने एक दरवाजा खोलना चाहा, जो अंदर से बंद था. इस पर वह किनारे से अंदर गए और दरवाजा खोल बोले, “आइए… आइए…! भाईसाहब को तो जानते ही हो न तुम?” मैंने असमर्थता जताई तो वह सवालिया ढंग से बोले, “अरे! वो कह रहे हैं भट्टजी आए हैं करके! आप लोग बैठो मैं पानी लेकर आता हूं.”
अशोकदा का कमरा किसी स्वप्नलोक जैसा था. एक दीवार में बनी रेक में अंग्रेजी की नाना प्रकार की किताबों के साथ ही नीचे की ओर आधुनिक कम्प्यूटर रखा हुआ था. शायद हिन्दी के साहित्य की अंग्रेजी साहित्य से पटती नहीं होती, इसलिए वह अंदर के किसी कमरे में होगा. इस बीच छह फीट कुछ इंच की लहीम काया लिए उनके बड़े भाई साहब आत्मीय मुस्कान के साथ प्रकट हुए तो मुझे झटपट याद हो आया कि ये बागेश्वर में ग्रामीण बैंक में मैनेजर रहे थे और तब शाम के वक्त इनसे खूब बतियाना होता था. खूब गपोड़ी थे. अभिवादन के बाद वह कमरे से ऐसे भाग लिए जैसे रामलीला में किसी अन्य कलाकार का पर्दापण हो गया हो.
तभी अशोकदा पानी के साथ प्रकट हुए और नाना प्रकार की चाय के बारे में बताते हुए बोले कि कौन सी लेंगे. पीने में और क्या है पूछने पर वह व्यंग भरे शब्दों में बोले, “क्या पीयेगा? फ्रिज में सब भरा पड़ा है. बीयर से लेकर व्हिस्की, स्कॉच. क्या लाऊं?’ मैंने हाथ जोड़ दिए. मन तो था लेकिन यहां बड़े भाई समान खत्रीजी और अशोकदा के कारण बीमारी के नाम पर लिहाज करना पड़ गया.
दूध वाली चाय कहने पर वह फिर अंदर भागे और कुछ ही पलों में बड़े-बड़े मगों में चाय हाथों में पकड़ा सामने बैठ गए. मैंने उन मगों पर आश्चर्य प्रकट किया तो वह झटपट अंदर भागे और एक और भी बड़ा मग दिखाते हुए बोले, “मेरा मग यह है!” उसे देख लगा कि इसमें चाय पीते-पीते तो कब बुढ़ापा आया पता ही नहीं चलेगा लेकिन चाय खत्म नहीं होगी.
चाय की चुस्कियों के बीच अशोकदा बता रहे थे, “2012 में मैंने शराब छोड़ दी. उस रात मैंने अपने मित्र के साथ लीटर भर विदेशी स्कॉच पी. उसकी कीमत लगभग सत्तर हजार रुपये थी. बोतल खत्म करने के बाद कम्प्यूटर के ऊपर चिट लगा दी. अब शराब बंद. लेकिन केशव! यार उसके बाद शराब तो नहीं पी लेकिन उस मंहगी बोतल का मलाल आज तक भी रहता है. उसके बाद लॉकडाउन में मैंने सिगरेट भी छोड़ दी. हुआ क्या कि रात में काम करते हुए सिगरेट की आदत हुई. डिब्बे में चारेक सिगरेट बची थी तो कुछ डिब्बे लेने के लिए सुबह टहलते हुए नुक्कड़ की दुकान का भरोसा लिए गया तो वह बंद मिली. लॉकडाउन लग गया ठैरा. सिगरेट की उम्मीद में दसेक किलोमीटर पैदल चलने के बाद भी कही कोई दुकान खुली नहीं मिली तो फिर मित्रों को फोन खटखटाए. सभी ने लॉकडाउन की बात कही. रात में बची सिगरेटें भी निपट गई तो फिर सिगरेट को टा-टा करने का मन बना सामने चिट चिपका दी, ‘सिगरेट बंद’. अगले दिन मित्र मंडली ने जुगाड़कर सिगरेटों के पैकेट भेजना जो शुरू किया तो शाम तक करीब अस्सी डिब्बे रैक में जमा हो गए. लेकिन! सिगरेट को तो नमस्कार की जा चुकी थी तो वह बाद में मिलने के लिए आने वाले मित्रों के ही काम आई.”
अशोकदा जब मुझे अपने शराब-सिगरेट के अनुभव सुना रहे थे तो उस दरमियान खत्रीजी की भावभंगिमा बहुत प्रसन्न दिखाई दे रही थी. मानो मुझ बिगड़ैल को आज सही ढंग से डांट पड़ रही हो. आज मिला इसे गुरू.
घड़ी की सुईयां चुपचाप खिसक रही थीं. इस बीच अशोकदा ने अपने टच स्क्रीन वाले कम्प्यूटर को खोल मुझे फिर से समझाना शुरू कर दिया, “देख केशव.! ये सब छोड़ने के बाद मेरा डिसिप्लिन कितना बढ़िया हो गया है.” फाइलों को खोलते हुए वह बताते हैं, “मेरी सारी चीजें तरतीब से रहती हैं. जो मुझे चाहिए वह अब तुरंत मिल जाता है.” कुर्सी के बगल में बने दोएक कपाट में से उन्होंने एक छोटा सा संदूक निकाल टेबल में रखा तो मैं उसे विस्मय से देखने लगा. कुछ पल के लिए उस वक्त मैं बीड़ी-स्कॉच भी भूल गया. छोटे और प्यारे से इस संदूक से उन्होंने कई सारे दस्तावेज बाहर निकालकर मुझे समझाया कि किस तरह से ‘सिगरेट-स्कॉच’ से मुक्ति के बाद यह सब संभव हो पाया है. मुझे उन दस्तावेजों से ज्यादा आकर्षक अलादीन के चिराग जैसा वह प्यारा सा संदूक लग रहा था. मेरा मन मुझसे ही बतिया रहा था कि, यह सब डिसिप्लिन तो मुझे मेरी चाची ने बचपन में ही सिखा दिया था. रही कसर एनसीसी और माउंटेनियरिंग कोर्स में सीख लिया था. लेकिन आज तब समझ में नहीं आया कि, ‘आखिर करना क्या है मुझे?’
घंटे भर की सीख देने के बाद अशोकदा ने फिर से स्पेशल चायों के नाम गिनाने शुरू किये तो हम चुप ही हो लिए. मेरा दिमाग उनके बेशकीमती फ्रिज के अलावा सर्विस में गई गाड़ी में रखी स्कॉच पर था.
“चलो आपको वियतनाम की चाय पिलाते हैं.” अशोकदा ने आत्मीयता से कहा और रसोई से जो बर्तन लाये उन्हें देख मुझे एनिमेटेड मूवी ‘द सोर्ड इन द स्टोन’ की याद आ गई. जिसमें जादूगर अपने सारे काम, ‘इगली, पिगली, डिगली तुम. आओ न पास तुम’ कहता तो चाय के बर्तन नाचते हुए उसके पास आ जाते. अशोकदा पसंद की दाद देनी होगी. छोटी-छोटी प्यारी सी प्यालियों की मैं फोटो लेने लगा तो बोले, “जरा रुको मैं पूरा सेट ले आता हूं.” कहते हुए वह बेहतरीन क्राकरी वाली केटली के साथ ही उसके बाकी बच्चों को भी ले आए. अशोकदा मुझे बच्चे बने अभिवाहक जैसे लगने लगे. वह हर तरीके से मुझे समझाने में जुटे थे कि, “मैंने अपनी जिंदगी में खूब खुराफ़ातें की हैं लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला. तुम अभी मुझसे छोटे हो तो ये सब छोड़ दो. कुछ नहीं रक्खा है इसमें.”
इस बीच वह कांच की केटली में गर्म पानी ले आए. उसमें एक गिलास नुमा छन्नी डालते हुए उन्होंने बताया कि, “ये वियतनाम की चाय है. मजेदार स्वाद है इसका.” ठीक है भई आप अपने फ्रिज में माल असबाब समझदार कहे जाने वाले मित्रों के लिए रखे रहो. मैं तो आपका भूतकाल हूं और भूत को समझाने के लिए ये सब टोटके आप कर रहे हो. वियतनाम की चाय के खत्म होने तक अशोकदा ने प्यार से कई और बातें बताई कि वह देर रात दो-एक बजे तक काम करते हैं. अगले दिन दसेक बजे बाद उनकी सुबह होती है. तुम्हें डॉक्टर तितियाल जी को दिखाना था तो आज मैं जल्दी उठ गया.
अशोकदा को मैंने उनके कबाड़खाना ब्लॉग से जानना समझना शुरू किया. पढ़ते हुए लगता कि ये मजेदार शख्स है जो दिलो-दिमाग में आने वाले विचारों को लिख मारता है. कुछ सालों बाद काफल ट्री की शुरूआत करने के बाद उनसे मिलना हुआ तो वह बड़े आत्मीय महसूस हुए. इस बीच उन्होंने अपने तमाम ब्लॉगों से किनारा कर सिर्फ अपनी पुरानी खुराफ़ातों के बारे में लिखना शुरू कर दिया. ‘लपूझन्ना’ नाम से किताब जब छप के आई तो पाठक जैसे उस पर टूट पड़े. उन्होंने उसमें अपने बचपन के दिलचस्प किस्सों का जैसा जिक्र किया है, उसे पढ़ हर किसी को लगा कि, ‘अरे! ये तो बचपन में मेरे साथ भी हुआ.’ 1970 के दशक के आसपास रामनगर में बिताए गए अपने बचपन की परतों को खोलने वाली इस किताब में गजब का रस है. बचपन के मस्त खेल और \जल्लाद मास्टरों के अलावा बहुत कुछ रंग इस किताब में हैं.
“आपकी किताब लपूझन्ना के बारे में मुझे मेरे मित्र ने पढ़ने को कहा लेकिन मैं किताब ले नहीं पाया अभी तक.” खत्रीजी ने अशोकदा को कहा तो वह फौरन अंदर भाग दो किताबें ले आए. लपूझन्ना और बब्बन कार्बोनेट.
“केशव यह पढ़ी तुमने?” मेरे हाथ में बब्बन कार्बोनेट देते हुए उन्होंने पूछा. मैंने गर्दन दाएं-बाएं हिला दी. कुछ पेज खोल पढ़ने पर मैंने उन्हें बताया कि ये सीरिज फेसबुक में मैंने पढ़ी हैं.इन्हें किताब की शक्ल में देखने पर अच्छा लगा. उन्होंने खत्री जी को लपूझन्ना और मुझे बब्बन कार्बोनेट भेंट की. खत्रीजी की डिमांड पर उसका बकायदा फोटो सेशन भी हुआ.
मुझे भागने की जल्दी थी, लेकिन कोई बहाना नहीं मिल पा रहा था. साढ़े बारह बज चुके थे. चाय खत्म होने के बाद उनसे जाने की इजाजत मांगी और वह हमें कोठी के गेट के बाहर तक आए. उनसे विदा लेकर बाहर निकले तो खत्रीजी ने घर चलकर खाना खाने और वहीं आराम करने की जिद कर दी. बमुश्किल उन्हें यह कहकर कि हमें आज ही वापस लौटना है, मैं भाग खड़ा हुआ. दो जगह टैंपो बदलने के बाद मैं महिन्द्रा सर्विस सेंटर में मित्र के पास पहुंचा तो देखा कि गाड़ी आसमान में टकी है और दो डॉक्टर उसकी ठोका-पीटी में लगे हैं. सुबह से अभी तक के मंजर के बाद से मुझे सिर्फ स्कॉच के ही सपने दिख रहे थे. इधर मित्र मेरा हाल पूछने में लगे थे. “अब कुछ नहीं हो पाएगा कह रहे हैं डॉक्टर. बोतल किधर है?” पूछने पर मित्र ने गाड़ी की ओर इशारा कर दिया. मैंने चुपचाप गाड़ी के पीछे से क्लाइंबिंग कर गाड़ी के अंदर से बैग में से अमृत जल निकाल अपने हवाले कर लिया. अब मुसीबत यह थी कि अमृत लिया कैसे जाए. अंदर एक कोने में बाथरूम में गया तो वहां का नजारा देख वियतनाम की चाय के साथ ही बीड़ी का सारा धुआं बाहर निकलने को हो गया. ऊपर दोमंजिले में एक कमरे में कुछेक लावारिस कुर्सीयां देख वहीं घुस लिया. दाएं-बाएं-ऊपर-नीचे झांककर तसल्ली कर ली और फिर अमृत जल तुरंत ही उदर में समाहित कर लिया.
बहरहाल! मेरी इन हरकतों के बाद खत्रीजी ने आरएसएस के मुख्यालय से स्पेशल लट्ठ मंगा लिया और वह लट्ठ को अपने चारों ओर घुमा-घुमा कर मुझ दुष्टात्मा को अपने नजदीक आने से रोकने की प्रैक्टिस कर रहे हैं और अशोकदा अपना माथा पकड़ कभी अपने वियतनाम की चाय को घूरते हैं तो कभी अपने कंप्यूटर को.
बागेश्वर में रहने वाले केशव भट्ट पहाड़ सामयिक समस्याओं को लेकर अपने सचेत लेखन के लिए अपने लिए एक ख़ास जगह बना चुके हैं. ट्रेकिंग और यात्राओं के शौक़ीन केशव की अनेक रचनाएं स्थानीय व राष्ट्रीय समाचारपत्रों-पत्रिकाओं में छपती रही हैं.
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