अल्मोड़ा जिले का धसपड़ गांव हाल में राष्ट्रीय सुर्ख़ियों का हिस्सा बना था. धौलछीना ब्लॉक में स्थित धसपड़ गांव को जल संरक्षण व संवर्धन पर बेहरीन कार्य करने हेतु श्रेष्ठ ग्राम पंचायत का प्रथम पुरस्कार मिला है. वरिष्ठ साहित्यकार लक्ष्मण सिंह बिष्ट ‘बटरोही’ की धसपड़ से जुड़ी यादें: सम्पादक
(Dhaspad Gaon ka Jhula Memoir)
धसपड़ मेरे घर छानागाँव से ममकोट के गाँव पनुवानौला जाते हुए रास्ते में पड़ता है. गाँव से पांच किलोमीटर की खड़ी चढ़ाई के बाद एक खुबसूरत शिखर है ‘द्यौपड़’, जिसके समानांतर दोड़म और सुवाखान होते हुए देवदार के गझिन वृक्षों से पटी खूबसूरत पहाड़ी है धसपड़. इस बेहद आकर्षक वादी में दूसरी अनेक चीजों के अलावा करीब बीस मीटर ऊँचा एक विशालकाय झूला हम बच्चों के आकर्षण का केंद्र होता था, जिस पर झूलने के सपने हम लोग हमेशा देखा करते थे.जब भी हमें ममकोट के बूबू के पास जाना होता, धसपड़ के झूले के पास देर तक ठहरने का कार्यक्रम बनता और अमूमन वहाँ इतनी देर हो जाती कि हमें वक्त की याद ही नहीं रहती. बूबू इंतज़ार करते-करते थक चुके होते और हम धसपड़ के देवदार-वन और विशाल झूले की पैंग के आनंद में खोये हुए भटकते रहते.
यह यात्रा हालाँकि हम दो भाई मिलकर करते थे मगर बड़े भाई की उम्र भी कोई बहुत ज्यादा नहीं थी. मैं सात साल का था और भाई की उम्र पंद्रह साल थी. जब भाई झूले पर बैठते थे, मैं पैंग देता था और मेरे बैठने पर भाई यह काम करते थे.
उस बार मैं झूले पर बैठा था और भाई पैंग दे रहे थे. छोटे कद का होने के कारण मेरी पैंग लम्बी नहीं होती थीं, मगर भाई को मज़ा नहीं आ रहा होता था, वह बार-बार जोर से धक्का देने और ऊँची पैंग देने के लिए चिल्लाते. मगर मेरी पैंग कभी भी अपनी ऊँचाई से ऊपर नहीं जा पाती. गुस्से में भाई ने एकबार झूले से उतरकर मुझे बैठाया और ‘ऐसे धक्का दो’ चिल्लाते हुए पूरी ताकत से स्विंग किया और बीस मीटर का झूला पल भर में ही आकाश छूने लगा. मगर मैं जीवन में पहली बार इतनी ऊंची उड़ान भर रहा था; घबराहट में मेरा हाथ झूले की जंजीर से छूटा और एक ही पल में झूले ने मुझे आकाश से धरती पर पटक दिया.
मारी साँस अटक गई थी, मेरी हालत देखकर भाई बुरी तरह घबरा गए. वो खुद भी नहीं जानते थे कि ऐसी हालत में क्या किया जाना चाहिए, घबराहट में उनके मुंह से आवाज भी नहीं निकली और कभी मेरे गाल और कभी मेरा सिर सहलाने लगे. शाम ढलने लगी थी, आस-पास भी कोई नहीं था. आज की तरह का व्यस्त इलाका भी नहीं था; भाई के होश उड़े थे और मैं था बेहोश. भाई को एक ही उपाय सूझा, मन-ही-मन उन्होंने पास के ही शिखर पर स्थित अपने कुल-देव एड़ी देवता को याद किया और हाथ उठाकर उसका आह्वान करने लगे.
(Dhaspad Gaon ka Jhula Memoir)
तभी चमत्कार हुआ और मेरी साँस लौट आई. भाई वहीं पर पेट के बल लेटकर एड़ी देव को साष्टांग करने लगे, कुछ देर बाद हम दोनों भाई एक ही पोजीशन में कई मिनट तक अपनी पहाड़ी भाषा में एड़ी देवता की आरती गाते रहे.
उस वक़्त मेरी उम्र सात साल रही होगी. अगर कभी आपको समुद्र सतह से सात हजार फुट की ऊँचाई पर फैले देवदार के घने जंगल के बीच बैठकर सुस्ताने का मौका मिला हो तो यह वैसा ही एक परिसर था. इस परिसर को मैंने पहली बार देखा था. गाँव के शिखर पर से सुदूर क्षितिज पर गिरते शांत जलस्रोत की तरह के इस अंचल को मैं जाने कितनी बार देख चुका था. वहां पहुँचने के बाद यह परिसर मुझे आकाश से पाताल तक फैला हुआ किसी तपस्वी के विशाल आसन जैसा दिखाई दिया था.
मैंने तपस्वी को नहीं देखा था,मगर गाँव के मंदिर में कभी-कभार एक जोगी आकर देवता के हवन-कुंड के किनारे पालथी मार कर तरह-तरह की ऊँची आवाज़ों में देवता का आह्वान करता था. मैंने उसे ही तपस्वी समझा था. मैं कल्पना करता था, वह जोगी अपनी तीखी आवाज से सामने क्षितिज के पीछे छिपे ‘भगवान’ को बुलाने के लिए वहाँ आता था जिससे कि भगवान और वह दोनों मिलकर गाँव-इलाके को खुशहाल कर सकें.
जिस दिन मैं देवदार के परिसर में पहुँचा था, मैंने उसी क्षण से भगवान की तलाश शुरू कर दी थी. तलाशी के दौरान मुझे यकीन था कि भगवान इसी परिसर के आकार का होगा और उसके विशाल आकार के लिए इतने ही बड़े घर की जरूरत पड़ती होगी. अवश्य भगवान इसी घर में रहता होगा. जितना बड़ा भगवान, उतना ही बड़ा था उसका घर. उतना ही ऊँचा और घना उसका शरीर.
मैंने उस वक़्त सोचा था, यह जंगल भगवान का क़िला होगा जहाँ से वह पल भर में देवदार की नुकीली चोटियों पर चढ़ कर सारी दुनिया को अपने फ़रमान सुनाता होगा. देवदार के पेड़ पर से भगवान आसानी से देख सकता होगा, हालाँकि कोई आदमी अपने घर से भगवान को कोई नहीं देख सकता होगा. उसी दिन मैं समझा कि देवदार के जिस सिरे को हम अपनी धरती से गर्दन को कितना ही टेढ़ा करके नहीं देख पाते थे,भगवान के लिए उसकी चोटी तक पहुँचना क्यों इतना आसान होता होगा?
(Dhaspad Gaon ka Jhula Memoir)
बाद की ज़िंदगी में जब मैंने शब्द की दुनिया में प्रवेश किया और शब्द-ब्रह्म जब मेरी ज़बान से उछलकर दिमाग में ठहरने के बजाय चारों ओर की प्रकृति में विलीन हो जाता था, मैंने भगवान के किले का नाम दिया, ‘प्रकृति-ब्रह्म’. शायद मैंने इसे ‘शब्द-ब्रह्म’ की तर्ज़ पर गढ़ा होगा. यही कारण है कि शब्द की दुनिया की बारीकियाँ कभी मेरी समझ में नहीं आईं. शायद इसके पीछे यह कारण रहा हो कि वे लोग जिसे ‘शब्द’ कहते थे, मेरे लिए वह प्रकृति थी. मैं प्रकृति की प्रत्येक बारीकी को समझता था, मगर शब्द की बारीकियाँ मुझे देखते ही हमेशा गायब हो जाती थीं. उन्हीं दिनों मुझे लगा था, ब्रह्म शब्द नहीं, निसर्ग है और उसका नाम ‘निसर्ग ब्रह्म’ होना चाहिए.
ब्रह्म के जो एक-सौ-इक्कीस पर्याय मुझे रटाये गए (उपरिलिखित) उनमें शब्द का उल्लेख था, मगर देवदार का ज़िक्र नहीं था. ब्रह्माण्ड, प्रकृति, स्वर्ग, अस्तित्व, प्राण का उल्लेख था,लेकिन आदमी का ज़िक्र नहीं था. जाने क्यों मुझे सारी ज़िंदगी लगता रहा कि यह (शब्द) मेरे लिए नहीं था. इसीलिए मैं हमेशा देवदार और आदमी को ही पढ़ता रहा. इन दोनों की चिंताएं मेरी चिंताएं बनीं. मैं अपने अधिक-से-अधिक नज़दीक आया लेकिन उन लोगों से कटता चला गया जो शब्द को अस्तित्व का पहला पर्याय मानते थे.
(Dhaspad Gaon ka Jhula Memoir)
इस प्रक्रिया में ‘थोकदार’ के बुत के चेहरे की धूल साफ होती चली गई और वह आकार पहचानने –योग्य बनता चला गया. मेरी और मेरे समाज के चेहरे की अनुहारि एक में घुलने लगी.
(‘हम तीन थोकदार’, पृष्ठ 198-199)
हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार-कहानीकार हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं. उनकी मुख्य कृतियों में ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ ‘सड़क का भूगोल, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल दा’ और ‘महर ठाकुरों का गांव’ शामिल हैं. काफल ट्री के लिए नियमित लेखन.
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