अशोक पाण्डे

बुल्ली बाई प्रकरण में शामिल उत्तराखंड के दो युवाओं की कहानी

बुल्ली बाई मामले में गिरफ्तार किए गए तीन युवाओं में से दो का प्रत्यक्ष सम्बन्ध उत्तराखंड से निकला है. पौड़ी जिले के कोटद्वार कस्बे के रहने वाले और फिलहाल जम्मू में तैनात फ़ौज के एक सूबेदार का 21 साल का बेटा मयंक रावत दिल्ली यूनिवर्सिटी से कैमिस्ट्री ऑनर्स कर रहा है जबकि रुद्रपुर की रहने वाली 18 साल की बारहवीं पास श्वेता सिंह इंजीनियरिंग की तैयारी कर रही है. पुलिस इन इन दोनों को बुल्ली बाई एप का मास्टरमाइंड बता रही है.
(Bulli Bai App Case Full Story)

सीधे-सीधे मुसलमान महिलाओं की आबरू पर प्रहार करने की नीयत और निखालिस नफ़रत और लालच की बुनियाद पर बनाए गए इस एप में सोशल मीडिया से कुछ नामचीन्ह मुस्लिम महिलाओं की तस्वीरें इकठ्ठी की गईं और उन्हें बिक्री के लिए उपलब्ध किसी जिन्स की तरह बेहद भौंडे तरीक़े से नीलामी के वास्ते अपलोड किया गया.

इस तरह एक ही जगह पर, पैसे देकर महिलाओं और मुसलमानों – दोनों की बेइज्ज़ती किये जाने की सुविधा उपलब्ध कराई गई. किसी भी सनसनी के सामने आते ही लार टपकाने को तत्पर समाज के एक ख़ास तबके के लिए यह एप एक बेहद आकर्षक आयोजन साबित हो ही रहा था कि एप की शिकार बनी एक महिला की शिकायत के बाद पुलिस हरकत में आ गई. इसके बाद श्वेता और मयंक के नाम सामने आए.

मैं अपने नगर हल्द्वानी से कुल पैंतीस किलोमीटर दूर स्थित रुद्रपुर नाम की जगह पर रहने वाली अठारह साल की उस बारहवीं-पास युवती की कल्पना कर रहा हूँ जो एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार से ताल्लुक रखती है और इंजीनियरिंग एंट्रेंस की तैयारी कर रही है. लड़की की माँ दस साल पहले गुज़र चुकी है जबकि उसके पिता पिछले साल कोरोना के शिकार हुए. उसकी एक बड़ी बहन है और एक छोटी. एक छोटा भाई भी है. उस के पास एक मोबाइल फोन है जिसे वह अपने दिवंगत पिता के नाम से खरीदे गए सिम से चलाती है. नए जमाने की किशोरियों की तरह उसके दिन का बड़ा हिस्सा भी अपने फोन के साथ बीतता है. बड़ी मुश्किल से परिवार का गुज़ारा चल पाता है और दिन-रात गरीबी का दंश झेल रही लड़की बहुत जल्दी बहुत सारा पैसा कमा लेना चाहती है.

मयंक की पूरी कहानी अभी मीडिया में नहीं आई है लेकिन जो भी सूचना उपलब्ध है उससे पता चलता है कि पढ़ाई में ठीकठाक प्रदर्शन कर रहे इस 21 साल के लड़के के सामने ऐसी कोई आर्थिक समस्या नहीं थी.
(Bulli Bai App Case Full Story)

सरकारी और गैर सरकारी विज्ञापनों में उत्तराखंड को देवभूमि बताया जाता रहा है. यहाँ के निवासियों के साथ अपरिहार्य रूप से “सीधे-सादे” और “निश्छल” जैसे विशेषण भी जोड़े जाते रहे हैं. कुछ समय पहले एक सीमा तक ये दोनों बातें सच मानी भी जा सकती थीं लेकिन बुल्ली बाई वाले मामले में यहां के दो युवाओं के नाम आने के बाद इस विषय पर गंभीरता से सोचे जाने की जरूरत महसूस होती है.

दुर्भाग्यवश जातीय भेदभाव उत्तराखंड के लोकजीवन में शताब्दियों से गहरे पैठा हुआ है. सांस्कृतिक और धार्मिक रूप से बेहद समृद्ध होने के बावजूद इस हिमालयी इलाके का इन पुरातन रूढ़ियों से बाहर न आ सकना हैरान भी करता है और निराश भी. तथाकथित उच्च और निम्न जातियों के मध्य सीधे-संघर्ष कभी आम नहीं रहे थे अलबत्ता छिटपुट घटनाओं की रिपोर्टिंग हुआ करती थी. इनका शर्मनाक चरम 9 मई, 1980 को अल्मोड़ा जिले के कफल्टा गांव में आया था जब बारात निकालने के विवाद को लेकर 15 लोगों की जघन्य हत्या कर दी गई थी. उस सदमे ने ऊपर से शांत दिखाए देने वाले उत्तराखंड के सामाजिक ताने-बाने में मौजूद जातीय क्रूरता को उघाड़ कर रख दिया था. इसके नतीजे में राज्य भर में जातिवादी भेदभाव की घटनाओं में प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से बहुत कमी आई.

लेकिन पिछले दस वर्षों में यह शांत पहाड़ी क्षेत्र फिर से उबलना शुरू कर चुका है. इस बार जो आग लगी है उसमें जातपात के अलावा धार्मिक वैमनस्य की आंच भी शामिल है. देश के अन्य हिस्सों की तरह यहां भी राजनीति ने धर्म और आस्था को वोट जुटाने और नफ़रत फैलाने का जरिया बनाया है.

विषम भौगोलिक परिस्थितियों के मध्य कामगार और शिल्पी उत्तराखंड के लोकजीवन की धुरी में मौजूद रहे हैं. सीढ़ीदार खेतों से लेकर घरों-खिड़की-दरवाजों के निर्माण से लेकर खेत जोतने, बरतन-फर्नीचर बनाने जैसे काम इन्हीं वंचित तबकों के हवाले रहे हैं. नीची जाति माने जाने वाले हिन्दुओं के अलावा मुस्लिम कारीगर यहां की जीवनधारा के अपरिहार्य और अन्तरंग हिस्से रहे हैं. इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़ दें तो समाज में व्यापक सहिष्णुता रही है.

हालिया वक़्त में घटी कुछ घटनाओं ने इस सौहार्द और सहिष्णुता को अपना निशाना बनाया है. ढाई साल पहले टिहरी गढ़वाल के श्रीकोट गांव में 26 अप्रैल, 2019 के दिन एक दलित युवक की महज इसलिए पीट-पीट कर हत्या कर डी गयी कि उसने एक विवाह समारोह में सवर्णों के सामने कुर्सी पर बैठ कर खाना खाने का साहस किया था.

उत्तराखंड की अर्थव्यवस्था को लम्बे समय तक मनीआर्डर अर्थव्यवस्था कहा जाता था क्योंकि ज्यादातर घरों के मर्द जीवनयापन के लिए घर-गाँव से बाहर रहते थे. बड़े पैमाने पर आर्थिक विपन्नता जीवन का पर्याय थी. पिछली दो पीढ़ियों से थोड़ी बहुत सम्पन्नता आई है जिसके चलते पलायन कम कष्टप्रद हुआ है और आम जीवनस्तर सुधरा है. इस सुधरे जीवनस्तर का सबसे बड़ा लाभ यहां की युवा पीढ़ी को मिला है. कम्प्यूटर और मोबाइल जैसी चीजें उनके जीवन में जगह बना चुकी हैं और वे देश के बाकी हिस्सों के अपने हमउम्रों की तरह सचेत और सूचित बन रहे हैं.

इस पॉजिटिव बदलाव का सबसे अन्धेरा पहलू यह है कि वे यह भी देख रहे हैं कि उनकी पैतृक जमीनों को दिल्ली-बंबई जैसी जगहों से आए रईस खरीद कर उनमें अपने बंगले बना रहे हैं, कि रेता-पत्थर-लकड़ी-लीसा की तस्करी करने वाले अपराधी इज्जतदारों में गिने जा रहे हैं, कि कम पढ़-लिख कर राजनीति करना इंजीनियर-डाक्टर बनने से कहीं अधिक फायदे का सौदा है, कि गरीबी और गरीब लोग बुरे होते हैं और पैसा सबसे बड़ी चीज है चाहे उसे किसी भी रास्ते से कमाया गया हो.

समाज और दूषित राजनीति द्वारा रचे गए इस दुर्दांत मायाजाल में फंसा, मोबाइल और तकनीकी ज्ञान से लैस उत्तराखंड का युवा इस बात को समझ रहा है कि नफ़रत और धार्मिक वैमनस्य जैसी चीजें भी करियर बनाने का जरिया हो सकती हैं.

बुल्ली बाई प्रकरण भी एक ऐसी ही दुर्भाग्यपूर्ण युवा अभिव्यक्ति है. श्वेता सिंह और मयंक रावत को केवल दो नाम समझना भूल होगी.
(Bulli Bai App Case Full Story)

अशोक पाण्डे

यह लेख नवभारत गोल्ड से साभार लिया गया है.

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