(पिछली क़िस्त – दिल्ली से तुंगनाथ वाया नागनाथ – 3)
मैं दूकानों से थोड़ा आगे निकला और नीचे जंगल की ढलान की ओर देखा. वह प्लास्टिक के कचरे से अटा पड़ा था. दूकानों के आगे साफ सड़क और उनके पिछवाड़े इतनी गंदगी! पाॅलीथीन की थैलियां, पैकेट, प्लास्टिक की बोतलें, डिब्बे. बुरी तरह प्रदूषित जंगल. नीचे जहां तक नजर जाती थी, प्लास्टिक का वही कचरा दिखाई दिया. इससे जंगल का नैसर्गिक सौंदर्य तो नष्ट हो ही रहा था, वहां बीजों को उगने और पेड़-पौधों के पनपने के लिए धरती भी बेकार हो रही थी. मैं दूकानों की ओर लौट आया. आसपास पेड़ों पर पक्षी चहक रहे थे.
“तो साथियो चलें? सबने खा-पी लिया?” शेखर की आवाज थी.
किसी ने कहा,”ऊपर ठंड लगेगी. स्वेटर, जैकेट वगैरह जरूर रख लें.“
हम लोग तुंगनाथ की चढ़ाई चढ़ने लगे. दो-एक घोड़े वालों ने पूछा. पालकी वाले ने पूछा. हम लोगों ने कहा- नहीं भाई, हम तो पैदल यात्री हैं.
सी-सी यानी कंक्रीट-सीमेंट की सर्पीली सड़क पर चलते गए, चलते गए. ऊपर और ऊपर. दम-खम के साथ कि देखो कैसे चमाचम चल रहे हैं हम. अभी थोड़ी ही चढ़ाई पार की थी कि एक विदेशी युवक और युवती से भेंट हो गई. साइमन और सीएरा. वे दोनों तुंगनाथ शिखर से लौट रहे थे. उत्साह के साथ मैंने पूछा, “हाय! कैसा लगा तुंगनाथ?”
“बहुत सुंदर. सचमुच बहुत सुंदर है. पर चढ़ाई भी काफी है, ”साइमन ने कहा.
कैसी होगी, तुंगनाथ शिखर की चोटी? मेरे गांव के मुहावरे में मेरी वही हालत हो गई कि ‘ जैलि देखि भलि छ कनी, जैलि नैं देखि कसि छ कनी’. यानी, जिसने देखी है सुंदर है कहते हैं, जिससे नहीं देखी है कैसी है कहते हैं!
हम दो-दो, तीन-तीन साथी साथ चल रहे थे, बतियाते हुए.
राजू, शेखर और मेहता जी आगे-आगे, हम लोग पीछे-पीछे. कुछ साथी आपस में बात कर रहे थे, “यार, मेहता जी को देखो. अठहत्तर साल की उम्र में हमसे तेज चल रहे हैं. हमारे लिए तो वही आदर्श हैं.” चढ़ाई के साथ-साथ सांस भी चढ़ने लगी- हू…म, हू…म. एक मोड़ पर शेखर ने रोका और दूर नीचे फैले जंगलों और उस पार खड़े पहाड़ों के बारे में बताया, “वहां नीचे जंगल के बीच में मक्कू गांव है. वह विश्राम गृह भी दिखाई दे रहा है. उधर मंदाकिनी घाटी है और इस ओर नीचे आकाशगामिनी नदी. सामने वहां ऊखीमठ है. ”यह जानकारी लेकर हम लोग आगे बढ़ चले.
घुटनों में दर्द की शिकायत करने वाले हम पांच साथी थे लेकिन फिलहाल पांचों चढ़ाई चढ़ रहे थे. बांज, बुरांश के पेड़ों के बीच से होकर हम लोग अचानक बुग्याल के सामने आ गए. पूरे बुग्याल पर जैसे हरा कालीन बिछा हुआ था. पेड़ उसके निचले किनारे पर ही खड़े होकर हरियाली ताक रहे थे. बुग्याल के ऊपरी किनारे पर भेड़पालकों का झोपड़ीनुमा खरक बना हुआ था. वहां कोई हरकत न देख कर लगता था, उसमें रहने के लिए अभी तक भेड़पालक शायद आए नहीं थे. बुग्याल के सिरहाने से सी-सी सड़क दूर तक चली गई थी. सड़क वहां से कहां गई है, यह देख कर पता नहीं लगता था. तभी ऊपर से आवाज आई,“ शाबाश साथियो. चलते रहो. आप लोगों ने काफी रास्ता तय कर लिया है. आगे चल कर न्योली गाएंगे.” शेखर हिम्मत बंधा रहा था.
जहां तक सड़क दिखाई दे रही थी, वहां तक पहुंचे तो देखा वह आगे जाने के बजाय दाहिनी ओर को मुड़ गई है. अब दूर दाहिनी ओर सड़क का अंतिम सिरा दिखाई दे रहा था. वहां से वह आगे जाएगी या फिर मुड़ जाएगी, कुछ पता नहीं. वहां पहुंचे तो देखा वह बाईं ओर को मुड़ कर फिर दूर तक चली गई है. तब समझ में आया कि सी-सी सड़क पहाड़ की पीठ पर दाएं-बाएं घूम कर धीरे-धीरे ऊपर उठती जा रही है.
अब तक हम लंबी-लंबी सांसें लेने लगे थे. हमारी हालत देख कर मेहता जी थोड़ा पीछे हो गए. एक घूम पर मैं दीवाल पर बैठने लगा तो उन्होंने कहा,“बैठने के बजाय अगर थोड़ी देर खड़े हो जाएं तो पैरों की मांसपेशियों को आराम मिल जाएगा. बैठने पर दुबारा उठ कर चलने में मांसपेशियों को नए सिरे से मेहनत करनी पड़ती है. उनमें दर्द होता है.”आगे चलने पर मैंने यही किया. अगले घूम पर पहुंचे तो बगल में बुरांश के काफी पेड़ दिखाए दिए. मेहताजी ने पूछा, “इन बुरांशों का रंग देखा? ”
“जी हां देखा, नीचे तो लाल रंग के होते हैं. लेकिन यहां फूलों का रंग हलका गुलाबी हो गया है.”
“ऊपर पीले और सफेद फूल दिखाई देंगे. ऊंचाई बढ़ने के साथ-साथ रंग हल्का हो जाता है.”
तब तक हलके-फुलके बदन के कमल जोशी भी हाथ में कैमरा साधे पहुंच गए. हम लोगों ने खुश होकर कहा, “वाह, वाह! आप लोग भी पहुंच गए? और कौन आया? ”
कमल जोशी ने हाथ के इशारे से दिखाया. बुग्याल के सिरहाने सड़क पर गीता गैरोला और रीना चली आ रही थीं. हम लोग चिल्लाए,“स्वागत है, आइए हम लोग धीरे-धीरे चल रहे हैं.”
शेखर, राजू और कमल जोशी सड़क के दो घूमों के बीच सीधे बुग्याल से चढ़ाई चढ़ गए. वहीं किनारे बुरांशों पर सफेद फूल खिले हुए थे. कमल जोशी ने उनके फोटो खींचे. मैंने मन में सोचा, ‘मत चूको चौहान, ’और लीक छोड़ कर चढ़ाई का वह टुकड़ा बुग्याल से होकर चढ़ने लगा. कुछ साथियों ने देखा, पर कहा कुछ नहीं. फेफड़े बैलूनों की तरह फूल कर निःश्वास के साथ निचुड़ने लगे. एकाध बार बुग्याल के कालीन पर बैठ कर दम लिया और फिर‘‘हम्फ! हम्फ! हम्फ! ’करता जैसे-तैसे ऊपर सड़क पर पहुंच गया. समतल सड़क पर चलने की अभ्यस्त पैरों की कई मांसपेशियां चढ़ाई चढ़ने की इस मेहनत-मशक्कत से परेशान हो गईं. पिंडली की पेशी में क्रैम्प यानी मरोड़ महसूस होने लगी. मेहता जी को बताया तो बोले, “वहां पर अंगुलियों, हथेलियों से मालिश कीजिए. की, और आराम मिला. हम्फ-हम्फाते आगे बढ़ा तो नवीन मिल गया. बुखार की परवाह न करके वह ‘क्षण भर आराम और फिर चल पड़ो’की तकनीक अपना कर चढ़ाई चढ़ता जा रहा था. ऊपर से शेखर और राजू की आवाज आई, “आप लोग विजय प्राप्त करने के बहुत करीब हैं. हिम्मत जुटा कर चलते रहिए.” वे लोग न्योली गा रहे थे. प्रकाश, कमल द्वय और रामू उनके साथ थे.
तुंगनाथ से नीचे आरामचट्टी में मोहन सिंह नेगी की चाय की दूकान के पास सभी साथी एकत्र हुए ताकि वहां से सभी लोग एक साथ जा सकें. मोहन सिंह मक्कू मठ गांव के निवासी हैं. छह माह तुंगनाथ के पास आरामचट्टी में चाय-पानी की दूकान चलाते हैं और 6 माह मक्कू मठ में रहते हैं. तीन बेटियां और एक बेटा है. बच्चों को पढ़ा रहे हैं. उनकी दूकान में हमने एक-एक कड़क चाय पी और फिर सभी साथी एक साथ ऊपर शिखर की ओर बढ़े.
अब ऊपर चोटी थी और बुग्याल से नीचे पेड़ों की कतार यानी ‘ट्री-लाइन’. प्रकृति अपनी रची हुई हर चीज का कितना ध्यान रखती है, देख कर हैरान रह जाना पड़ता है. दस-बारह हजार फुट की ऊंचाई पर पेड़-पौधे खड़े नहीं रह सकते, इसलिए उन्हें बुग्यालों से नीचे रोक दिया है. पहाड़ की मिट्टी तेज हवाओं, वर्षा और हिमपात से कट कर बह जाएगी, इसलिए उस पर नर्म घास का गलीचा बिछा दिया है. बर्फ गिरती है और गलीचे पर परत-दर-परत जमा होती जाती है. घास का कुशन उसे संभाले रहता है. बूंद-बूंद पिघलती बर्फ से घास और नन्हे पौधों की जड़ें सिंचती रहती हैं. जब बर्फ पिघल जाती है तो बुग्याल में बहार आ जाती है. हरी-सुनहरी घास का गलीचा मोटा हो जाता है और नाना प्रकार के रंग-बिरंगे फूल खिल उठते हैं.
इतना ही नहीं, नीचे जंगलों में उगने वाले बुरांश के अच्छे खासे पेड़ होते हैं. लेकिन, अभी-अभी मैंने देखा, बुग्याल की ढलानों पर वही बुरांश जो यहां सेमरु कहलाते हैं, झाड़ियों में बदल गए हैं. उनके लंबे, पतले तने धरती से उठ कर सीधे खड़े नहीं हुए बल्कि ढलान की ओर लेट कर थोड़ा आगे बढ़ने के बाद खड़े उठे हैं. इस तरह उन तमाम पौधों के तनों ने जाल जैसा बना लिया है ताकि बर्फ गिरे तो जाल पर अटके और फिर अंश-अंश तापमान बढ़ने पर कतरा-कतरा पिघले. न मिट्टी कटेगी, न घास उखड़ेगी, न भूस्खलन होगा. सेमरु ने स्थिति संभाल रखी है. या, यों भी कह सकते हैं कि सेमरु ने अपने आप को उन हालातों के अनुरूप ढाल लिया है. मोहन सिंह दूकानदार ने बताया कि यहां उगने वाली ममछा घास पशुओं के लिए मुख्य चारा है. मेहता जी ने बताया, बुग्यालों में उगने वाली घास ‘ बुग्गी घास’ कहलाती है. इसीलिए वे बुग्याल कहलाते हैं.
अब ऊपर तुंगनाथ का मंदिर दिखाई देने लगा है. यहां दाहिनी ओर बगल में पत्थरों से बने इस छोटे से मंदिर में गणेश जी विराजमान हैं. हम मुख्य मंदिर की ओर बढ़ रहे हैं. मंदिर से पहले पत्थरों से चिनी गई धर्मशाला है. पत्थरों के इस परिदृश्य में वह किनारे पर बना सीमेंट-कंक्रीट का सफेद विश्राम गृह आंख में किरकिरी-सा लगता है. कितना अच्छा होता अगर उसकी दीवारें भी पत्थरों की चिनाई करके बनाई जातीं. ढालूदार छत पर चपटे स्लेटी पत्थर बिछाए गए होते. तब वह इमारत भी इसी दृश्य का हिस्सा लगती.
“एशिया का सबसे ऊंचाई पर स्थित नौला! ” राजू धाद लगा कर हमें बता रहा था.
“नौला यहां चोटी पर? ” मैंने पूछा तो उसने कहा, “हां, इसे जरूर देखते हुए आइए.”
हम गए वहां पर. पत्थर की मोटी थूमी (स्तंभ) पर लिखा था,‘‘आकाश कुंड’. लेकिन, इन दिनों उसमें पानी नहीं था. शायद चौमास में वर्षा होने पर सोतों का पानी आता होगा. बर्फ पिघलने पर भी उसमें पानी जमा हो जाता होगा. किसी से पूछता, लेकिन वहां पर कोई था नहीं.
हम तुंगनाथ मंदिर के प्रवेश द्वार पर पहुंचे. द्वार पर टंगी छोटी-बड़ी घंटियां बजाईं- टिन्…टन्…टुन्….ट न् न्….सामने शिलाखंडों से बना तुंगनाथ का भव्य प्राचीन मंदिर खड़ा था. मंदिर के प्रांगण में चौड़े पटाल बिछे हुए थे. हमने फोटो खींचे. प्रांगण में पटालों के बीच छोटे-छोटे अनगिनत चटख पीले रंग के फूल खिले थे. लगता था जैसे पीले फूलों का प्रिंट बिछा दिया गया हो. मंदिर के कपाट बंद थे और नौ दिन बाद विधिवत खुलने वाले थे. तभी ग्रीष्मकालीन निवास के लिए तुंगनाथ की गद्दी समारोहपूर्वक यहां लाई जाएगी. शीतकालीन निवास के लिए उनकी गद्दी मुक्कू-मठ गांव के तुंगनाथ मंदिर में पहुंचा दी जाती है. मंदिर के सम्मुख खड़े होकर‘‘सर्वे भवंतु सुखिनः’ की भावना से प्रार्थना की और कपाटों के सामने रखे पात्र में से माथे पर चंदन का टीका लगाया.
पत्थर की सीढ़ियां चढ़ कर हम मंदिर से थोड़ा ऊपर एक ढालू चट्टान पर पहुंचे. बाकी, साथी चट्टान पर बैठ चुके थे. मैं पहुंचा तो राजू और शेखर ने कहा, “रुकिए, रुकिए. आप हाथों से पूरा जोर लगा कर चट्टान को रोकिए. लगेगा, खिसकती हुई चट्टान को आपने अपने मजबूत हाथों से रोक रखा है! रोका, मैंने चट्टान को रोका. मेरे लंबे बाल कुछ तो हवा चलने से और कुछ अंगुलियों से संवारने के कारण सिर पर खड़े हो गए थे. उस पर चट्टान रोकने का यह अंदाज! उन्होंने फोटो खींचा. मुझे भी जरूर दिखाना वह फोटो साथियो.
अब तक हम चोपता से तुंगनाथ शिखर पर चढ़ने की थकान तो भूल ही चुके थे. सब लोग प्रांगण में आए. उसकी दीवाल पर बैठ कर चारों ओर की दृश्यावली पर दृष्टि फेरी. अलौकिक था वह अनुभव. दूर हिमालय की चौखंबा और केदारनाथ चोटियों को कोहरा अपने आगोश में ले रहा था. इधर-उधर, चारों ओर नीले पहाड़ थे. पहाड़ों के पार भी पहाड़ थे. दूर नीचे गहरी घाटियां दिखाई दे रही थीं. हम तुंगनाथ शिखर में 12, 750 फुट की ऊंचाई पर बैठे हुए थे.
शेखर ने अभी-अभी दूसरी ओर की तीखी ढलान पर घास के बीच से आती हुई पुरानी पगडंडी दिखाई थी. किसी साथी ने कहा, “कैसे आए होंगे लोग इतनी दूर इतने कठिन रास्ते से? जान हथेली पर लेकर? ”
किसी और ने कहा, “आस्था. आस्था कराती है ऐसी कठिन यात्रा.”
प्रकाश की आवाज आई, “मैं तो नहीं मानता कोई आस्था. मैं यह देखने के लिए आता हूं कि कौन रहे होंगे वे दुस्साहसी लोग जिन्होंने सदियों पहले तमाम खतरे उठा कर ऐसी विकट यात्राएं की होंगी और ऐसे दुर्गम स्थानों में आकर ऐसे निर्माण किए होंगे? चढ़ावे से धन कमाना तो उनका लक्ष्य बिलकुल नहीं रहा होगा. मैंने और भी प्राचीन मंदिर देखे हैं. मैं उनकी प्राचीनता से आकर्षित होकर उन्हें देखने जाता हूं.”
मैं मंदिर के सामने के द्वार पर गया. एकांत में कुछ देर तक आंखें बंद कीं और प्रकाश की बात याद करके सोचता रहा कि सचमुच कौन रहे होंगे वे लोग, हमारे वे पुरखे जिन्होंने बिना किसी लालच के कठिन परिस्थितियों में यहां पहाड़ की चोटी पर आकर यह मंदिर बनाया होगा.….सामने तीखी, पथरीली कटान के साथ आगे बढ़ता पहाड़ बुग्याल में तब्दील हो गया था. कटान के बीच से दूर तक घाटी का मनोरम दृश्य दिखाई दे रहा था.
साथियों ने वापसी का निर्णय लिया. एक बार फिर भर आंख मंदिर को देख कर और चारों ओर के नयनाभिराम दृश्यों को स्मृति में समेट कर हम ढलान पर नीचे उतरने लगे. सी-सी सड़क के दोनों ओर नन्हे पीले वनफूल खिलखिला रहे थे. उनके आसपास तितलियां इठला रही थीं. लाल चमकीली पीठ पर काली बिंदियों से सजी कुछ लेडी बर्ड भी यहां-वहां पहरा दे रही थीं. हमारे साथी नीचे उतर कर चाय की दूसरी दूकान पर इंतजार करने लगे. नीचे उतरते समय मोहन सिंह की दूकान पर हमें राजेश जोशी सपरिवार मिल गए. वे मंदिर की ओर जा रहे थे.
तुंगनाथ में 12,750 फुट की ऊंचाई पर इस वीराने में ये कव्वे यहां क्या कर रहे हैं? उन्हें देख कर आश्चर्य हो रहा था. इधर-उधर सैकड़ों फुट गहरी खाई और उसके ऊपर हवा में पर तौलते, गोता लगाते ये काले, चमकीले कव्वे! लगता है ये हमारे आम पहाड़ी कव्वे (कोर्वस राइंकास) नहीं बल्कि रेवन (कोर्वस कोरेक्स) हैं. बचपन में मां कहती थी, कव्वे लाटे होते हैं. साफ नहीं बोल पाते. पर ये तो उनसे भी ज्यादा लाटे लग रहे हैं. रेवन ही होंगे ये. गर्मियों में इन्होंने यहां धूनी रमाई हुई है! यहीं किसी फर या मोरू के पेड़ की ऊंची शाखाओं अथवा तीखी खड़ी चट्टानों पर घोंसला बना कर अंडे देते होंगे. एक बात इनसे जरूर सीखनी चाहिए कि कठिन परिस्थितियों में भी कैसे जीया जा सकता है और यह भी कि उम्र भर पति-पत्नी एक-दूसरे का साथ इनकी तरह कैसे निभा सकते हैं.
नीचे उतर ही रहे थे कि किसी साथी ने कहा, “वो, वहां चट्टान के पास उडियार में कौन रहता होगा? ”
हमने दाहिनी ओर देखा. सी-सी सड़क के दूसरी ओर पहाड़ पर चट्टानों के नीचे एक खोह थी. वहां दो-तीन लोग नजर आ रहे थे.
“बाबा रहते हैं, जटाओं वाले. उनकी जटाएं पैरों तक लंबी हैं बल,” किसी और साथी ने कहा.
“मिथ क्रिएट करने में हम शायद दुनिया में सबसे आगे हैं, ” प्रकाश की आवाज आई.
लेकिन, कमल जोशी को तो शायद कुछ सुनाई ही नहीं दे रहा था. उसकी नजरें और कैमरे की आंख उडियार पर टिकी थी. वह कैमरा साधे बुग्याल की घास पर हिरन की तरह कुलांचें भरता उसी ओर चला गया. किसी ने कहा, “कमल बाबा का फोटो खींचने चला गया है. वह देखो, वहां से वे लोग हाथ हिला रहे हैं.”
हम उतराई में घुटनों पर शरीर का सारा बोझ साधे उतरते रहे और नीचे देवदर्शनी में आलम सिंह राणा की दूकान में चाय पीने के लिए इंतजार करते साथियों के बीच जाकर बैठ गए. बहुत प्यास लगी थी, रावत जी फटाफट ऊंचाई में काफी दूर तक गए और वहां लगे पतले-से नल से तुड़-तुड़ टपक रहा पानी भर लाए. आह, कितना शीतल और तीस (प्यास) बुझाने वाला पानी था! पानी पीकर मैं आलम सिंह राणा से मुखातिब हुआ, “आलम सिंह हमारे गांव में भी होते है और सयाने कहते थे हम भी राणा हुए. राजस्थान से आए.”
“हम भी राजस्थान से ही आए कहते हैं.”
ऊपर को जाते समय उन्होंने हमारे साथी को फोटो खींचने से मना किया था. मेरा मन था, उनका फोटो लूं. पूछा, “आपने फोटो लेने से मना क्यों किया था पहले?”
बोले, “क्या होगा इतने फोटो से? अब तक हजारों लोग खींच चुके हैं.”
मैंने कहा, “मैं खींच लूं? आपकी भट्टी और बर्तनों का फोटो खींच लूं? ”
बोले, “ठीक है.”
चाय पीकर हम लोग नीचे उतरने लगे. शरीर का भार सहते-सहते पिंडलियों की पेशियां शायद फिर परेशान हो गईं. मरोड़ उठी. मैं रुका. पीछे से चली आ रही गीता ने कहा, “आप िफक्र मत कीजिए. दवाखाना और डाॅक्टर साथ-साथ चल रहे हैं?
मैंने पूछा, “कौन?”
बोलीं, “ये रावत जी. देखते ही देखते मरोड़ को ठीक कर देंगे.”
रावत जी ने मेरी पिंडली पर अपनी दोनों हथेलियां फिराईं, अंगुलियां चलाईं और लीजिए मरोड़ गायब. उन्हें धन्यवाद दिया तो बोले, “मैं साथ ही चल रहा हूं. कोई दिक्कत नहीं होगी.”
चमाचम चल रहे मेहता जी भी मेरी चाल-ढाल देख कर पछी (पिछड़) गए और साथ-साथ चलने लगे. गीता और रीना भी साथ ही थीं. रीना चुप-चुप सी दिखाई दे रही थी. गीता ने धीरे से बताया, पता नहीं क्यों चुप और सकुचाई हुई-सी रहती है. यह जान कर मैंने कहा, “गीता, रीना सामने खड़े हो जाओ. फोटो खींचता हूं.”
वे सामने खड़ी हुई और मैंने उनका फोटो खींच कर कहा, “अब एक फोटो रीना खींचेंगी. आओ बेटी, देखो इस बटन को दबाना.”
रीना ने उत्साहित होकर कैमरा लिया और हमारा फोटो खींचा. मेहता जी भी समझ गए. उन्होंने भी अपना कैमरा देकर हम लोगों का फोटो खिचवाया. हम हरे-भरे बुग्याल के करीब पहुंच गए थे. मैंने कहा, “रीना बेटे, तुम बुग्याल में जाओ हम यहां दूर से फोटो खींचेंगे. बहुत अच्छा लगेगा.”
वह खुश होकर बुग्याल के बीच में जाकर खड़ी हो गई. मैंने फोटो खींचा और आवाज देकर सड़क पर आने को कहा. हमें देर हो रही थी. देखा सभी साथी नीचे तेजी से उतरते जा रहे थे. आज ही अपनी-अपनी जगहों को लौटना भी तो था.
(जारी)
लोकप्रिय विज्ञान की दर्ज़नों किताबें लिख चुके देवेन मेवाड़ी देश के वरिष्ठतम विज्ञान लेखकों में गिने जाते हैं. अनेक राष्ट्रीय पुरुस्कारों से सम्मानित देवेन मेवाड़ी मूलतः उत्तराखण्ड के निवासी हैं और ‘मेरी यादों का पहाड़’ शीर्षक उनकी आत्मकथात्मक रचना हाल के वर्षों में बहुत लोकप्रिय रही है.
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