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उच्च शिक्षा का गिरता स्तर और हमारा उत्तराखंड

नितियों के निर्धारण, खास तौर से, आर्थिक और विकास से संबधित नीतिओं के निर्धारण के लिए अनुसन्धान के माध्यम से मिलने वाल्रे इनपुट्स काफी अहम् होते है. उच्च शिक्षा की गुणबत्ता नापने का सबसे बड़ा पैमाना यही है कि अनुसन्धान के क्षेत्र में कितना काम हो रहा है और उच्च शिक्षा विकास में कितना साझीधार है. इस पैमाने पर अगर उत्तराखंड की उच्च शिक्षा का इसमें खास योगदान नहीं रहा है. पीएचडी की जो भी थीसिस मेरी नज़रों में आयीं, उनका स्तर खास नहीं था और काफी कम काम उत्तराखंड के विकास, इतिहास, संस्कृति और समाज पर कोई खास काम नहीं हुआ है.

उत्तराखंड एक तरह से शिक्षा का ‘हब’ है. स्कूली शिक्षा को देखें तो देश के सर्वश्रेष्ट स्कूल उत्तराखंड में है. लेकिन जब उच्च शिक्षा का सवाल आता है तो एक भी ऐसा विश्वविद्यालय या कॉलेज नहीं है जहाँ क्वालिटी एजुकेशन हो. खुद उत्तराखंड के नौजवान उच्च शिक्षा के लिए बहार पलायन करते हैं. उत्तराखंड में कुछ निजी विश्वविद्यालय भी खुले हैं पर इनमें से अधिकांश व्यवसाय के रूप में ही कम कर रहे हैं – कुछ अपवाद जरूर हैं. लेकिन ऐसा कोई उच्च शिक्षा सस्थान नहीं है जो बाहर के लोगों को तो क्या स्वयं उत्तराखंड के लोगों को आकृष्ट करे.

जब मैं उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय का कुलपति था, तो मैंने उच्च शिक्षा मंत्रालय को सलाह दी थी कि उत्तराखंड के सभी विश्वविद्यालयओं में जितने भी पीएचडी के सुपरवाइजर हैं उनका एक सेमिनार किया जाये और अनुसन्धान को लेकर कुछ गाइडलाइन्स विकसित की जाएँ जिससे अनुसन्धान को उत्तराखंड से जुड़े मुद्दों पर केन्द्रित किया जा सके. इस दिशा में कदम उठाना जरुरी है वरना राजनीतिक नेतृत्व को दिशा कैसे मिल पायेगी? जब से यह राज्य बना है सरकारें आती रहीं जाती रहीं पर अब तक इस राज्य को लेकर विकास का विज़न विकसित नहीं हो पाया है. ऐसे में राजनीतिक नेतृत्व को अनुसन्धान से प्राप्त इनपुट्स के आधार पर विकास का मॉडल विकसित करने में मदद मिलेगी.

उत्तराखंड की उच्च शिक्षा के अन्य पहलू और भी बुरी हालत में हैं. राज्य बनाने से ही कहीं ऐसा कुछ नहीं दिखता की राजनीतिक नेतृत्व ने उच्च शिक्षा को लेकर किसी विज़न का परिचय दिया हो. राज्य विश्वविद्यालयों के मजबूत करने के बजे नए नए डिग्री कॉलेज खोले गया जहाँ जा तो छात्र हैं और न ही शिक्षक. सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के लिए उच्च शिक्षा की दिशा और दशा सुधरने के बजाय बिगडती चली गयी. जो भी उच्च शिक्षा संस्थान उत्तराखंड को मिले, इनकी हालत सुधरने के बजे बिगड़ती चली गयी.

दून विश्वविद्यालय को बड़े सपने के साथ खड़ा किया गया था और शुरुआत भी अच्छी हुयी पर बाद में सब निराशाजनक होता चला गया. ऐसा कोई प्रयास नहीं किया गया कि फैकल्टी में अच्छे शिक्षाविद लायें जाएँ. आज पूरे उत्तराखंड में क्या कोई ऐसा अर्थशास्त्री है जिसने अलग कुछ किया हो और क्या ऐसा कोई राजनेता है जिसने कभी अपनी नीतिओं को बनाने के लिए कभी किसी शिक्षाविद या विशेषज्ञ से सलाह मशविरा किया हो. उत्तराखंड की उच्च शिक्षा इस मामले में विफल रही है.

उच्च शिक्षा को विकास के केंद्र में रखना होगा इसके लिए उच्च शिक्षा में आमूलचूक परिवर्तन करने होंगे. शिक्षा का बजट बढ़ाना होगा. इसे इसके उचित स्थान पर लाना होगा. देश दुनिया से फैकल्टी बुलानी होगी. नामी शिक्षाविद विज्ञापन के माध्यम से आवेदनपत्र देकर नहीं आते, उन्हें लाना पड़ता है. देश के अनेक विश्वविद्यालों में यही परंपरा रही है और इसी तरह विकसित हुए हैं. कहते हैं की अगर किसी समाज को ध्वस्त करना हो तो शिक्षा को ध्वस्त कर ये काम आसानी से किया जा सकता है.

उच्च शिक्षा पर सस्ती राजनीति कितनी हावी रही है की इस बात का अनुमान इससे ही लगाया जा सकता है कि उत्तराखंड के कई पुराने-नामी महाविद्यालयों में क्षमता से कई गुना अधिक प्रवेश होते हैं. प्राइवेट छात्रों की व्यवस्था तो निराली थी और उच्च शिक्षा के साथ इससे बड़ा मजाक नहीं हो सकता. विश्वविद्यालयों को “डिग्री डिस्ट्रीब्यूशन एजेंसी” बना कर रख दिया गया. जनवरी में फॉर्म भरिये और कुंजी पढ़कर जून में परीक्षा और सभी पास! इस तरह की व्यवस्था को ख़त्म करने के लिए बहुत विद्वता की जरुरत नहीं पर उत्तराखंड के शासन को इस जरुरी फैसले को करने में बहुत समय लगा और वो भी तब जब उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय ने उच्च और दूरस्थ शिक्षा में उदय में बाद इसे ख़त्म करने के लिए आवाज उठाई.

पंतनगर एक ज़माने में आई.आई.टी. के टक्कर का सस्थान था और आज उसका क्या हाल हो गया है. कुमायूं विश्वविद्यालय आगे बढ़ने के बजाय नीचे ही जाता रहा. गढ़वाल को केंद्र को भेंट कर दिया गया. कुछ नए विश्वविद्यालय बने पर कुछ खास नहीं कर पाए.
डिग्री कॉलेज भरे बड़े हैं. आज जरुरत इस बात की है कि हर जिले में एक डिग्री कॉलेज को चिन्हित किया जाये और इसे एक Centre of Excellence के रूप में विकसित किया जाये जिसमें आधुनिक टेक्नोलॉजी के संसाधन हों, हॉस्टल हों और कम आय के लोगों के लिए फेलोशिप्स का प्रावधान हो ताकि जिले के सभी नौजवानों को क्वालिटी उच्च शिक्षा की सुविधा हो. कॉलेज में योग्य छात्र आएं, इसके लिए विद्यालय स्तर की शिक्षा को मजबूत किया जाये.

क्वालिटी शिक्षा के लिए अच्छी फैकल्टी का होना जरुरी है. इसके लिए भी इए नीति बनाने की जरुरत है. विश्वविद्यालय के स्तर पर देश भर से अच्छे शिक्षाविदों को गेस्ट/सम्बद्ध फैकल्टी में रूप में जोड़ा जाये. विश्व विद्यालय और कॉलेज के शिक्षकों के लिये फैकल्टी डेवलपमेंट प्रोग्राम शुरू किये जाएँ. आज के दौर में शिक्षण – प्रशिक्षण के तौर तरीके बदल चुकें हैं. अब फैकल्टी को नयी टेक्नोलॉजी के माध्यम से शिक्षण – प्रशिक्षण देना होगा और इसके लिए सबसे पहले उनका खुद का प्रशिक्षित होना जरुरी है. शिक्षा के नए क्षेत्र उभर रहे हैं, इनमें नए पाठ्यक्रमों को धुरी करने की जरुरत है.

विश्वविद्यालयों में तीन तरह के कोर्स शुरू करने की जरुरत है :
अकादमिक कोर्सेज : एम.ए., एम फिल और पीएचडी
प्रोफेशनल कोर्सेज : इनका फोकस विभिन्न प्रोफेशन पर हो जैसे मैनेजमेंट, जर्नलिज्म और मास कम्युनिकेशन, इनजीरिंग, मेडिकल आदि
वोकेशनल कोर्सेज : इनका मकसद स्किल डेवलपमेंट पर हो ताकि छात्रों के रोजगार के लायक बनाया जा सके.

इन सब उद्देश्यों की पूर्ति के लिए एक बहुआयामी रणनीति बनानी होगी और देश-विदेश के विशेषज्ञों को उत्तराखंड की उच्च शिक्षा से जोड़ना होगा. कुछ करना है तो कूपमंडूप बनकर नहीं रहा जा सकता.


प्रो. सुभाष धूलिया

प्रो.धूलिया देश के सबसे बड़े मीडिया विशेषज्ञों में गिने जाते हैं. उन्होंने IGNOU तथा IIMC जैसे अनेक संस्थानों में मीडिया का अध्यापन किया है. उत्तराखण्ड मुक्त विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति रह चुके प्रो. धूलिया ने मीडिया के विषय पर अनेक पुस्तकें लिखी हैं.

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