सन 2008 में प्रकाशित चर्चित उपन्यास ‘दावानल’ मैं कई बार पढ़ चुका हूँ. इसे पढ़ने में हर बार एक नया अहसास होता है. पहाड़ की सुंदरता दिखाने वाले वीडियोज हम हर तरफ देखते रहते हैं, रंगीन पत्रिकाओं और अखबारों में भी पहाड़ के सुंदर चित्र बड़े चित्ताकर्षक लगते हैं. लेकिन बाहर से दिखने वाली इस सुंदरता के पीछे पहाड़ के कितने गहरे दर्द, संताप और पीड़ा बसती है यह समझने के लिए ‘दावानल’ उपन्यास पढ़ा जाना चाहिए. इस उपन्यास में नवीन जोशी जी ने न सिर्फ पहाड़ में रहने वाले लोगों की परेशानियों को सामने रखा है, बल्कि पहाड़ से दूर रहकर मैदानी शहरों में ‘एक छोटा पहाड़’ बसाने वाले प्रवासी पहाड़ियों के आपसी जुड़ाव, उनके दुख-दर्द और अपनी जड़ों के प्रति प्रवासियों के गहरे अनुराग को भी बखूबी दर्शाया है.
यह उपन्यास ‘चिपको आन्दोलन’ से पैदा हुई चेतना और इस आंदोलन के प्रभावों को बहुत साफगोई से सामने रखता है. इसे पढ़कर हमें पता चलता है कि स्वरोजगार की खातिर अपने आसपास के जंगलों से ‘अंगू’ के पेड़ लेने की अनुमति न मिलने पर सर्वोदयी नेताओं ने जो जागरूकता अभियान शुरू किया उसी के परिणामस्वरूप अचानक एक दिन एक छोटे गांव से किस तरह ‘चिपको आंदोलन’ शुरू हुआ. पेपर मिलों के ठेकेदार और उनके मजदूरों की आरियों-कुल्हाड़ियों के सामने कैसे रैणी गांव की महिलाएं गौरा देवी की अगुवाई में स्वतःस्फूर्त तरीके से एकत्र हुईं. हड़बड़ाहट में लगभग दो दर्जन महिलाओं को जंगल कटने से बचाने का जब कोई रास्ता समझ नहीं आया तो उन्होंने पेड़ों को ही ‘अंग्वाल’ डाल दी और यह चिपको आंदोलन की शुरुआत थी. बाद में आम जनता ने इस अनूठे तरीके से पूरे पहाड़ के जंगलों को कटने से बचाया. इसी उपन्यास के कुछ पन्नों में गौरादेवी और उनकी साथियों से ‘चिपको आंदोलन’ का श्रेय छीनकर पुरस्कार बटोरने वाले पर्यावरणविदों की सच्चाई भी सामने आती है.
पुष्कर इस उपन्यास का केंद्रीय पात्र है. उपन्यास का कालक्रम 1980 का दशक है. यह वो दौर है जब पहाड़ से पूरा परिवार पलायन नहीं करता था. पुरुष मैदान में रहकर काम करता था, महिलाएं पहाड़ में ही रह जाती थी. बहुत हुआ तो बच्चों को बेहतर शिक्षा के लिए पिता के साथ बड़े शहरों में ले जाया जाता था. पुष्कर के पिता नन्दाबल्लभ तिवारी लखनऊ में छोटे स्तर के सरकारी कर्मचारी हैं जो ‘थोड़ी अतिरिक्त कमाई’ के लिए सुबह 4 बजे उठकर साइकिल से अखबार भी बांटने जाते हैं. 6 साल की उम्र में पुष्कर भी अपने पिता के साथ लखनऊ चला जाता है, गांव में रह जाती हैं उसकी माताजी और दीदी.
उपन्यास के शुरुआती हिस्से में लखनऊ की कैनाल कॉलोनी में प्रवास में रह रहे पर्वतीय समाज के लोगों के बीच की घनिष्टता और परस्पर निर्भरता का सजीव खाका खींचा गया है. पुष्कर एक ऐसा माहौल में बड़ा होता है जहां पड़ोस ही उसका परिवार है. पड़ोस की ताईजी से उसे माँ का दुलार मिलता है तो उनके बच्चों से भाई-बहन का प्यार. पुष्कर के पिता सुबह 4 बजे से शाम तक कड़ी मेहनत करते हैं ताकि उसकी दीदी की शादी के लिए पैसे जुटाए जा सके, किसी से कर्ज लेने की सूरत न आए. हर साल ‘असौज’ के महीने में गांव के कामकाज में हाथ जुटाने पुष्कर के पिताजी कुछ समय के लिए गांव जा पाते हैं. पुष्कर भी सिर्फ गर्मियों की छुट्टियों में गांव जाकर अपनी माताजी से मिल पाता है.
हाईस्कूल में पढाई के दौरान गर्मी की छुट्टियों में पुष्कर अपनी माँ के साथ छुट्टियां बिताने अपने गाँव जाता है. पड़ोस में रहने वाली अनुली बुआ से पहाड़ के दुखदर्द सुनकर संवेदनशील और सजग पुष्कर के कोमल हृदय में पहाड़ के लोगों के दर्द को कम करने के लिए कुछ कोशिश करने का ख्याल जन्म लेता है, लेकिन उस समय पुष्कर को कोई रास्ता समझ नहीं आता.
मई 1977 में पुष्कर की जिंदगी में एक महत्वपूर्ण मोड़ तब आता है जब वह बीएससी प्रथम की परीक्षाएं देकर गांव जाने के लिए हल्द्वानी पहुंचता है और एक पर्चे में उस दिन नैनीताल में ‘चुनाव बहिष्कार’ पर विचार-विमर्श के लिए होने जा रही एक बैठक की सूचना पर बिना कुछ सोचे समझे नैनीताल पहुंच जाता है. यहां से उपन्यास वास्तविकता और थोड़ी सी काल्पनिकता को साथ लेकर आगे बढ़ता है. नैनीताल पहुंचकर पुष्कर की जनकवि गिर्दा से और उनके साथियों से मुलाक़ात होती है और पुष्कर उनके साथ पहाड़ के सुख-दुख का साथी बन जाता है.
उपन्यास ‘चिपको आंदोलन’ के साथ साथ पहाड़ के कोने कोने में उभर रहे तत्कालीन आंदोलनों को उनके वास्तविक चरित्रों के साथ सामने लाता है. हालांकि, कुछ व्यक्तियों के नाम में थोड़ा फेरबदल की गई है. चिपको आंदोलन से शुरू हुई जनचेतना ने उत्तराखंड के कोने-कोने में और भी कई छोटे-बड़े आंदोलनों के लिए आधार तैयार किया, यह सब इस उपन्यास में सिलसिलेवार दर्ज है. गढ़वाल-कुमाऊं के पर्वतीय इलाकों के साथ साथ उत्तराखंड की तराई में बसे बिंदुखत्ता के किसानों की लड़ाई और देवाल (चमोली) में सड़कों के निर्माण में रोड़ा बन रहे पेड़ों को खुद काटने के लिए एकजुट हुए जनता का सशक्त पक्ष भी उपन्यास का मजबूत हिस्सा है.
उपन्यास के पन्नों के बीच से गुजरते हुए पहाड़ का हर दर्द दिल को उद्वेलित तो करता ही है, साथ ही पुष्कर के जीवन की उठा-पठक भी पाठक के मन को कोमलता से स्पर्श करती है. पुष्कर के माता-पिता के साथ उसके भावनात्मक सम्बन्धों को लेखक ने बहुत मार्मिकता से प्रस्तुत किया है. उन लोगों को यह उपन्यास जरूर पढ़ना चाहिए जो उत्तराखंड के जनसंघर्षों के इतिहास को समझने की चाह रखते हैं. यह उपन्यास उन लोगों को भी जरूर पढ़ना चाहिए जो पहाड़ की पीड़ा को दिल से महसूस करते हैं, जो पहाड़ के संघर्षों से खुद को जुड़ा महसूस करते हैं.
304 पृष्ठों का यह उपन्यास कई वेबसाइट्स पर ऑनलाइन भी उपलब्ध है. प्रकाशक का पता है –
सामयिक प्रकाशन
3320-21, जटवाड़ा, नेताजी सुभाष मार्ग
दरियागंज, नई दिल्ली – 110002
फोन – 011-23282733
हेम पंत मूलतः पिथौरागढ़ के रहने वाले हैं. वर्तमान में रुद्रपुर में कार्यरत हैं. हेम पंत उत्तराखंड में सांस्कृतिक चेतना फैलाने का कार्य कर रहे ‘क्रियेटिव उत्तराखंड’ के एक सक्रिय सदस्य हैं .
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