उत्तराखंड का एक नाम देवभूमि भी है. अगर हम प्राचीन काल की कथाओं में देखें तो शायद ही कोई कथा हो जिसके तार यहां से नहीं जुड़ते हैं. ऐसा ही एक मंदिर है जागेश्वर का जिसे दंडेश्वरमहादेव के नाम से अधिक जानते हैं.
यह जगह अल्मोड़ा से 38 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है, मंदिर परिसर के चारों तरफ देवदार के घने जंगल हैं, मंदिर में बैठे हुए आप यहां की सुंगधित मनोहर छटा का आनंद ले सकते हैं. यहां पर एक छोटी सी किताब की दुकान है जहां पर क्षेत्रीय जानकारी से जुड़ी किताबें मिल जाती हैं.
इसे उत्तराखंड का पांचवाँ धाम भी कहते हैं यहां पर कुल मिलाकर 124 मंदिरों का समूह हैं. दंडेश्वर महादेव मंदिर परिसर में एक मुख्य मंदिर और चौदह अधीनस्थ मंदिर है, ज्यादातर मंदिरों में शिवलिंग और कुछ में चतुर्मखलिंग स्थापित है.
इस मंदिर से एक दंतकथा इस प्रकार जुड़ी है कि प्राचीन समय में कभी शिवजी यहां तपस्या करने आये थे. ऋषियों की पत्नियों शिव के नीले स्वरूप पर मोहित हो गयी, यह बात ऋषि गणों को रास नहीं आयी और द्वेष स्वरूप उन्होंने शिवजी को शिला होने का श्राप दे डाला. तब से यह जगह तीर्थ स्थल हो गई है. इसी तीर्थत्व के कारण श्रावण मास में यहां पूरे महीने उत्सव मनाया जाता है, इसमें शामिल होने के लिए लोगों का समूह आसपास ही नहीं वरन दूर-दूर से आता है.
यहां पर लोगों का आने का एक मुख्य कारण तो पर्यटन ही है ऐसी अलौकिक सुंरदता हर जगह कहाँ, परंतु तीर्थत्व के कारण यहां कर्मकाण्ड और पार्थिव पूजन हवनादि पुजारियों की आजीविका के स्रोत बने हुये हैं।हरिद्वार के मुकाबले यहां आना आस-पास के लोगों के लिए सरल और सस्ता है. और इसकी धार्मिक मान्यता और तीर्थों से कम भी नहीं है. विदेशी पर्यटकों का भी यहां हुजूम बना ही रहता है वे कहां कम प्रकृति प्रेमी हैं.
यहां पर दो मंदिर विशेष है, पहला शिव का और दूसरा शिव रूप में महामृत्युञ्जय का. इतिहासकारों के अनुसार इसे कत्यूरी राजाओं ने 8वीं से 10वीं सदी में बनाया था. स्थानीय निवासियों के अनुसार इसे पांडवों ने अपने बनवास के समय शिवजी की आराधना के लिए बनाया था. बहरहाल सच जो भी हो, बनाया जिसने भी हो, बनाया अद्वितीय है.
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हल्द्वानी के रहने वाले नरेन्द्र कार्की हाल-फिलहाल दिल्ली में रहते हैं.
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