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संविधान दिवस पर एक सरकारी सेवक कम लेखक का आत्मालाप

लिखना अपने होने को तस्दीक करना है Constitution Day Special Amit Srivastava

हम क्यों लिखते हैं इससे पहले ये जानना ज़रूरी है कि वो क्या है जो हमें लिखने से रोकता है. कोई नियम, कोई क़ानून, कोड ऑफ़ कंडक्ट, क्या? मैं बताऊँ कि साहित्यिक अभिव्यक्तियों के लिए ये नियम बहुत झीने और सब्जेक्टिव हैं. आज़ादी के पहले जिन कहानियों को लिखने पर आप पर कार्यवाही हो सकती थी आज ऐसा नहीं है. कभी-कभी किसी राजनैतिक दल की सरकार में लिखना आसान होता है किसी-किसी में नहीं. लेकिन आज़ादी के बाद और पिछले दो-तीन दशकों में विशेष तौर से हम लगातार उन स्थितियों से निजात पा रहे हैं जो एक सरकारी कर्मचारी को उन जानकारियों को जनता के साथ साझा करने से रोकती थीं, जो उसके पास सरकार का एक अंग होने की वजह से हैं. फिर ऐसा क्या है जो हमें रोकता है. हमारी अपनी सुविधाजनक स्थितियां, हमारा अपना कम्फर्ट ज़ोन! हम अक्सर उससे बाहर नहीं आना चाहते. हम अपनी खामियां उजागर नहीं करना चाहते क्योंकि हमें लगता है कि कहीं तबादला न हो जाए, कहीं कोई वरिष्ठ खफ़ा न हो जाए. फील्ड में रहते हुए काम करते हुए जनता के साथ सीधा जुड़कर हमें किसी अन्य सेवा के लोगों से ज़्यादा एक्सपोज़र मिलता है लेकिन हम अक्सर जो एक्सपीरिएंस करते हैं वो बोलते नहीं. हमें एक्सपीरिएंस से डर नहीं लगता साहेब एक्सप्रेशन से लगता है. इसलिए हम ऐसी बहुत सी परिस्थितियों से समझौता करने लगते हैं या देखकर भी अनदेखा करते हैं जो एक व्यक्ति के तौर पर हमें ग़लत लग सकती हैं. Constitution Day Special Amit Srivastava

दूसरी बात जो मेरे ख्याल से ज़्यादा महत्व की है वो ये कि सरकारी तन्त्र जिसे आप चलताऊ भाषा में  सिस्टम कहते हैं वो हमारी सोच को इंस्टिट्यूशनलाइज़ करता है, बांधता है. हम एक व्यक्ति की तरह नहीं एक संस्था या समूह की तरह सोचने लगते हैं. यू आर रीडिज़ाइन्ड एंड रीअसेम्बल्ड एज़ ए कॉग ऑफ़ ए मशीन, जब आप सरकारी सेवा में आते हैं. मेरे लिए लिखना अपने होने को तस्दीक करना भी है. हमें पोलिटिकली स्टर्लाइज्ड होना है हम ह्यूमनली स्टर्लाइज्ड होने लगते हैं. एक उदाहरण से शायद बात समझ में आए. जमरानी बाँध बनना चाहिए या नहीं इसपर हम शायद हम कुछ न बोल पाएं क्योंकि वो सरकार का निर्णय होगा लेकिन एक आम आदमी को, किसान को पीने, खेती के लिए पानी चाहिए ये तो हम कह ही सकते हैं. या दूसरी ओर पर्यावरण को संरक्षित किया जाना चाहिए ऐसा कहने से हमें कोई नियाम या क़ानून नहीं रोकता. मैं ये सब इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि साहित्य अंततः एक अभिव्यक्ति ही है औरे मेरे लिए उसका उद्देश्य स्वान्तः सुखाय होते हुए भी कहीं लोक में ही है.

तीसरी बात जो मैं कहना चाहता हूँ वो ये है कि हमें कितना और कैसे बोलना है सारी लड़ाई वहां हो जाती है. यही हमारी सबसे बड़ी चुनौती भी है. अमूमन देश, काल, समाज, तकनीक और भाषा की परिस्थितियाँ इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं. देश, काल की बात पहले हो चुकी है. भाषा की बात अगर करें तो मुझे लगता है कि जितना अवमूल्यन हमारे समय में भाषा का हुआ है उतना शायद ही किसी चीज़ का हुआ हो. और उसके दो सबसे बड़े कारक शासन और मीडिया आज यहाँ एक ही प्लेटफ़ॉर्म पर हैं. खैर! ये हमारे विचार का फिलहाल विषय नहीं है. साथ ही साथ ये भी कहूं कि ये लेखक की अपनी क्षमता और चुनाव की बात भी है. तकनीक से मेरा अभिप्राय यहाँ सिर्फ सूचना प्रौद्योगिकी से है. फेसबुक, ट्विटर, वाट्सऐप के ज़माने में जब साहित्य लाइब्रेरी से निकल कर आपकी जेबों में पहुँच रहा है उँगलियों पर नाच रहा है ये लड़ाई और भी महत्वपूर्ण और शायद आसान भी हो जाती है क्योंकि सरकारी फाइलों से कहानियों को निकल कर पाठक तक पहुँचने में बहुत कम समय लगता है. Constitution Day Special Amit Srivastava

एक और बड़ी चुनौती जनता के पर्शेप्सन की भी है. अवधारणा जो अक्सर पक्षपातपूर्ण होती है. प्रेजुडाइज्ड. मेरा कवि मेरे पुलिसवाले के साथ कभी द्वंद्व में नहीं रहता लेकिन जनता की अवधारणा में रहता है. च्च च्च! अजीब पुलिसवाला है जो कविता करता है. कविता यहाँ ‘करने’ की चीज़ हो जाती है. यहाँ तक कि कवि-बिरादरी भी शक़ की निगाह रखती है हुंह! पुलिसवाला है कविता क्या लिखेगा! उधर महकमा दया दृष्टि फेरता है भई! कवि आदमी है. तो ये जो अवधारणा है वो छुरी है जो दोनों तरफ से धारदार है. लेकिन बात वही है, जिसे लिखना है वो लिखेगा.   Constitution Day Special Amit Srivastava

आलोक धन्वा की जिलाधीश कविता से शब्द लूं तो सरकारी अधिकारी ‘दूर किसी किले में ऐश्वर्य की निर्जनता में नहीं हमारी गलियों में पैदा हुआ लड़का है’… जी हाँ हम भी इसी समाज से हैं. यहाँ के हर्ष-विषाद-शोषण-असफलताएं-विडम्बनाएं सबके साक्षी रहे हैं. अक्सर ये हमारा भोगा हुआ यथार्थ भी है. फिर हम उसे अभिव्यक्त क्यों नहीं कर सकते. लेकिन अगर कहीं हमें अनुभूति और अभिव्यक्ति में कोई द्वंद्व दिखता है तो हमारे लिए हमारी गीता रास्ता दिखाती है. वो संविधान है. वही हमारा रामायण वही कुरआन है. क्योंकि हम जिस सरकार की नुमाइंदगी करते हैं उसे भी अपनी मूलभूत सैद्धांतिक शक्तियाँ वहीं से मिलती हैं. अगर उसके बाद भी अगर कहीं कुहासा रह जाता है तो कृष्ण तो हैं ही यानि कि आप, हमारे पाठक, हमारी जनता.

-अमित श्रीवास्तव

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अमित श्रीवास्तवउत्तराखण्ड के पुलिस महकमे में काम करने वाले वाले अमित श्रीवास्तव फिलहाल हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात हैं.  6 जुलाई 1978 को जौनपुर में जन्मे अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी तीन किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता) और पहला दखल (संस्मरण) और गहन है यह अन्धकारा (उपन्यास). 

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