28 जुलाई 2019 को पर्वतों की रानी मसूरी में देश के 11 पर्वतीय राज्यों को ग्रीन बोनस व हिमालयी राज्यों को प्राथमिकता दिए जाने पर बैठक प्रस्तावित है. नीति आयोग के सदस्यों के साथ प्रधानमंत्री कार्यालय के प्रतिनिधियों, छः पर्वतीय राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के इस एक दिवसीय विचार विमर्श में उपस्थित रहने की संभावना है.
जम्मू कश्मीर, उत्तराखंड, आसाम, हिमाचल प्रदेश, मेघालय, सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश, त्रिपुरा, नागालैंड, मिजोरम व मणिपुर के प्रतिनिधि इस बैठक हेतु आमंत्रित किए गए हैं. इन 11 पर्वतीय राज्यों की विशिष्ट भौगोलिक बनावट, दुरुहता, दुर्गमता व अंतर्संरचनात्मक कमियों के साथ अवस्थापना के दोषों से जिन विकट समस्याओं का अनुभव किया जा रहा है, उन्हें समझने और उनके समाधान का यह बेहतर अवसर साबित हो सकता है. 11 राज्यों के प्रतिनिधि अपने पर्वतीय राज्यों द्वारा भोगी जा रही समस्याओं व इनके निदान हेतु व्यावहारिक, दृश्य व सारगर्भित सामाजिक योजनाओं का खाका प्रस्तुत करेंगे जिसे पर्वतीय विकास की रणनीति बनाने हेतु नीति आयोग के सम्मुख रखा जाएगा.
हिमालयी राज्यों में असंतुलित विकास के तनाव- दबाव एवं कसाव है. न्यून रोजगार संतुलन की दशा है. संसाधनों की या तो बंदरबांट है या बेरहमी के साथ उपयोग. फिर अवस्थापना की दोष हैं जिनसे मानव संसाधन विगलित अवस्था में दिखाई दे रहे हैं. सबसे बड़ी समस्या तो रोजगार पाने के लिए स्थानीय निवासियों द्वारा किया गया प्रवास है. इससे परंपरागत व्यवसाय व स्थानीय अर्थव्यवस्था चौपट हो गयी है.लोक थात व लोक शिल्प का अधःपतन जारी है.ऐसे में अपने राज्यों की वित्तीय स्थिति मजबूत करने के इरादे से पर्वतीय क्षेत्र अपनी नैसर्गिक प्राकृतिक संपदा द्वारा प्रदान की जा रही पारिस्थितिकी सेवाओं के बदले हरित लाभांश या ग्रीन बोनस पाने के लिए एकजुट है.
अधकचरे वन कानून क्रियान्वयन, हक हकूक की उपेक्षा, वनवासियों की व्यथा तथा वन महकमे के पाश में फंसी जल- जमीन- जंगल की त्रासद कथाओं से हिमालय में न तो पर्यावरण का अनुकूलतम संवर्धन हुआ और न ही समुचित संरक्षण. ग्लेशियर सिमट कर रौखड़ बने, बुग्यालों का आकार सिकुडता रहा, फ्लोराफ़ोना बर्बाद होता रहा. अब पर्वतीय प्रदेश इस हरित संपदा के द्वारा देश को शुद्ध वायु, सदानीरा जल व बची-खुची प्रदूषण से मुक्त धरा के विकास के लिए ग्रीन बोनस की पैरवी कर रहे हैं.
एक दिवसीय सम्मेलन में पर्वतीय प्रदेशों को विशिष्ट दर्जा दिए जाने की मांग भी प्रस्तावित है. उत्तराखंड को भी 14वें वित्त आयोग में विशेष दर्जा न मिल पाने का मलाल है. सम्मेलन में नीति आयोग व प्रधानमंत्री कार्यालय के अधिकारियों को मुख्यमंत्रियों व खासकर वित्त मंत्री की अध्यक्षता से स्पष्ट व दो टूक नीति का समर्थन मिले आशा स्वाभाविक है. वह पर्वतीय प्रदेश की पीड़ा को समझें और उनकी तर्कसंगत समाधान की योजना बनाएं दुधारी तलवार पर. कारण बस वही कि विकास और पर्यावरण के मुद्दे एक दूसरे के विरोधाभासी होते हैं. पिछले 5 वर्षों में यह विरोध और अधिक लोचदार भी हो गया है. इनके निदान के लिए एक बेहतर व कारगर समंजन व संवाद समायोजन की आवश्यकता होती है जिसके लिए आंचलिक विशिष्टताओं व स्थानीयता कि गहरी समझ व संवेदनशीलता होनी जरूरी है.
पर्वतीय राज्यों की विकास की रणनीति बनाते हुए हिमाचल में डॉ यशवंत सिंह परमार की दूरदर्शिता को स्मरण करना जरूरी है. वह हिमाचल की मुख्यमंत्री तब बने जब कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व इस बात पर सहमत हो गया कि हिमाचल के साथ जोड़ दिए गए मैदानी भूभाग को अलग कर दिया जाएगा. इसके परिणाम स्वरूप पंजाब राज्य पुनर्गठन अधिनियम 1966 में संशोधन कर पेप्सू रियासत कहा जाने वाला संपूर्ण मैदानी क्षेत्र पंजाब को वापस लौटा दिया गया और विशुद्ध रूप से हिमाचल पहाड़ी राज्य बना.
दूरदर्शी निर्णय के दूरगामी परिणाम आज सामने हैं. मानव जीवन निर्वाह निर्देशांक में हिमाचल अन्य पहाड़ी क्षेत्रों की सापेक्ष कहीं आगे है. भूमि प्रबंधन, सरकारी नौकरी में आरक्षण, उच्च हिमालयी व दुर्गम क्षेत्रों संबंधी राज्य कर्मचारियों की सेवा शर्तें शुद्ध पहाड़ी राज्य होने से केंद्रीय अनुदान, पहाड़ बनाम मैदान की खींचतान जैसे बहुविध मसलों में हिमाचल उत्तराखंड की तुलना में तनाव मुक्त रहा.
इसके विपरीत स्थिति रही उत्तराखंड की. राज्य परिसीमन आयोग की सिफारिशों के चलते उत्तराखंड की अपेक्षा आवश्यकताओं के विरुद्ध राज्य विधानसभा में यहां का प्रतिनिधित्व घट जाने से जनता व जनप्रतिनिधि के बीच की दूरियां बढ़ती गई. समस्त हिमालयी राज्यों में उत्तराखंड में उदाहरण है जिसे हिमालय के संदर्भ से काटकर देखा जाता है. इसकी गिनती अन्य हिमालयी राज्यों के साथ हुई ही नहीं, और न इसे वैसी केंद्रीय सहायता का हकदार समझा गया.
फिर जम्मू कश्मीर से लेकर त्रिपुरा व मिजोरम तक फैले हिमालयी क्षेत्र के सभी राज्यों में चीन ( तिब्बत) नेपाल जैसी अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं से घिरा होने के बावजूद उत्तराखंड अकेला ऐसा राज्य है जिसके निवासियों के लिए कोई संवैधानिक व्यवस्था नहीं की गई है. जबकि हिमालय क्षेत्र के अन्य राज्यों के लिए संविधान के अनुच्छेदों के अधीन प्रावधान किए गए जिनसे उन राज्यों की मूल निवासियों को अनेक सुविधाएं व रियायतें मिली.किसी सीमा तक वहां की सभ्यता, संस्कृति व परंपराओं के संरक्षण की भी पहल की गई. हिमाचल में ही ऐसे अनेक प्रावधान लागू है जिनके अधीन वहां के मूल निवासियों को प्राप्त पुश्तैनी हक-हकूकों का अतिक्रमण कोई बाहरी व्यक्ति नहीं कर सकता.
हरित अनुदान मिले तो ठीक, साथ ही लोक थात, लोक शिल्प की विरासत भी आगे बढ़े. ऐसा प्रबल प्रयास हो जाता अगर! गांव आबाद रहें, प्रवास घट जाए, प्रकृति का कोप थम जाए. यही सपना देखता है हिमालय. पर क्या धारक क्षमता का अध्ययन किए बिना प्रकृति के कोप से बचना इतना आसान होगा.
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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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