सुभाष तराण

स्थानीयता के बिना संस्कृति को बचाने की कवायद

बाकी देश में दीवाली भले ही कार्तिक माह के दौरान पड़ने वाली अमावस्या को मनाई जाती हो लेकिन उत्तराखंड की राजधानी देहरादून के जन-जातीय क्षेत्र जौनसार बावर के बहुत से गाँवों के साथ-साथ महासू क्षेत्र के ज्यादातर हिस्सों, जिसमें हिमाचल के सिरमौर जिले का भी एक बड़ा भाग शामिल है, यह ठीक एक माह बाद मार्गशीष महीने के दौरान पडने वाली अमावस्या को मनाई जाती है. बूढ़ी दीवाली के नाम से जाना जाने वाला यह पर्व टौंस यमुना घाटी में फैले महासू क्षेत्र की अनूठी साँस्कृतिक धरोहर का प्रतीक है. इस इलाके के कृषि और पशुपालक समाज का प्रत्येक मेला और त्यौहार, फसलों और पशु उत्पादों के आगमन की खुशी में महासू बंधुओं और उनके नायबों को समर्पित रहता है. मौसमी विविधताओं के चलते उंचाई वाले इन ईलाकों में फ़सलों की देरी से आमद के चलते ही यहाँ माह भर बाद यह बूढ़ी दीवाली मनाई जाती है. तीन से पाँच दिन तक मनाए जाने वाली यहाँ की दीवाली बाकी देश में मनाई जाने वाली दीवाली से बिलकुल भिन्न है.

महासू क्षेत्र का बाशिन्दा होने के चलते मुझे भी अपने यहाँ मनाए जाने वाले मेलों-ठेलों और बारों-त्योहारों का बड़ी बेसब्री से इंतजार रहता है. हालांकि महासू क्षेत्र के बहुत से अन्य गाँवों की तरह मेरे अपने गाँव में भी यह पारंपारिक पर्व अब नहीं मनाया जाता लेकिन मेरे पड़ोस की पट्टी भरम के लोग अभी भी तीन दिन तक चलने वाले इस त्यौहार को बड़े चाव और धूमधाम से मनाते हैं. ख़ेती-बाड़ी और पशु पालन जैसे पारंपरिक पेशों से जुड़े भरम के सीधे और सरल लोग मेरे पसंदीदा लोगों में से एक है. भरम के बाशिंदों से मेरी आत्मीयता का एक कारण इनका अपनी परंपराओं के प्रति लगाव व चाह भी है. जलसा-पसंद कांडोई-भरम के लोगों के बारे में हमारे क्षेत्र में एक कहावत प्रसिद्ध है कि “कांडोई का नाणसेऊ, होईसे का भूख़ा”, जिसका मतलब यह है कि कांडोई के निवासी, जिन्हे नाणसेऊ कहा जाता है, उल्लास के भूखे होते हैं. ऐसे लोगों के साथ किसी मेले, जलसे या त्यौहार में शिरकत करना अपने आप में एक अनूठे और अद्भुत आनन्द की प्राप्ति जैसा है. इसिलिए मैं पिछले कई सालों से महासू क्षेत्र के इस पारंपारिक पर्व बूढ़ी दिवाली के दौरान हर हाल में इन लोगों के बीच होने की कोशिश करता हूँ. दूर शहर में नौकरी करते हुए पहाड़ के पर्वों में शिरकत करना, वो भी तब जब आपके पर्वों और त्यौहारों के लिए आपके दफ्तर की ओर से कोई अवकाश निर्धारित न हो, अपने आप में एक बहुत बड़ी चुनौती होती है लेकिन इस बार यह सुखद संयोग था कि महासू क्षेत्र का यह पारंपारिक पर्व बूढ़ी दिवाली शनिवार को मनाया जा रहा था.

इस बार की बूढी दीवाली में शामिल होने के लिए एक दिन पहले दिल्ली में अपने दफ्तर से निकलकर देर रात को मित्र रजनीश और चंदन डांगी के साथ जौनसार बावर के करीबी कस्बे डाक पत्थर पहुंचना हुआ. वैसे मेरे व्यक्तिगत निमंत्रण पर साथ आए दोनो मित्रों ने भी पहले भरम की बूढी दीवाली में शामिल होने के लिए हामी भरी थी लेकिन ऐन वक्त पर व्यस्तताओं की वजह से दोनो ने साथ चलने में अपनी असमर्थता व्यक्त कर दी.

अगले दिन दोपहर पार सांय तीन बजे के आस-पास विकास नगर से मित्र प्रशांत की बुलेट पर सवार होकर अपने अगले गंतव्य की ओर कूच कर दिया. आजकल पहाड़ अच्छे खासे सर्द हो चुके है और ऐसे मौसम के दौरान ऊँचे ईलाकों में मोटर साइकिल से सफर करना काफी दुरूह काम होता है लेकिन बर्फीले मौसम को मात देने वाली ऊनी पौशाक के भरोसे मैं बेहिचक होकर खुली हवा में कांडोई भरम की तरफ दौड़ लिया.

चकराता पहुंचते-पहुंचते अच्छी खासी शाम हो चुकी थी. सफर के दौरान रास्ते में पड़ने वाले कालसी, सहिया और चकराता के बाजार क्षेत्र में मनाई जाने वाली बूढी दीवाली के चलते गुलजार नजर आ रहे थे. कांडोई भरम के रास्ते में मेरा पहला पड़ाव कोटी कनासर था जहाँ आगे के सफर के लिए मित्र इंद्र सिंह मेरा इंतजार कर रहे थे.

इंद्र सिंह नंदाण का पुश्तैनी गाँव कोटी त्यूनी चकराता मोटर मार्ग पर स्थित है. चकराता के पश्चिम में ख़डंबा टॉप की उत्तरी ढलान पर कनासर घाटी में देवदार के घने जंगल से अपनी सीमाएं साझा करता कोटी एक बेहद खूबसूरत गाँव है. ग्रेजुएट होने के बाद इंद्र सिंह भी अन्य जौनसारी युवाओं की तरह सरकारी नौकरी की चाह में प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी हेतु कुछ साल दिल्ली में रहे लेकिन शहर की चकाचौंध और भाग दौड़ के चलते पढने लिखने में मन नहीं रमा पाए ओर एक रोज वापिस अपने गाँव लौट आए. उसी दौरान उत्तराख़ण्ड के पर्यटन विभाग और जंगलात महकमें ने इको टूरिज्म को बढावा देने हेतु जंगलों से अपनी सीमाएं साझा करते चकराता क्षेत्र के तीन सीमांत गाँवों, पट्यूड, इंद्रोली और कोटी का चयन कर वहाँ के स्थानीय लोगों को पर्यटन से संबधित प्रशिक्षण का कार्यक्रम शुरू किया था. हालांकि पर्यटन विभाग की इस मुहिम में यहाँ के ज्यादातर लोगों का रुझान सरकार की तरफ से आने वाली ग्रांटों और ठेकों को हासिल करने को लेकर था लेकिन इंद्र सिंह इन क्षणिक लाभों को बजाय पर्यटन विभाग के प्रत्येक प्रशिक्षण में शामिल होकर हॉस्पिलिटी के हर गुर में पारंगत हो गये और भविष्य में यहाँ आने वाले पर्यटकों की मेजबानी को अपना पेशा बनाने की ठान ली.

इंद्र सिंह जौनसार बावर स्थित कोटी गाँव के एक सम्रद्ध परिवार से ताल्लुक रखते हैं. उनके परिवार के पास गाँव के अलावा आस-पास के कई अन्य खेड़ों-मंजरों में भी अच्छी खासी पुश्तैनी जमीन है. इंद्र सिंह का ऐसा ही एक पुश्तैनी खेड़ा है जोईठा. जोईठा कोटी बुल्हाड़ सड़क के शुरू में आधा मील की दूरी पर देवादारों से आच्छादित कनासर घाटी में विद्यमान एक बहुत ही खूबसूरत जगह है. एक जमाने में इंद्र सिंह के दादा ने यहाँ पारंपरिक फसलों से हटकर सेब का बाग लगाया था. लेकिन अब इंद्र सिंह ने इस जगह की दर्शनीय छटा को देखते हुए सेब की आधुनिक किस्मों के साथ साथ इस जगह को स्तरीय सैरगाह की तर्ज पर विकसित करना शुरू कर दिया है. देवदार के जंगल से घिरा जोईठा प्राकृतिक सौन्दर्य से सराबोर एक अद्भुत और आलौकिक जगह है. फिल वक्त जोईठा में इंद्र सिंह के पास सभ्य सैलानियों के लिए दो खूबसूरत फैमिली कॉटेज और एक अस्थाई टैंट कॉलोनी है. इसके अलावा इंद्र सिंह नजदीकी कस्बे चकराता से गर्मियों में दिन के दौरान कनासर घूमने आए पर्यटकों के लिए लंच बुफे भी उपलब्ध करवाते हैं.

कोटी पहुँचने तक अच्छा खासा अंधेरा हो चुका था. कोटी पहुँचने पर इंद्र सिंह के साथ चाय पानी किया गया. संयुक्त परिवार से होने के चलते इंद्र सिंह की भरम खत के लगभग हर गाँव में रिश्तेदारी है. तय यह हुआ कि रात का खाना उनकी बहन के घर पिंगुवा गाँव में खाया जाएगा और थोड़ी देर वहीं आराम करने के बाद रात के तीसरे पहर होलाच (मशाल जूलूस) में भागीदारी हेतु काँडोई गाँव पहुँचा जाएगा. रात के लगभग आठ बजे के आस पास हम लोग जोईठा से बुल्हाड़ मार्ग पर पिंगुवा गाँव की ओर चल दिए.

हम लोग दीवाली की पहली दावत के लिए पिंगुवा के प्रतिष्ठित गजियाण परिवार के मेहमान थे. उन्होने दीवाली मे आए मेहमानों की दावत के लिए बकरा काटा था. भेड़ बकरियों के पालन में समृद्ध भरम क्षेत्र के गाँवों के अधिकतर घरों में दीवाली की दावत के लिए बकरे काटे जाते हैं. पिंगुवा में बहुत से पुराने परिचितों से मिलना हुआ. पिंगुवा में भी खत भरम के सभी गाँवों की तरह बूढी दीवाली का मेला बहुत उल्लास से मनाया जाता है लेकिन हम तो पहले ही कांडोई में मशाल जूलूस में शामिल होने के मंसूबे बना कर आए थे. एक शानदार दावत और लगभग तीन घंटा आराम करने के बाद रात के एक बजे के आस पास जब पिंगुवा के बाशिंदे अपने गाँव के सामुदायिक आँगन मे मशाल जूलूस के लिए जुट रहे थे, ठीक उसी वक्त मैं और इंद्र सिंह गाँव को मुख्य सड़क से जोड़ती पगडंडी पर उपर की ओर बढे जा रहे थे.

जिस वक्त हम लोग काँडोई गाँव के सामुदायिक आँगन में पहुँचे, घड़ी में रात के पूरे दो बज चुके थे. इक्का-दुक्का बच्चों के अलावा आँगन के एक किनारे स्थानिक साधू सिंह बिदियाईक दीवार की टेक लगा कर अकेले बैठे हुए थे. हम पहुँचे तो वे हमे देखते ही चहक पड़े. कहने लगे – मुझे पक्का यकीन था कि आप दीवाली में जरूर आओगे. मैने जब घड़ी की तरफ ईशारा करते हुए उनसे कहा कि इस बार होलाच (मशाल जूलूस) में कुछ ज्यादा देर नही हो गयी तो उन्होंने जवाब में हताशा के साथ अपना दांया हाथ हवा में नचाया और कहने लगे, पंडित जी, हमने तो अपनी आई-गई चला ली, नयी पीढ़ी का हाल आपके सामने है, इन लोगों को पीने-खाने से ही फुरसत नही होती. ये क्या जाने त्यौहार का शौक और महत्व. कुशल क्षेम का दौर चल ही रहा था कि इतने में गाँव के कुछ और बुजुर्ग भी वहाँ पहुँच गये. थोड़ी सी ओर देर के अंदर मशाल लिए बालक , युवा और प्रौढ़ आंगन में एकत्र होने लगे और माहौल एकदम से मैले में तब्दील हो गया.

घड़ी रात के तीन बजाने को थी कि तभी काँडोई गाँव के बाजगियों ने ढोल पर तान छेड़ दी. फिर क्या था. हाथ में थमी मशालें मानो इसी वक्त का इंतजार कर रही थी. ढोल की थाप और उत्साही गीतों की लय में एक दूसरे से आग उधार लेती मशालों ने रात को दिन मे तब्दील कर दिया. दूर से देखने पर ऐसा प्रतीत हो रहा था मानों ढोल दमऊं और रणसिंघे की जुगलबंदी और गीतों की ताल पर पूरा का पूरा काँडोई गाँव सर पर आग लिए नाच रहा हो. मेरी जानकारी में काँडोई भरम सारे महासू क्षेत्र का ऐसा गाँव है जहाँ की दीवाली के दौरान मशाल जूलूस सबसे बड़ा और भव्य होता है.

मशाल जूलूस काँडोई गाँव के निचले आँगन पहुँचने को हुआ कि तभी मेरे एक पुराने परिचित सरिया ने मुझे बताया कि मुझे काँडोई गाँव के बाशिंदे फतेह सिंह शाम से ढूंढ रहे हैं. आँगन में पहुँचने के बाद पहला ही गीत खत्म हुआ होगा कि मेरा वह परिचित मय फतेह सिंह के मेरे पास आ गया. दुआ सलाम के बाद फतेह सिंह ने बताया कि मुझे अभी के अभी उनके घर चलना होगा. पाठकों को बताता चलूं कि इस त्यौहार में पूरी रात घर बाहर में मेहमान नवाजी का दौर चलता रहता हैं. फतेह सिंह के आग्रह का सम्मान करते हुए मित्र इंद्र सिंह को साथ लेकर मैं उनके साथ उनके घर की ओर चल दिया.

फतेह सिंह खेती बाड़ी करते हैं और बकरियां पालते हैं. साधारण से दिखने वाले फतेह सिंह खत भरम के उन स्याणों के वंशज है जिनका जिक्र अंग्रेज कलेक्टर वाल्टन द्वारा ने देहरादून गजेटीयर में क्षेत्र के एक चुस्त प्रशासक के तौर पर किया गया है. फतेह सिंह मुझे मेरे पुश्तैनी पते के अलावा मेरे लिखने को लेकर भी जानते है. हम लोगों को घर में खाना पीना परोस कर फतेह सिंह ‘अभी आता हूँ’ कहकर घर से बाहर निकल गये. फतेह सिंह कोई दस एक मिनट के अंदर ही लौट आए होंगे. पूछने पर पता चला कि वे आँगन में जहाँ पंक्तिबद्ध गीत गाये जा रहे थे, वहाँ गये थे. आँगन जाने का कारण जानना चाहा तो वे कहने लगे कि गाँव के पुरूषों ने पंक्तिबद्ध नृत्य करते हुए पूरे आँगन पर कब्जा कर लिया था. आँगन से लौटते वक्त ही फतेह सिंह ने यह सब देख लिया था. क्योंकि हम लोग साथ में थे इसलिए वे उस वक्त कुछ नही बोले लेकिन हमे घर पर बिठाकर वे तुरंत पलटे और आधे आँगन को गाँव की महिलाओं के लिए खाली करवा दिया ताकी महिलाओं को भी दीवाली के मेले में नृत्य करने लिए आधा आँगन मिल सके. यह बहुत ही सामान्य सी घटना लग सकती है किंतु स्त्रियों को पुरूषों के बराबर हिस्सेदारी देने वाली इस क्षेत्र की पारंपारिक सामाजिक व्यवस्था समाज शास्त्रियों के अध्ययन के लिए एक आदर्श वजह हो सकती है.

अपने जमाने के बारहवें दर्जा पढ़े-लिखे फतेह सिंह ने आँगन से लौटने के बाद एक बड़ा कटोरा गोश्त मेरी तरफ बढ़ाते हुए कहने लगे,
‘पता नही दुनियां में किस किस को क्या क्या पसंद होगा लेकिन मुझे तो शिकार खाना और खिलाना बहुत पसंद है, इसिलिए खुद ही बकरियां चराता हूँ ताकी कभी भी इसकी कोई कमी न पड़े.’

हो सकता है कि खुद को सभ्य और सुसंस्कृत कहने वाला तबका फतेह सिंह के इस वक्तव्य को क्रूर करार दे लेकिन वह परजीवियों की उस बड़ी आबादी से कहीं ज्यादा ईमानदार है जो दूसरों की मेहनत, हक और संसाधनों को मार कर जिंदा है और खुद को सभ्य, और संस्कारी होने का ढोल पीटती रहती है. इस दौरान फतेह सिंह से बहुत सी नयी पुरानी बातें हुई. फतेह सिंह के घर से लौटने के बाद काँडोई गाँव के आँगन में गीतों का ऐसा दौर शुरू हुआ जो फिर सुबह जाकर ही थमा.

अगले रोज हमे बुल्हाड़ जाना था. जौनसार का यह सीमांत गाँव वैसे तो हाल के दिनों में मंत्रियों और नेताओं के आवागमन, मंदिर और कंकरीट की शिव प्रतिमा के लिए जाना जाता है लेकिन मेरा वहाँ जाने का मकसद कुछ और ही था. जौनसार बावर के सुदूर में बसा बुल्हाड़ गाँव चकराता से ब्लॉक प्रमुख रहे जनवादी नेता नैन सिंह झमनाण का पैतृक गाँव है. लंबे समय तक काँग्रेस मे रहने के अलावा वे समाजवादी पार्टी में भी रहे. क्षेत्र की नयी पीढी के बहुत कम लोगों को यह बात मालूम होगी कि नैन सिंह मुलायम सिंह यादव के बहुत करीबियों में से एक थे. हालांकि अपनी सपष्टवादिता के चलते वे धूर्त राजनीतिज्ञों की तरह राजनीति में कोई बड़ा मुकाम नही बना पाए लेकिन फिर भी खत भरम और जौनसार बावर की तरक्की में उनके योगदान को भुलाया नही जा सकता. नैन सिंह जौनसार बावर के पहले ऐसे नेता थे जो आंदोलनों का महत्व समझते थे. परंपरागत नैतृत्व के चलते हमेशा अलग-थलग पड़े रहने वाले जौनसार बावर को नैन सिंह ने ही चिपको आंदोलन से जोड़ा था. चिपको आंदोलन के दौरान चकराता में नैन सिंह के नैतृत्व में पहला ऐसा जूलूस निकला था जो आम लोगों के हक हकूक के लिए था.

नैन सिंह कृषि और बागवानी को लेकर भी काफी जागरूक थे. सन 1965 में उन्होने अपने गाँव में सेब के पेड़ लगा दिए थे. उनकी इस पहल का नतीजा यह रहा कि आज की तारीख में भरम की हर बसासत में सेब की अच्छी खासी पैदाईश होती है. नैन सिंह अब नही रहे लेकिन उनका परिवार आज भी बागवानी के लिए पूरे क्षेत्र में प्रसिद्ध है. मुझे दिल्ली में मेरे एक परिचित से पता चला था कि बुल्हाड़ में उत्तराखंड उद्यान विभाग के सहयोग से सेब की ऐसी आधुनिक किस्म रोपी गयी है जो दो साल के भीतर फसल देना शुरू कर देती है. मेरे लिए यह कौतूहल का विषय था. हालांकि मेरे गाँव में भी इसी तरह के सेबों के एक ऐसे ही बागीचे का उद्घाटन उत्तराखंड के उद्यान मंत्री कर के चले गये थे लेकिन बुल्हाड़ के झमनाण सेब के मामले में खासे अनुभवी है. मैं इस बारे में पूरी तरह से आश्वस्त था कि बुल्हाड़ के लोग खेती-बाड़ी सब्सिडी के लिए नहीं करते. सेब की खेती में वो हिमाचल के बागान स्वामियों को टक्कर देते हैं. काँडोई में रात बातचीत के दौरान पता चला कि बुल्हाड़ में उद्यान विभाग के निदेशक मय कृषि वैज्ञानिकों के उस नई नस्ल के सेबों की तहकीकात हेतु पधारे हुए हैं. सुबह होते ही हमने काँडोई वालों से विदा ली और बुल्हाड़ की तरफ हो लिए.

हम जिस वक्त बुल्हाड़ पहुँचे तब तक अच्छी खासी धूप निकल चुकी थी.

बुल्हाड़ गाँव की शुरूआत में ही दिवंगत नेता नैन सिंह को समर्पित स्कूल की इमारत आपका स्वागत करती नजर आती है. एक बड़े मैदान के साथ सड़क से लगते भव्य द्वार के उपर अंकित अक्षर आपके बुल्हाड़ आगमन पर आपके स्वागत की घोषणा करते हैं. मुख्य द्वार से पार पाते ही आपके आगे एक विशालकाय टाइल्स से मढा आँगन बिछा हुआ नजर आता है जिसको पार कर आप गाँव के प्रत्येक घर तक जा सकते हैं. आँगन से हटकर बना एक भीमकाय मंदिर, उसकी बगल में एक छोटा मंदिर और एक ऊँची सी जगह पर स्थापित शिव प्रतिमा को देखकर आप अपने जेहन में एक बार को एक पहाड़ी गाँव की सारी संभावनाओ को खारिज कर देते हो लेकिन फिर जब आप दूसरी और स्थानिकों के घरों की ओर देखते हैं तो आप भ्रम की स्थिति से खुद को तुरंत बाहर निकाल लेते हो.

हम लोग गाँव में पहुंचे तो हमारी मुलाकात प्रताप सिंह से हुई. प्रताप सिंह नैन सिंह के पुत्र है और भाजपा के टिकट पर चकराता विधान सभा से एक बार चुनाव भी लड़ चुके है. प्रताप सिंह हमे अपने घर ले गये. प्रताप सिंह जी के परिवार के सभी लोग भले ही अपने कारोबार या नौकरियों के चलते अलग-अलग शहरों में रहते हों लेकिन गाँव में आज भी वे सब संयुक्त रूप से साथ रहते है. घर पर हमारी मुलाकात उनके छोटे भाई अमर, विजय और राजपाल से हुई. वे सभी लोग दीवाली के इस पारंपरिक पर्व में शिरकत करने के लिए मय बाल बच्चों के गाँव आए हुए थे. इस परिवार का आतिथ्य सत्कार बहुत भाव पूर्ण था. यहीं पर हमारी मुलाकात नैन सिंह के छोटे भाई धन सिंह से होती है. जहाँ इनके बाकी परिवार जन नौकरी और कारोबार के लिए घर से बाहर है वहीं धन सिंह अपने एक भाई और भतीजों के साथ गाँव में खेती बाड़ी, पशु और बाग बगीचे की देखभाल करते हैं. हम लोग चाय से फारिग होकर बाहर निकले ही थे कि हमे उद्यान विभाग के विशेषज्ञों का दल बागान मालिकों के साथ खेतों की ओर जाते हुए दिखाई दिया. बिना देर किए हम भी उनके पीछे हो लिए.

सेब के खेतों में पहुँचने के बाद उद्यान विशेषज्ञों की बातचीत के दौरान मालूम पड़ा कि दस माह पहले रोपी गयी लगभग दो हजार पौध का कोई भविष्य नजर नहीं आ रहा है. उद्यान विभाग से आए विशेषज्ञों ने सेब के नवजात पेड़ों में ब्लैक और ब्राउन स्टेम जैसी कई सारी लाईलाज बीमारियां गिनवा दी. जब यह मालूम करना चाहा कि क्या सेब की इस नस्ल का देश के अंदर किसी भी आधिकारिक बागान या पौधशाला में पहले परिक्षण के तौर पर उगाया गया है तो पता चला कि सरकार ने बिना किसी ऐसे परीक्षण के सेब की इस नस्ल के पौधों की सप्लाई का ठेका अस्सी फीसदी सब्सिडी पर किसी सुधीर चड्ढा को दिया हुआ है. सुधीर चड्ढा को बिना किसी मापदंड के सेब के पौधों की सप्लाई का ठेका क्यों और किसके कहने पर दिया गया, यह बात तो उत्तराखंड की सरकार जाने लेकिन झमनाणो के खेत और लागत का का क्या होगा इसका जवाब उद्यान विभाग के निदेशक महोदय के पास भी फिलहाल नहीं था. हालांकि साथ आए विशेषज्ञों ने पौधों की सेहत की दुरूस्तगी के लिए कुछ दवाएं जरूर सुझाई लेकिन सेब की बागवानी में पारंगत धन सिंह बताते हैं कि उत्तराखंड के इन बागान विशेषज्ञों को हिमाचल सरकार के उद्यान विभाग के मालियों के जितनी जानकारी भी नही है. धन सिंह आगे कहते हैं कि यदि इन विशेषज्ञों के सुझावों के आधार पर हम सेब की खेती करने लगे तो हमारा फिर भगवान भी मालिक नहीं होगा. सेब की इस नस्ल के ईलाज के लिए देहरादून से आए विशेषज्ञों द्वारा सुझाए गये रसायन लाईम सल्फर का जिक्र करते हुए धन सिंह बताने लगे कि सेब की दवा के तौर पर लाईम सल्फर पिछले दो दशकों से सेब की खेती में उपयोग से बाहर हो चुका है.

उद्यान विभाग के दौरे पर आए निदेशक महोदय की काहिली का आलम तो यह था कि वो एक खेत में लगे सेब के पौधों को देखकर ही लौटने को हो रहे थे लेकिन प्रताप सिंह इस बात पर अड़ गये कि अब आपको निरिक्षण तो पूरे बगीचे का करना ही पड़ेगा.
सेब की खेती को लेकर समर्पित धन सिंह उद्यान विभाग के दौरे पर आए अधिकारियों के रवैये से खासे असंतुष्ट दिखे. उनकी बात भी सही थी. वे कहते हैं कि हमारे परिवार का राजनीति में अच्छा खासा रसूख होने के बावजूद भी उद्यान विभाग के ये हाल है, ऐसे में आम आदमी इनसे क्या उम्मीद रखें.

घंटे भर बाद उद्यान विभाग के अधिकारियों सहित हम भी खेतों से वापिस प्रताप सिंह के घर लौट आए जहाँ सभी लोगों के लिए उनका पसंदीदा सामिष और निरामिष भोजन परोसा गया. लौटते हुए आँगन में पहुँचे तो मालूम पड़ा कि बुल्हाड़ गाँव में एक पुस्तकालय भी है. मैने प्रताप सिंह के छोटे भाई अमर से पुस्तकालय देखने की गुजारिश की तो वे हमे वहाँ लेकर गये.

जौनसार बावर में मेरी जानकारी के अनुसार यह पहला गाँव है जहाँ इस तरह का साफ सुथरा और सुसज्जित पुस्तकालय है. पुस्तकालय में बैठने के लिए इतनी व्यवस्था है कि एक साथ बीस लोग बैठ कर आराम से पढ सकते हैं. वैसे पुस्तकालय के शेल्फ में सजी किताबों में कोई खास विविधता नही थी लेकिन अच्छी बात यह थी कि शुरूआत तो हो चुकी है. बुल्हाड़ गाँव के लोग इस बात के लिए धन्यवाद के पात्र है कि उनकी प्राथमिकता में पुस्तकालय भी है. हालांकि मूल भूत सुविधाओं से वंचित जौनसार बावर के किसी गाँव में करोड़ो रुपये के खर्च के बाद अस्तित्व में आया मंदिर मेरी नजर में कोई मायने नही रखता लेकिन इस बहाने बनाए गये विशाल सामुदायिक आँगन और स्थानीय देवता की नौबत बजाने वाले बाजगियों के लिए बनाए गये पक्के, खुले और हवादार मकानों को नजर अंदाज नही किया जा सकता. कुल मिलाकर बुल्हाड़ को यदि जौनसार बावर का आदर्श गाँव कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नही होगी.

बुल्हाड़ से लौटते वक्त मेरे दिमाग में हाल के दिनों देहरादून में लोक पंचायत द्वारा जौनसार बावर की संस्कृति को बचाने के लिए आयोजित किए गये प्रवासी सम्मेलन का वो शुरूआती दृश्य रह रह कर कौंध रहा था जिसमें सफैद धोती पहने कुछ युवा घंटा बजाते हुए रटंतू तोतों की तरह संस्कृत के श्लोकों का उच्चारण कर रहे थे. वहाँ गिनती के चार लोग भी नहीं होंगे जो उन श्लौकों का मतलब बता सकते हों. संस्कृत कोई रोजगार की भाषा भी नहीं है बावजूद इसके भी इसको इतना महत्व क्यों? मैं सोच रहा था कि जिस संस्कृत का जौनसार बावर के परिवेश, उसकी आदिम संस्कृति, उसके त्यौहारों, उसके रिति रिवाजों से दूर दूर का कोई वास्ता नहीं है वो संस्कृत कैसे उसकी मौलिक परंपराओं को बचा सकती है. यह अपनी बोली भाषा को बचाने का कौन सा तरीका है जिसमें हम उस संस्कृत भाषा को आगे कर रहे है जिसका हमारे परिवेश से कोई लेना देना नही है. ऐसी क्या वजह है कि हम अपनी संस्कृति को बचाने की बात कह कर अपने ग्राम और क्षेत्रीय देवताओं का राष्ट्रीयकरण करने पर आमदा हुए पड़े हैं. हम कौन होते हैं जो पहचान के नाम पर जौनसार बावर के स्थानीय परिवेश को नजर अंदाज कर उस पर मुख्य धारा को थोप दें. जौनसार बावर की नीरीह संस्कृति के प्रतिनिधि हम जैसे शहरों में तीन को तेरह करने वाले लोग कैसे हो सकते हैं जबकि इस पर तो पहला हक उन लोगों का है जो जौनसार बावर के स्थानीयता को जीते हैं. बेहतरी के लिए दर बदर हो चुके हम जैसे लोग जब तक वापिस अपने गाँव नहीं लौटते, तब तक इस क्षेत्र की झंडाबदारी की बात आखिर किस बिनह पर करते हैं. इसकी झंडाबदारी का असली नुमायदा तो जौनसार का वह व्यक्ति है जो खेत पशुओं में खटता है और अपनी गमी खुशी को गीतों में ढाल कर मेलों और त्यौहारों में खुद को अभिव्यक्त करता है. परिवेश से बाहर रह कर उस परिवेश की बोली भाषा और संस्कृति की बात करना, उसके बारे में लिखना नामुमकिन है.

जौनसार बावर की संस्कृति को बचाने के लिए यदि हम प्रवासी लोग भाषणों की बजाय गाँव में जीवन यापन के लिए जूझ रहे अपने भाई बंधुओं के परंपरागत व्यवसायों में आने वाली मुश्किलों को तकनीक के जरिए आसान बनाने के लिए काम करें तो यह एक बड़ा और सफल कदम होगा. जौनसार बावर की संस्कृति को बचाने के लिए जरूरी है कि काँडोई के फतेह सिंह, साधू सिंह और बुल्हाड़ के धन सिंह की बात सुनी जाय, उनकी राय ली जाय. हम लोगों में यह भारी कमी है कि हम लोग कार्यों का वर्गीकरण पूर्वाग्रहों के आधार पर करते हैं. यह बहुत ही गलत बात है. आज की तारीख में जौनसार के कई गाँवों में परंपरागत बाजगियों ने ढोल और रणसिंघा जैसे पारंपारिक बाद्य यंत्र बजाने से मना कर दिया है. कारण, चतुर्थ श्रेणी की नौकरी करने वाला भी उनके आगे खुद को कुलीन समझता है और उनके हुनर को छोटा काम समझता है. हम भूल जाते हैं के कि इन्ही बाजगियों के बाजे की तरह शहनाई मे महारत रखने वाले मरहूम बिसमिल्ला खान को भारत सरकार ने देश के सर्वोच्च और प्रतिष्ठित पुरूस्कार भारत रत्न से सम्मानित किया था.

जौनसार बावर की संस्कृति को बचाने के लिए जरूरी यह भी है कि रोजगार की संभावनाओं से भरपूर पर्यटन के क्षेत्र में एक आदर्श के तौर पर अपने गाँव में सम्रद्ध रोजगार पैदा करने वाले इंद्र सिंह जैसे रचनात्मक उद्यमियों को शहर में नौकरियों की तलाश में भटक रहे युवाओं से मुखातिब करवाया जाय और उन्हे उनके गाँव घर के आस पास स्वरोजगार हेतु प्रेरित और प्रोहत्साहित किया जाय. याद रखिए, नौकरी परस्त समाज कभी भी विकसित समाज नही हो सकता. रोजगार के लिए जड़ों से उखड़ चुके लोगों की अपनी कोई संस्कृति नही होती. संस्कृति परिवेश आधारित होती है. परिवेश तब सम्रद्ध होता है जब वहाँ रहने वाले लोग सम्रद्ध होते हैं. लोग सम्रद्ध होंगे तो बोली भाषा सम्रद्ध होगी, बोली भाषा सम्रद्ध होगी तो संस्कृति समृद्ध होगी. हमे यह याद रखना होगा कि समृद्ध संस्कृति के लिए ऐसे समाज की जरूरत होती है जो संसाधनों के मामलें मे हर तरह से आत्म निर्भर हो.

स्वयं को “छुट्टा विचारक, घूमंतू कथाकार और सड़क छाप कवि” बताने वाले सुभाष तराण उत्तराखंड के जौनसार-भाबर इलाके से ताल्लुक रखते हैं और उनका पैतृक घर अटाल गाँव में है. फिलहाल दिल्ली में नौकरी करते हैं. हमें उम्मीद है अपने चुटीले और धारदार लेखन के लिए जाने जाने वाले सुभाष काफल ट्री पर नियमित लिखेंगे.

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Sudhir Kumar

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अब्बू खाँ की बकरी : डॉ. जाकिर हुसैन

हिमालय पहाड़ पर अल्मोड़ा नाम की एक बस्ती है. उसमें एक बड़े मियाँ रहते थे.…

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नीचे के कपड़े : अमृता प्रीतम

जिसके मन की पीड़ा को लेकर मैंने कहानी लिखी थी ‘नीचे के कपड़े’ उसका नाम…

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रबिंद्रनाथ टैगोर की कहानी: तोता

एक था तोता. वह बड़ा मूर्ख था. गाता तो था, पर शास्त्र नहीं पढ़ता था.…

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