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क्‍यों नहीं किसी के साथ भाग जाती वो

मुझे सचमुच इस चीज़ से फ़र्क नहीं पड़ता कि उसे कैसा लगता है मेरे बिना … खा़स तौर पर मैं उन दिनों से सीधे-सीधे आंख बचाकर निकल जाता हूं जिन पर हमने अपने नाम लिखकर उड़ा दिए थे. मैं वाकई नहीं जानना चाहता कि उड़ते रहने वाले वे दिन जब उसकी आंखों में उतर कर धुंआं घोलते हैं कि कितनी कड़वाहट होती है, दरअसल मैं उसकी तरफ़ देखता ही नहीं. क्‍यों देखूं जबकि मुझे पता है कि न देखने की क़सम मैंने ही खाई है, और क्‍यों फिर जाऊं अपनी क़सम से जबकि मुझे पता है कि इससे मेरी जि़दगी में कितना आराम आया है. कवि होने का यह अर्थ तो हरगिज़ नहीं निकाला जाना चाहिए कि सारी चिरकुटई की जि़म्मेदारी मैंने ही ली है, अरे जिसे जो महसूस करना है करे, मैं तो अपनी जिंदगी को ठीक करना चाहता हूं, कर भी रहा हूं.

ये वेलेंटाइन-डे था और मैं उस सारी मनहूसियत का सामना नहीं करना चाहता था जो उसके चेहरे से बरसती रहती है, तो भी मेरा रास्‍ता काटकर ही गई न. बाद में हरे कांच से बाहर झांकती रही शायद ये सोचकर कि मैं उसे देख रहा हूं. मेरा ईश्‍वर जानता है कि मैंने एक बार नज़र भर कर उसकी तरफ़ नहीं देखा लेकिन वो शायद मुझे चिढ़ा देना चाहती थी, तभी तो वही झुमके पहनकर आई थी जो मैंने अपनी मूर्खता की पराकाष्‍ठा को छूते हुए उसे लाकर दिए थे. अब कितनी कोफ़्त होती है ये सोचकर कि मैंने झुमके ख़रीदने के लिए अपनी बीवी का क्रेडिट कार्ड इस्तेमाल किया, जबकि घर में लंबे समय से इस बात को लेकर तकरार थी कि मैं घरवाली के लिए कोई तोहफ़ा लाता ही नहीं. कवि हूं तो क्‍या इस शर्मिंदगी को महसूस करना भी बंद कर दूं कि जीवन का एक पहला वेलेंटाइन वही था जब मैंने अपनी पत्‍नी के अलावा किसी और को गुलाब का फूल भी लाकर दिया था.

कितने बरस गुज़र गए लेकिन हर साल इस दिन अब भी घर में उस ग़लती के लिए ताना सुनना पड़ता है और काम पर आओ तो ये बेवकूफ़ औरत हमेशा अपना बेसुरा प्रेमगीत अलापती घूमती है. मैं सचमुच इस सब से ऊब चुका हूं, ये औरत कहीं चली क्‍यों नहीं जाती … क्‍यों नहीं किसी और के प्रेम में पड़ जाती, क्‍यों नहीं किसी के साथ भाग जाती, क्‍यों मेरे प्रेम को माथे पर इश्‍तेहार की तरह चिपकाए घूमती है, बिना ये सोचे कि मुझे कितनी परेशानी होती है इस ख़याल से भी कि कभी मैंने उसी माथे को चूमकर कुछ कहा था. मैं सचमुच चाहता हूं कि वो बेवफ़ा हो जाए, मैं उसे किसी के साथ इस तरह देख लूं कि उसे सरे राह दो झापड़ रसीद कर सकूं … रंगे हाथों इस तरह धर दबोचूं कि वो मिमियाकर, दुम दबाकर मेरे सामने से हमेशा के लिए दफ़ा हो जाए. कुछ ऐसा देख लेना चाहता हूं कि दोस्‍तों के बीच खड़े होकर उसे चार गालियां दे सकूं … मैं सचमुच चाहता हूं कि वो मुझे धोखा दे दे … सचमुच का धोखा.

(एक डायरी से)

शायदा

चंडीगढ़ में रहने वाली पत्रकार शायदा का गद्य लम्बे समय से इंटरनेट पर हलचल मचाता रहा है. इस दशक की शुरुआत से ही उनका ब्लॉग बहुत लोकप्रिय रहा. वे साहित्य, कला और संगीत के अलावा सामाजिक मुद्दों को अपना विषय बनाती हैं.

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