मीडिया व बाजार धीरे-धीरे हमारी विभिन्न लोक व उसकी संस्कृतियों को निगलते जा रहे हैं. और यह इतने धीरे से दबे पॉव हो रहा है कि हमें पता ही नहीं चल रहा है कि हम अपने “लोक” व उसकी संस्कृति को कब पीछे छोड़ कर आ गए. जब हमें इसका भान हो रहा है, तब तक बहुत देर हो जा रही है और हम अपनी जड़ों की ओर चाह कर भी नहीं लौट पा रहे हैं. इसका एक सबसे बड़ा कारण यह है कि तब हमें पता ही नहीं चल रहा है कि हमारी जड़ें हैं कहां? (Dutiya in Kumaon)
दीपावली के तीसरे दिन मनाए जाने वाले भैय्यादूज के सम्बंध में भी यही बात लागू होती है. कुमाऊँ में भैय्यादूज मनाया ही नहीं जाता है. इसका दूसरा ही रूप यहां है, लेकिन भैय्यादूज कब यहॉ की लोक संस्कृति में घुस गया किसी को पता ही नहीं चला . वैसे यह घुसपैठ दो – ढाई दशक से ज्यादा पुरानी नहीं है. (Dutiya in Kumaon)
यहां भैय्यादूज की जगह दूतिया त्यार मनाने की लोक परम्परा रही है. इसे मनाने की तैयारी कुछ दिन पहले से शुरू हो जाती है. कहीं एकादशी के दिन, कहीं धनतेरस के दिन और कहीं दीपावली के दिन शाम को तौले (एक बर्तन) में धान पानी में भिगाने के लिए डाल दिए जाते हैं. गौवर्धन पूजा के दिन इस धान को पानी में से निकाल लिया जाता है. उन्हें देर तक कपड़े में रखा जाता है बांध कर के. ताकि उसका सारा पानी निथर जाय. उसके दो-एक घंटे बाद उस धान को कढ़ाई में भून लिया जाता है. उसके बाद उसे गर्मा-गर्म ही ओखल में मूसल से कूटा जाता है. गर्म होने के कारण चावल का आकार चपटा हो जाता है और उसका भूसा भी निकल कर अलग हो जाता है. इन हल्के भूने हुए चपटे चावलों को ही “च्यूड़े” कहते हैं.
जिस बर्तन में च्यूड़े रखे जाते हैं, उसमें थोड़ा कच्ची हल्दी को कूट कर और हरी दूब के एक गुच्छे को सरसों के तेल से भरे कटोरे के साथ सबसे ऊपर रखा जाता है. ये च्यूड़े सिर में चढ़ाने के साथ ही खाने के लिए भी बनाए जाते हैं. च्यूड़ों को अखरोट, भूने हुए भांग के साथ खाया जाता है. दीपावली के बाद ठंड में भी तेजी आ जाती है और ठंड में च्यूड़ों को अखरोट व भूने हुए भांग के साथ खाने से जहां शरीर को गर्मी मिलती है, वहीं इनमें कई तरह के पौष्टिक तत्व होने से शरीर का ठंड से बचाव भी होता है. च्यूड़े बनाने से पहले दीपावली के दिन ओखल के चारों से गेरू से लिपाई की जाती है और शाम को ओखल में फूल चढ़ाकर उस पर एक दीया भी रखा जाता है.
गोवर्धन पूजा के दिन भी च्यूड़े बनाने से पहले ओखल की धूप जलाकर पूजा की जाती है, उसके बाद ही च्यूड़े बनाने का कार्य किया जाता है. ओखल की पूजा का मतलब है कि उससे कूटा हुआ स्वादिष्ट अनाज पूरे परिवार को साल भर खाने को मिले और परिवार में किसी को भी कभी भूखे पेट न सोना पड़े.
उल्लेखनीय है कि आज से लगभग 40 साल पहले तक कुमाऊँ में भाबर का इलाका हो या फिर पहाड़ का, हर घर में ओखल से कूटे हुए धान के चावल का ही भात बनाकर खाया जाता था. हल्द्वानी के बाजार में तो कुछ व्यवसायिक ओखल तक थे, जो उससे कूटे हुए धान के चावल लोगों को बेचते थे. लोग भी अपने धान इन ओखल में रख जाते थे और कूटे हुए चावल ले जाते थे. धान कूटने के एवज में ओखल वाला पारिश्रमिक के तौर पर कुछ किलो चावल लेता था.
दीपावली के तीसरे दिन “दूतिया का त्यार” कुमाऊँ में मनाया जाता है. पहले दिन तैयार च्यूड़े सिर में चढ़ाए जाते हैं. सवेरे पूजा इत्यादि के बाद घर की सबसे सयानी महिला च्यूड़ों को सबसे पहले द्यप्पतों को चढ़ाती हैं और उसके बाद परिवार के हर सदस्य के सिर में चढ़ाती है. च्यूढ़े चढ़ाने से पहले अक्षत व पिठ्याँ लगाया जाता है. उसके बाद पहले दिन च्यूड़े बनाने के बाद एक कटोरे में सरसों के तेल के साथ रखे गए दूब के गुच्छे को दो हिस्सों में बांट लिया जाता है. दूब के दोनों गुच्छों को दोनों हाथ में लेकर उनसे सिर में सरसों का तेल लगाया जाता है. जिसे काफी मात्रा में लगाते हैं. कई बार तो तेल सिर से बहने तक लगता है. इसे “दूतिया की धार” कहा जाता है. इसके बाद दोनों हाथों में च्यूढ़े लेकर जमीन में बैठे व्यक्ति के पहले पैरों, उसके बाद घुटनों, फिर कंधों और अंत में सिर में च्यूढ़े चढ़ाए जाते हैं और ऐसा तीन या पांचबार किया जाता है. ऐसा करते हुए घर की बुजुर्ग महिला निम्न आशीष वचन भी देती जाती हैं —
“जी रया जागी रया
य दिन य मास भ्यटनें रया।
पातिक जै पौलि जया दुबकि जैसि जङ है जौ.
हिमाल में ह्यू छन तक, गाड़क बलु छन तक,
घवड़ाक सींग उँण तक जी रया।
स्याव जस चतुर है जया, बाघ जस बलवान है जया, काव जस नजैर है जौ,
आकाश जस उच्च (सम्मान) है जया, धरति जस तुमर नाम है जौ.
जी राया, जागि राया, फुलि जया, फलि जया, दिन य बार भ्यटनै राया.”
मतलब ये कि इस आशीष में उसकी समृद्धि, उनन्ति, सुख, शान्ति, समाज में उसकी खूब इज्जत होने, उसके परिवार के जुगों-जुगों तक दुनिया में प्रसिद्ध रहने की कामना की जाती है. परिवार की बुजुर्ग महिला के बाद दूसरे महिलाएँ भी ऐसे ही आशीर्वचनों के साथ बड़ों व बच्चों के सिर में च्यूढ़े चढ़ाती हैं. च्यूड़े चढ़ाने के बाद एक बार फिर सेे दूब के गुच्छों से सिर में तेल लगाया जाता है. च्यूड़े आमतौर पर महिलाएँ ही चढ़ाती हैं पुरुष नहीं! सिर में च्यूढ़े चढ़ाने का सम्बंध भाई-बहन से नहीं है. यह हर विवाहित महिला परिवार में हर एक के सिर में चढ़ाती हैं. स्थानीय लोक परम्परा में इसमें थोड़ा बहुत अंतर होना स्वाभाविक है. जो हमारे लोक को और मजबूत बनाता है.
ये च्यूढ़े परिवार के सदस्यों के अलावा गाय व बैल के सिरों में भी चढ़ाये जाते हैं . च्यूढ़े चढ़ाने से पहले उनके सींग में सरसों का तेल चुपड़ा जाता है. गले में फूलों की माला पहनाई जाती है. उसके बाद गाय व बैल के माथे पर भी पिठ्ठयॉ लगाया जाता है और फिर सिर में च्यूढ़े चढ़ाए जाते हैं. यह बताता है कि हमारे लोक की परम्परा में पालतू जानवरों को भी एक मुनष्य की तरह का दर्जा दिया जाता रहा है, क्योंकि लोक का जीवन पालतू जानवरों (गाय, बैल) के बिना अधूरा है.
घर गाँव-गाँव में जब से मशीन से धान की कुटाई होने लगी है, तब से ओखल भी खत्म होे रहे हैं और जब ओखल ही नहीं होंगे तो च्यूढ़े कैसे बनेंगे? अब च्यूढ़ों की जगह बाजार में मौजूद “पोहों” ने ले ली है. जिनमें न स्वाद है और न अपनापन. न अमा, ईजा, जैजा, काखी के हाथों की महक . जो अपनों के सिर में चढ़ाने के लिए च्यूढ़े तैयार करते समय च्यूढ़े में मिल जाया करती है . इस तथाकथित प्रगति और विकास ने हमसे हमारा लोेक व संस्कृति ही नहीं, बल्कि अपनापन भी छीन लिया है. इस सब के बाद भी दूतिया त्यार की परम्परा अभी काफी हद तक बची हुई है. सभी मित्रों, दोस्तों व ईष्ट-मित्रों को दूतिया त्यार की भौत-भौत बधाई छू हो!
सभी फोटो: जगमोहन रौतेला
विविध विषयों पर लिखने वाले जगमोहन रौतेला वरिष्ठ पत्रकार हैं और हल्द्वानी में रहते हैं. काफल ट्री पर उनकी रचनाएँ नियमित प्रकाशित होती रही हैं.
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*कुमाऊँ के समस्त निवासियों को दूतिया त्यार की बधाई...!*
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गौरी शंकर काण्डपाल
संस्कृतिकर्मी
8909848043
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*दूतिया त्यार .....*
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घर के बुजुर्गो से अवश्य पूछना...!!