गिरीश लोहनी

एक और दिवस और हिन्दी में बिन्दी

एक बड़ा सा हॉल, इतना बड़ा कि मेरे कल्लू-झल्लू बैल की जोड़ी के साथ हमारी तीनों भैंसे और एक थोरू समेत गाँव के लगभग आधे परिवारों के इतने ही जानवर इसमें बांधे जा सकते थे. बीच में लगी एक बैंच जिसके दूसरी ओर बीस से लेकर 40 बरस तक के शिक्षक-शिक्षिका कतार में बैठे थे. स्कूल में दाखिले की यह पहली बाधा थी जिसे पार होने पर ही स्कूल में दाखिला मिल पाना था.

कतार में बैठे शिक्षकों के आगे तीन-चार-पांच बरस के बच्चे अपने किसी घरवाले के साथ खड़े थे. मेरा पाला कोको-कोला की तली जितने मोटे शीशे लगाये चश्मा पहने हरसिंह मासाब से हुआ. आदत के अनुसार टेबल पर पहुंचते ही मैंने मासाब नमस्ते के साथ उनका अभिवादन किया. हरसिंह मासाब तो चहरे पर बिना किसी भाव के बैठे रहे लेकिन हॉल के में जितने लोगों ने मेरे अभिवादन के शब्द सुने अधिकांश उस पर हंस दिये.

हरसिंह मासाब ने लाल आँखें घुमाते हुये टेबल में रखी आठ-एक टाफियों की ओर इशारा कर गंभीर मोटी आवाज में कहा उठाओ एक. टॉफी उठाते ही बोले खाओ. मैंने खाया तो बोले टेस्ट कैसा है? हरसिंह मासाब का सवाल मेरे सिर के ऊपर से गया. टॉफी का पूरा आनन्द लेते हुये डरे हुये भाव से मां का चेहरा देखा. उनका चेहरा मुझसे ज्यादा डरा हुआ था. हरसिंह मासाब ने फिर कड़कती आवाज में पूछा बताओ स्वाद कैसा है? मैं अपनी आँखे गिली कर चुका था हरसिंह मासाब की लाल आँखें और गरजती आवाज के चलते अब स्कूल की दरी गीली करने की तैयारी थी.

तभी मेरे सिर एक बेहद प्यार भरा हाथ रखते हुये पचास पार कि एक शिक्षिका ने एक और टॉफी बढ़ाते हुये पूछा खाने में कैसी है ये? मैंने तपाक से पूरी जोर से उत्तर दिया गुल्ली. मेरा जवाब हॉल में जितनों ने सुना सभी इस बार जोर की हंसी हँसने लगने लगे. लेकिन शिक्षिका ने मेरे गाल चुमते हुये कहा शानदार. हॉल में मेरे उत्तर पर नहीं हँसने वाले दो अन्य व्यक्ति अंग्रेजी के भट्ट मासाब और हरसिंह मासाब थे.

ये तीनों ही स्कूल में दाखिले के बाद मेरे लिये हमेशा सम्मान योग्य रहे. अगले कई सालों तक मैं घर और स्कूल में अपने जवाब पर हंसी का पात्र रहा. गुल्ली जिसका की अर्थ है मीठा.

सैकड़ों बच्चों की एक भीड़ जिसके एक काउंटर पर मैं कॉलेज में दाखिले के लिये खड़ा था. शहर और उम्र दोनों बदल चुके थे. भीड़ के चलते मैं काउंटर पर जोर से चिल्लाया मैंडम प्रवेश का एक फारम दे दो. काउंटर के भीतर और बाहर जितनों ने सुना सभी हंस दिये. सिवाय काउंटर वाली मैडम के. मैडम ने मुझे पीछे से आफिस में आने को कहा. दस मिनट इंतज़ार के बाद मैडम ने आते ही पूछा पहाड़ में कहाँ से हो?

ये थी तिवारी मैडम जिन्होंने उसी दिन कालेज में प्रिंसिपल आफिस के बाहर बैठने वाले नौटियाल जी से मिलाया. इसके बाद मुझे कालेज के तीन साल तक कभी काउंटर में खड़े होने की जरुरत नहीं पड़ी. कालेज के पहले 6 महीने में मेरे सबसे पक्के दोस्तों में यहीं दोनों आते थे.

भाषा के चलते पहले 6 महिने प्रोफ़ेसर का पढ़ाया हुआ तो समझ में आ जाता था लेकिन जब वह सवाल पूछती तो जवाब तो आता था लेकिन जवाब देना नहीं आता था. हाल इतना बुरा था कि एक प्रोफ़ेसर ने तो मेरा और मुझ जैसे दो और का नाम ही त्रिमूर्ति रख दिया था. उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और हरियाणा के हम तीन ही अगले तीन साल एक दूसरे के यार हुये.

इस बात को बताये या फैलाने कि 14 सितम्बर 1949 को संविधान सभा ने हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा तय किया यह ज्यादा जरुरी है कि उन घटनाओं का जिक्र जरुरी है जो हमें हिन्दी आने या ना आने के कारण तोड़ती हैं या रोकती हैं. बाकी हिन्दी की स्थिति क्या है का पता तो लोगों के इस असमंजस से ही लग जाता है कि हिन्दी में बिन्दी लगती है या नहीं.

-गिरीश लोहनी

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