बचपन गांव में बीते और कभी चोरी नहीं की हो ये हो नहीं सकता. पहाड़ में प्राकृतिक चीजों की चोरी से इस्कूली छ्वोरों को कोई गुरेज नहीं रहता. लड़के आलू के गुटके बनाना हो तो आलू चोरी, ककड़ी, नींबू, नारंगी माल्टा चोरी करना अपराध की श्रेणी में नहीं मानते थे. बस पाख (छत) में से गाली सुनने की हिम्मत बनाये रखना जरुरी था. महिलायें भी मौका मिलने पर घास और लकड़ियों की चोरी कर लेती थीं. (Column by Girija Kishore Pathak)
सामान्यत: पहाड़ में असोज-कार्तिक के ककड़ी चोर बहुत फेमस होते हैं. इन्हीं दिनों गांवों में रामलीला भी होती थी. लौंडे-मौंडे घात लगा कर बैठे रहते हैं कि आज किसका ककड़ी का झाल साफ करना है. पहाड़ की ककड़ी कोई मैदानी खीरे जैसी नहीं होती. पूरे डेढ़-दो किलो की एक ककड़ी. 4-5 निखट्टू लड़कों का ग्रुप दिन में ही योजना बना लेता था कि किसके आंगन से ककड़ियों की चोरी करनी है. योजना बनाते समय एक बोरा या कुंथव साथ रखना जरूरी होता था ताकि चोरी के बाद ककड़ियों को इसी बोरे में भर कर ले जाया जा सके. प्रधान ककड़ी चोर का वजन कम होना जरूरी होता था क्योंकि ककड़ी तोड़ने के लिए ठागरी/ठागर पर चढ़ना पड़ता था.ज्यादा वजनदार हो तो ठांगरी के टूटते ही धड़ाम से जमीन पर. ठागर का मतलब एक छोटा पेड़ जो जंगल से काट कर लाया जाता था फिर उसे ककड़ी के बेल को चढ़ाने के लिए बेल के पास ही गाड़ दिया जाता था. कभी-कभी ककड़ी की बेल आड़ू, पोलम, नासपाती और खुमानी के पेड़ों के इर्द गिर्द भी लगा दी जाती थी ताकि उनको आरोहण मिल जाये.
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रात का आपरेशन घुप्प अंधेरे में होता था. साथ में एक जीप या एवररेडी टार्च रहता था जिसे अति आवश्यक होने पर कहीं-कहीं थोड़ा बहुत जलाया जाता था. जब कहीं सिमार(दलदल) हो, खेत के कन्हाव (ढलान) अत्यधिक ऊंचे हों, या कच्चार(कीचड़)हो. मोटे लड़के को ठागरे पर चढ़ा दो तो ठांगरा टूट जाता था चोर के चोटिल होने के चांसेज ज्यादा रहते थे. इसलिए हेड चोर दुबला-पतला ही छांटा जाता था. साथ में चटपटा धनिये का नमक लाने की जिम्मेदारी भी किसी एक को सौंपी जाती थी. ककड़ी चोर कभी-कभी चोरी करने में फेल भी हो जाते थे. इसके दो कारण होते थे. पहला कभी किसी ने कुत्ता खोलकर छोड़ दिया या दूसरा घर का कोई सदस्य जाग गया. कुत्ता काट ले तो लेने के देने पड़ते थे. अंधेरी रात के समय का चुनाव करना पड़ता था. अगर घर के लोग जाग गये तो औरतें ककड़ी चोरों पर पथराव करने से भी गुरेज नहीं करती थीं. कभी-कभी सारे गांव में तहलका मच गया चोर-चोर तो विपरीत परिस्थिति में उल्टे पांव भागना पड़ता था. पहाड़ी खेतों की आठ-दस फीट ऊंची मेंढ़ को चढ़ कर भागना सरल नहीं रहता था. भागने में एक दो के हाथ पांवों का चोटिल होना आम बात थी. फिर दूसरी सुबह छत पर चढ़कर महिलाओं के मुंह से जो बेहिसाब गालियां सुनने को मिलती थी वह बोनस में. अगर चोरी में सफल हो गये तो कुछ चोरी की ककड़ियां तो धनिये के नमक के साथ रात को ही चट कर ली जाती थी शेष कहीं खेत-खलिहान में छिपा दी जाती थी ताकि उनका उपयोग दूसरे दिन किया जा सके. स्कूल के बस्ते में भर कर दूसरे दिन ककड़ी स्कूल ले जाते थे. क्लास में यार दोस्तों को हाफ टाइम में धनिये के नमक के साथ ककड़ी खिलाने का आनन्द ही कुछ और. यार-दोस्त पूछते थे क्या तेरे घर में इतनी ककड़ियां लगी हैं? तो सीना तान के बोल देते थे — हां यार! भयंकर हो रहीं हैं.
चोर का उदात्त मन और हौसला तो देखिए. सामान्यत:ककड़ियां उसी के घर में नहीं होती थीं जो काम में आलसी रहते थे. ककड़ी का बीज बोते ही नहीं थे. यहां मैं एक अलग तरह की दूसरी चोरी की बात साझा कर रहा हूं. 1973 के जनवरी माह की बात होगी. मैं और जगदीश दा इस मूड में आ गये कि शहद खाया जाय. अब शहद मिले कहां? जगदीश दा यानी जगदीश पाठक मेरे से 3-4साल उम्र में बड़ा रहा होगा. लेकिन पढ़ता वह भी नवीं में ही था. उसको थोड़ा खांसी हुई थी. किसी ने बोला कि कार्तिक का शहद चाटना ठीक हो जाओगे. तो फिर क्या था.
सोचते सोचते हम दोनों को ध्यान आया गांव का पारा काफलढ्वल में मोहन दा के सुनसान घर पर मधुमक्खी का ढाड़ा (बक्सा) है. उन दिनों आधुनिक मौन पालन के बक्से नहीं आते थे. ग्रामीण लोग एक ऐसे पेड़ को काट कर लाते थे जो अंदर से सत्तर फ़ीसदी तक खोखला हो. उसका 3 फिट के खोखले भाग को काटकर उसके दोनों तरफ लकड़ी का ढक्कन लागा कर मिट्टी से लीप दिया जाता था. इस लकड़ी के खोखे के अग्र भाग में 4-5 छोटे-छोटे छेद बना दिये जाते थे ताकि मधुमक्खियां अंदर-बाहर जा सकें. इसे ग्रामीण मौनों का ढाड़ कहते थे. कभी-कभी इसे आयताकार भी बना देते थे. ढाड़ के भीतर थोड़ा गुड़ या शहद लगा देते थे ताकि मधुमक्खियां आसानी से घरेलू माहौल में अपना घर बना सके. मोहन दा लोगों का परिवार उन दिनों दूसरे गांव भदीणा में रहता था. अतः हमारी योजना फायनल हो गयी कि मोहन दा के मधुमक्खियों के ढाड़े से शहद निकाला जाय और चाटा जाय.
योजना के तहत हम मोहन दा के आंगन में पहुंचे. शहद खाने के लिए तिमुल की दो बड़ी पत्तियां तोड़ कर साथ ले गये. जैसे कि भंडारे में कहीं पूड़ी प्रसाद मिलने वाला हो. अब शहद को बक्से से कैसे निकालते हैं ये न जगदीश दा को मालूम और न ही मुझे. एक दूसरे से मंत्रणा किये .लेकिन नतीजा सिफर रहा. इधर जीभ से लार चू रही थी. दिन के 2 बजे थे. पूस का महीने था तो ठंड बहुत थी इसलिए दिन में भी मधुमक्खियों का मोमैंट बिल्कुल बंद था. अब इस बाक्स को खोलें कैसे? अपने को लगता था बस बाक्स खोलो शहद खाओ. अचानक एक ढाड़ के दाहिनी तरफ की मिट्टी हटानी शुरू की. लकड़ी का ढक्कन हाथ से लीपी गयी मिट्टी हटा कर खोल दिया. अंदर देखा तो छत्ते पर मधुमक्खियां आसन जमाये बैठी थीं. अब शहद के छत्ते को बाहर निकालें कैसे? यह भी मालूम था कि मधुमक्खियां छेड़छाड़ बर्दाश्त नहीं करतीं. ज्यादा परेशान किया तो हिसाब-किताब बराबर. अब शहद निकालने की बारी थी.
छत्ता मधुमक्खियों से इतना भरा था कि शहद दिख ही नहीं रहा था. जगदीश दा ने छत्ते पर हाथ डाल कर उसे बाहर निकालना चाहा. ज्यों ही छत्ते पर हाथ डाला सारी मधुमक्खियां हम दोनों पर झपट पड़ी. हाथ, नाक, आंख ,कान और गालों पर अनगिनत मधुमक्खियां टूट पड़ी. पहली बार किसी के घर उजाड़ने का इतना उग्र विरोध देखा. आज तक तो मधुमक्खियों का सहज रूप ही देखा था. वे हाथ पर बैठकर भी उड़ जाती थी. लेकिन आज तो हमें उन्होंने बुरी तरह काट डाला. हम उल्टे पांव भागे. मधुमक्खियों ने हमारा दूर तक पीछा किया. इतनी जगह काटा कि दोनों के मुंह-हाथ सूज गये. अब घर जाकर बतायें क्या ?
पहला इनकाउंटर जगदीश दा की ईजा से हुआ. जेड़जा से हम लोगों ने झूठ बोला कि हमें झिमौड़ (बर्रों) ने काट दिया. जेड़जा ने कुछ देशी झाड़पात का रस चुपस कर हमारा इलाज किया. पूरा मुंह फूल कर ढोल सा हो गया था हाथों में भी भारी सूजन था. दर्द असहनीय था पर कहें भी किसको. पूरे गांव में खबर फैल गयी कि हमें झिमौड़ ने काटा है. शक सबको था इतने झिमौड़ इनको काटने कहां से आ गये? झूठ बोलना भारी पड़ रहा था. बुखार भी शुरू हो गया था. मुझे भी दूसरे दिन दूसरे गांव भदीणा जाना था जहां ईजा और आमा थे. मैं भदीणा जा रहा था. रास्ते में रौंढुङ्ग् के पास पिताजी से इनकाउंटर हो गया. पिताजी भदीणा गांव से दशौली आ रहे थे. उन्हें दूसरे दिन अपने स्कूल जाना था. उन्होंने पूछा क्या हो गया? सारा मुंह क्यों सूजा है. मेरी हिम्मत नहीं हुई कि झूठ बोलूं. पिताजी के सामने सच-सच कनफेस कर दिया. उम्मीद के मुताबिक चार थप्पड़ पड़े. दर्द में एक और दर्द . हर पिता अपने पुत्र से अपेक्षा करता है कि पुत्र उसका सिर ऊंचा उठाये. उसके यश को बढ़ाये. मैंने पिताजी को मानसिक कष्ट दिया था. मैं भी दुखी था. मैं वेदना, अवसाद और अंतर्द्वद्व की स्थिति में आ गया था. इसी मनोभाव मैं पूरे सूजे शरीर के साथ में घर पर पहुंच गया. ईजा को बताया. ईजा ने भी मेरी अच्छी क्लास ली.
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इसी बीच मोहन दा अपने घर पहुंचे. शहद की चोरी और हम दोनों के घायल होने का उनको कोई दर्द नहीं था उनका दर्द था सारी मधुमक्खियां बक्सा छोड़ कर भाग चुकी थीं. शायद ठंड से बचने के लिए उन्होंने कहीं गर्म जगह खोजी होगी. मैं तो कनफेसन कर चुका था कि हमने ही शहद के लिए मोहन दा का ढाड़ा तोड़ा. मोहन दा और उनके पिताजी ने भी मुझे खूब डाटा. मजाकिया मामला गंभीर रूप ले चुका था. हम शहद चोर घोषित किये जा चुके थे. सोचा ही नहीं था कि शहद खाने की चाहत हमें इस हद तक पहुंचा देगी. हमारी हालत ऐसी हो जायेगी. जो भी हो शहद तो चखा भी नहीं , इल्जाम, पिटाई, डांट-डपट अलग और मधुमक्खियों के काटने का दर्द अलग. हम तो इसे ककड़ी चोरी की तरह सामान्य मान रहे थे. यहां तो लेने के देने पड़ गये. बाद में पता लगा शहद निकालना तो एक तकनीक है यह ककड़ी चोरों के बस की बात नहीं.
घर के भीतर ही शहद चोरी का एक नया तरीका हरीश दा ने ईजाद किया था. हमारी बाखई एक ही थी. हरीश दा मेरे से दो साल बड़ा रहा होगा. जब मैं छठी में था तो वह चौथी में पढ़ता था. उसके पिताजी ने पोस्टमैन ब्रांड के तेल के टीन में बेचने के लिए शहद रखा था. हरीश दा रोज उसमें से शहद निकालता खुद खाता और सहपाठियों को भी खिलाता. 1-2 महीने में टीन में रखा शहद समाप्त हो गया. हरीश दा ने छाता की तीली से बचे शहद की तलहटी में रेखायें खींची जैसे चूहों के पांव के निशान हों. और अन्त में सारे घर से संग्रहित कर चूहे की लेड़ी खाली टीन में भर दी. फाल्गुन में होली के दिनों में उसके पिताजी ने शहद के टीन की बिक्री तय कर दी. खरीददार को शहद का डिब्बा देना था. जब उसके पिताजी ने डिब्बा निकाला तो डिब्बा तो खाली था. डिब्बा खोला तो चूहे की लेड़ी. वे हरीश दा पर बहुत नाराज़ हुए बोले कि चूहे इतनी शहद खा गये तूने आवाज भी नहीं सुनी? हरीश दा बोला रात को तो नहीं खाते थे और न ही रात को आवाज आती थी. शायद जब मैं स्कूल जाता था तब चूहे शहद खाते होंगे. इस तरह शहद हरीश दा ने खाया फंस गये चूहे.
शहद चोरों के भी कई किस्से गांव में सुनने को मिलते थे. अनुभव हीन और मूर्ख शहद चोर हम ही निकले.इस तरह हरीश दा पूरा टीन चट कर गया और दोष सफलतापूर्वक चूहों के मत्थे डाल दिया और हम बिना शहद खाये मुल्जिम करार दिये गये.
नारंगी चोर
पहाड़ों के लोग अपने आंगन में नीबू, संतरे, माल्टा, गलगल से भरे पेड़ों को बहुत सुरक्षा के भाव के साथ रखते हैं. घर के सामने ये पीले-पीले फूलों से लदे पेड़ आंगन की शोभा बढ़ा रहे होते हैं. सन् 1971 का नवंबर का महीना था ग्राम घेटी से 15-20 लड़के लगभग 5 किलोमीटर दूर वज्यूला इंटर कालेज पढ़ने जाते थे. इनमें छठी सातवीं आठवीं के 8-10 लड़के थे. 7-8 छात्र हाई स्कूल और इंटर में पढ़ते थे. घेटी से 2 किलोमीटर उतार के बाद घाघरा नदी को पार कर ग्राम मौका, छटिया की 2 किमी की धार पार कर एक किलोमीटर जंगलात की सड़क के साथ चलने पर वज्यूला इंटर कालेज आता था. मैंने वज्यूला सातवीं में प्रवेश लिया था. 9 बजकर 40 मिनट में स्कूल की प्रार्थना होती थी. आठ सवा आठ पर हम घेटी से खा-पीकर बस्ते को हमराही बनाकर स्कूल को रवाना हो जाते थे.
नवंबर की 12 या 13 तारीख रही होगी. इत्तफाकन उस दिन मैं हाई स्कूल इंटर के लड़कों की टीम के शामिल था. सब लोग मौका गांव से आगे की चढ़ाई चढ़ रहे थे. रास्ते में एक बूढ़ी आमा का घर था. उसने आंगन में संतरों से लदा पेड़ बड़ी हिफाजत से रखा था. सुरेश तिवारी हाइस्कूल के छात्र थे. थोड़ा लीडर टाइप के थे. वे अचानक संतरे के पेड़ पर टूट पड़े 3-4 और लड़कों ने भी उसका साथ दिया. कुल 6-7 संतरे तोड़ें ही होंगे कि आमा घर के अंदर से बाहर आ गयी. लड़के भाग गये.
आमा ने जी भर कर गाली दी और अपना कुत्ता खोल दिया. अदम्य चढ़ाई थी बड़े लड़के तो सीढ़ीनुमा खेतों के कन्हाव (पहाड़ी मेड़) को पार कर गये. मैं सबसे छोटा था सीढ़ीनुमा खेत की चढ़ाई पार करने के लिए खेत की मेढ़ पकड़कर उंचाई पार कर ही रहा था कि कुत्ते ने मेरा पैर पकड़ लिया. चार दांत लगा दिये. मैं चिल्लाया सुरी दा, सुरी दा! कौन सुनने वाला सब तो भाग गये थे. अंततः बूढ़ी आमा ही मेरे पास आयी. मेरा बस्ता चेक किया. उसमें उसको संतरे नहीं मिले. आमा ने खेद जताया कि अरे तुझे काट दिया ‘उ रनकरा त भाजि गेई’ मतलब वे सब बदमास तो भाग गये. मैं बहुत घबरा गया था. लड़खड़ाते हुए किसी तरह अकेले स्कूल पहुंचा. जीव विज्ञान के मास्साब मेर सिंह सर थे. उन्होंने मेरे घाव पर टिंचर लगायी. मैं डर गया था. सुना था कि कुत्ते के काटने से लोग पागल हो जाते हैं. मुझे पता नहीं उस समय गरुण या बागेश्वर से इधर कोई प्राथमिक चिकित्सालय भी था. अस्पताल और जानकारी के अभाव में कोई इंजेक्शन भी नहीं लगे. घटना की स्मृति के घाव सुबूत के तौर पर आज भी मेरे दाहिने पांव पर जिंदा हैं.
लेकिन जो भी हो, गांव की हर आमा, ईजा, बोजी,जेडज,काकी को आभास रहता था कि ये चोरी की कारस्तानी इस्कूली छोरों की ही हो सकती है. ईजा 92 साल की उम्र में भी याद रखती है कि एक दिन सुरिया (सुंदर) ने उसके सारे झालों से 30-35 ककड़ियाँ चोरी कर ली थी. पर कोई मलाल नहीं. (Column by Girija Kishore Pathak)
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मूल रूप से ग्राम भदीना-डौणू; बेरीनाग, पिथौरागढ के रहने वाले डॉ. गिरिजा किशोर पाठक सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी हैं.
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अति उत्तम वर्णन सर, हमने भी काफी चोरी की थी ककड़ी, माल्टा और नारंगी जैसे फलों की।