भाई साहब बड़े ही जानकार हैं. सब कुछ जानते हैं. हर चीज की उन्हें नॉलेज है. दूसरों की नॉलेज तथा काबिलियत पर उन्हें हमेशा शक रहता है. आप किसी विषय पर बात करें, भाई साहब को उसकी पूरी जानकारी होगी. कहीं पर लोग किसी मुद्दे पर चर्चा कर रहे हों, बीच में टपक पड़ना वे अपना दायित्व समझते हैं. उन्हें दूसरों की बात कभी सही नहीं लगती. बल्कि सही बात करने वालों से चिढ़ होती है. उन्हें टोककर वे बताते हैं कि सही बात क्या है?
मिसाल के लिए एक बार कहीं पर लोग जवाहर लाल नेहरू के पिता मोतीलाल की अमीरी के बारे में बात कर रहे थे और सभी विद्वान अपना-अपना तुक्का ठोक रहे थे तो भाई साहब ने पूरे आत्मविश्वास के साथ सभी तुक्कों को गलत ठहराकर अपने तुक्के को स्थापित कर दिया. उन्होंने बताया कि मोतीलाल ने पैसा वकालत से नहीं लकड़ी की ठेकेदारी से कमाया. आसाम में उनके ठेके चलते थे. किस्मत से एक बार मुझे भी गुवाहाटी जाने का मौका मिला था. वहां जाकर पता चला कि मोतीलाल जी के यहां लकड़ी के ठेके चलते थे.
अब आप इतने बड़े शेखचिल्ली तो होते नहीं कि तुरंत जेब से फोन निकालकर गूगल करने लगें या घर जाकर किताबें पलटें. जब भाई साहब ने गुवाहाटी जाने और वहां से जानकारी लेने की बात कह दी तो उन पर शक करने का कारण ही कहाँ रह जाता है. इस प्रकार भाई साहब चलते-फिरते ज्ञान का निर्माण करते जाते और लोगों को ज्ञानी बनाते जाते. भाई साहब से दीक्षित हुए लोग यही ज्ञान दूसरों के सामने पेश करते और सामने वाला ना-नुकुर करता तो उसका सिर फोड़ने से भी नहीं चूकते.
ऐसा ही कुछ रवैया भाई साहब का घर, बाहर और ऑफिस के कामों को लेकर था.कोई कुछ काम कर रहा होता और भाई साहब आस-पास होते तो तुरंत टोक देते-‘ये काम ऐसे थोड़ा होता है!’ काम करने वाला अचानक हुए इस हमले से सकपका जाता. सोचता, यह व्यक्ति इतना जोर देकर कहा रहा है तो गलत तो नहीं कह रहा होगा. भाई साहब के आत्मविश्वास के प्रभाव में आकर, वह उनके निर्देशानुसार काम करने लगता. बंदे को काम में उलझाकर भाई साहब वहां से खिसक लेते. काम करने वाला जिस काम को अपने तरीके से पन्द्रह मिनट में निपटा लेता भाई साहब की विधि से घण्टों लगा देता.
‘ऐसे थोड़ा होता है.’ भाई साहब का सूत्र वाक्य था. इसे आप उनका नारा भी कह सकते हो.इस छोटे से वाक्य से उन्होंने अच्छों-अच्छों को पस्त कर दिया. वे अपनी बात इतने आत्मविश्वास से कहते कि लोगों को लगता कोई नया अवतार हुआ है, जो सभी समस्याओं का समाधान जानता है. वे अभी जिस आफिस में काम करते हैं, पहले वहां के सभी लोग अपने-अपने हिसाब से काम किया करते थे. भाई साहब जब से वहां आये, उन्होंने सब के कामों को देखते ही ‘ये काम ऐसे थोड़ा होता है’, कहना शुरू किया. धीरे-धीरे सभी को लगने लगा कि उनके काम करने के तरीके में कुछ तो गड़बड़ है. असली तरीका तो भाई साहब के पास है.इस तरह से सभी काम भाई साहब की ओर आ गये और देखते ही देखते भाई साहब ऑफिस के सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति बन गये.
भाई साहब अब साहब के विश्वस्त थे. कोई भी काम होता, साहब उन्हें ही बुलाते. उन्हीं की राय से कार्य होते. अब वे आफिस के सबसे महत्वपूर्ण तथा व्यस्त व्यक्ति हो गये थे. उनकी इस कामयाबी के पीछे उनकी दो और विशेषताएं थी. वह साहब द्वारा कहे गये किसी काम के लिये ‘ना’ नहीं कहते थे तथा साहब की हर बात को ईश्वरीय आदेश मानकर स्वीकार करते थे. साहब के सामने ही वे उनकी बात को ऐतिहासिक, अभूतपूर्व तथा अद्भुत ठहरा देते. दूसरे लोग इसे चाटुकारिता कहते.मगर साहब उनकी इस भक्ति से गदगद रहते और मन ही मन खुद को राम तथा उन्हें हनुमान मानते.यह अलग बात है कि इस रामलीला से ऑफिस का प्रदर्शन पटरी से उतर चुका था. साहेब के बड़े साहेब और जनता दोनों नाराज थे, लेकिन भक्त और ईश्वर दोनों खुश थे.
घर में भी भाई साहब का ऐसा ही रुतबा था. उन्हें पत्नी और बच्चों के किये काम पसंद नहीं आते थे. इसीलिए सफाई, खाना बनाने से लेकर, खरीददारी आदि के काम या तो वे खुद करते या उनके निर्देशन में होते. वे नाराज न हो जायें, इसलिए कई बार खाना नहीं बनता या चीनी-चायपत्ती जैसी मामूली चीजें नहीं लायी जाती थी. दरअसल भाई साहब जानते थे कि कितनी मोटाई या कैसे रंग वाली चीनी आनी है. चायपत्ती वे खुली लाते थे और रंग तथा खुश्बू से उसकी क्वालिटी की समझ उन्हें ही थी. उनका कहना था, अपनी इस काबिलियत से वे साल भर में अकेले चाय से ही हजारों रुपये बचा लेते हैं.उ न्हें लगता था, बाहर की लुटेरी दुनिया से निबटने की विशेष योग्यता उन्हें ही है. पत्नी और बच्चे तो लुटकर ही आते हैं.
बहरहाल अपनी इन विशेषताओं के कारण भाई साहब घर-बाहर दोनों जगह खूब व्यस्त रहते. उन्हें सांस लेने का टाईम नहीं होता और इसी कारण वे छोटी-छोटी बातों पर लोगों से नाराज भी हो जाते. उन्हें छेड़ने वालों में मुख्यतः वे लोग होते थे, जिनको उन्होंने निठल्ला बना दिया था. अब जिसके पास कोई काम नहीं होगा, वह आपको परेशान करने के लिए नयी-नयी खुरापातें तो करेगा ही. भाई साहब को घर तथा ऑफिस के लोगों का छोटी-छोटी बात के लिए ‘यह काम कैसे होगा, इसमें क्या करें’ जैसे सवालों के साथ अपने पास आना बुरा लगता था. उन्हें आश्चर्य होता कि इतनी मामूली बातों की भी लोगों को जानकारी नहीं है, मगर वे नहीं समझते थे कि यह आफत उन्होंने खुद ही मोल ली है.
कुल मिलाकर भाई साहब अपना ज्ञान बढ़ाने के लिए किताबें तो पढ़ते थे नहीं. इसे वे फिजूल का तथा गैर जरूरी काम समझते थे.भाई साहब के ज्ञान का स्रोत लोगों से सुनी हुई बातें, अखबार और व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी था. इन पर उनकी पूरी आस्था थी. लोग जल्दी ही समझ जाते कि भाई साहब ने ज्ञान खुद अर्जित नहीं किया है, बल्कि वे इधर की बात उधर और उधर की बात इधर चेप रहे हैं. मगर वे चुप रहते, उनकी बातों का विरोध करके खुद को कोई नुकसान पहुंचाना नहीं चाहते थे.
फिलहाल इतना ही कि आपको अच्छा लगे या बुरा, भाई साहब कामयाब हैं और दुर्भाग्य से उनके जैसे लोग हर दौर में कामयाब होते हैं.
दिनेश कर्नाटक
भारतीय ज्ञानपीठ के नवलेखन पुरस्कार से पुरस्कृत दिनेश कर्नाटक चर्चित युवा साहित्यकार हैं. रानीबाग में रहने वाले दिनेश की कहानी, उपन्यास व यात्रा की पांच किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं. ‘शैक्षिक दख़ल’ पत्रिका की सम्पादकीय टीम का हिस्सा हैं.
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बहुत बढ़िया दिनेश जी। साधुवाद
शानदार! ये भाई साहब हर जगह हैं। पर इनका विरोध करना भी ज़रूरी है। क्या पता इनकी दिशा ठीक हो जाए। आज पहली बार काफल ट्री पर आया। शानदार और जानदार जगह है ये तो। हाँ गढ़वाल के अन्य जनपदों के साहित्यधर्मी और क़लमकार भी जुड़े यहाँ तो सोने पे सुहागा हो जाएगा।
धन्यवाद मनु जी, आप शुरू करें....