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डरने वाले भाई साहब

भाई साहब डरने वाले व्यक्ति हैं. उनके डर कई प्रकार के हैं. वे सुबह उठते समय आने वाले दिन की चुनौतियों के बारे में सोचकर डरते हैं. घर से काम को निकलते हुए सफर को लेकर डरते हैं. काम खराब न हो जाये सोचकर काम करने से डरते हैं. झगड़े की आशंका से लोगों से बात करने से डरते हैं. फोन उठाने पर डरते हैं कि कोई बुरी खबर न आ जाये. कुछ खाते हुए डरते हैं कि बीमार न पड़ जाएं. कहने का मतलब है कि भाई साहब कदम-कदम पर डरते रहते हैं. यह अलग बात है कि अपनी ऊंची आवाज और कड़वे तेवरों से वे लोगों को दिखाना चाहते हैं कि वे डरने वाले नहीं, डराने वाले व्यक्ति हैं.

भाई साहब नये या अपरिचित लोगों से डरते हैं, इसलिए उनके सामने खुलते नहीं. अपरिचितों से दूरी बनाने के लिए वे अपने चेहरे पर खास किस्म की भंगिमा बनाये रहते हैं. उस पर खुशी, लगाव तथा आत्मीयता के बजाय एक तरह की नाराजगी, कडुवाहट तथा तटस्थता का भाव नज़र आता है. वे कछुवे की तरह अपनी भावना तथा संवेदना को छिपाये रहते हैं ताकि कोई निकटता न बना सके.

वे अपने दायरे को छोटा बनाये रखने पर यकीन रखते हैं. उसे बढ़ाकर किसी तरह का जोखिम नहीं उठाना चाहते. सफर में वे अपरिचितों द्वारा बातचीत के प्रयास के प्रति उदासीन रहते हैं. फिर भी कोई उनसे बातचीत की कोशिश करता है तो वे रूखे अंदाज से सामने वाले से मुंह फेर लेते हैं. उन्हें लगता है, कहीं वह उन्हें जहर खुरानी का शिकार न बना दे. पहचान बनाने के बहाने पैसे ही न मांगने लगे.

भाई साहब का देशभक्ति के उस महान गीत की इस लोकप्रिय पंक्ति पर पूरा विश्वास है कि हिन्द देश के निवासी सभी जन एक हैं. वे हम सब एक हैं, का नारा भी खूब पसंद करते हैं. मगर उनकी समझ में नहीं आता कि अपने ही लोगों पर उन्हें भरोसा क्यों नहीं होता? क्यों उनसे डर लगता है? अपने होते हुए भी वे पराये क्यों लगते हैं?

भाई साहब ईश्वर तथा धर्म से डरे रहते हैं. उन्हें लगता है, कहीं भगवान उनकी किसी बात से नाराज होकर उनके जीवन में गड़बड़ न कर दे. इसलिए वे रोज सुबह ईश्वर की पूजा करते हैं. ‘कृपा बनाये रखना!’ वाक्य को वे प्रार्थना में तीन-चार बार जरूर कहते. वे पंडे, पुजारियों तथा धर्म गुरुओं से बहुत डरते. उन्हें लगता, वे ग्रह-नक्षत्रों की दशा का डर दिखाकर कहीं उनसे पैसे न ऐंठ लें. वे दूसरे धर्म वालों से डरते कि कहीं वे उनके धर्म के कारण उन्हें कोई नुकसान न पहुंचा दे.

भाई साहब औरतों से डरते कि कहीं वे उन पर कोई झूठा आरोप न लगा दें. वे कर्मचारियों से डरते कि कहीं वे उनका काम न बिगाड़ दें. उन्हें गाड़ी पर चलते हुए डर लगता कि कहीं वह अचानक खराब न हो जाये. उन्हें पानी से डर लगता कि कहीं उसमें कोई जीवाणु न हों, जो उनकी तबियत खराब कर दे. दोस्तों से डर लगता कि कहीं वे उन्हें धोखा न दे दें.

सवाल यह है कि भाई साहब के जीवन में इतना सारा डर आया कहाँ से. जवाब यह है कि उनके माँ-बाप उन्हें पैदा होने के बाद से ही डराते रहे. जब वे अबोध थे तो इशारों से और जब बोध आया तो अपनी बातों से डराते रहे. वे उन्हें अपनी आस-पास की दुनिया की नकारात्मक चीजों से तब तक डराते रहे, जब तक कि इन्होंने डरपोक बनकर दूसरों को डराना शुरू नहीं कर दिया. इन्हें दूसरों को डराना देखते हुए उन्हें लगता था, उनकी जीवन भर की साधना सफल रही. भाई साहब स्कूल गये तो उन्हें शिक्षक-शिक्षिकाओं ने डराया. स्कूल से घर आते हुए समाज ने डराया.

अब जबकि वे पक्के डरपोक बन चुके हैं. लोग उनसे कहते हैं, ‘आप भी फिजूल में डरते हैं. इसमें डरने की क्या बात है? खुश और मस्त रहिये!’ वे हंसते हुए लोगों से कहते, ‘इन हालातों में आप ही खुश रह सकते हैं.’ लोग उनके डर की वजह से उन्हें मानसिक बीमार कहते हैं. घर वाले उन्हें जबरदस्ती मानसिक चिकित्सक के पास ले जाते हैं. उन्हें सब पर हंसी आती है. वे कहते हैं, ‘मैं बिलकुल स्वस्थ हूँ. मुझे कोई बीमारी नहीं है. बीमार तो आप लोग हैं.’ लोग हंसते हुए कहते ‘हां-हां आप को कुछ नहीं हुआ. बीमार तो हम हैं.’

भाई साहब की समझ में नहीं आता कि पहले सब लोग उन्हें डरने की शिक्षा क्यों देते थे? और अब जबकि वे डरने लगे हैं तो उन्हें डरने से मना क्यों करते हैं? गड़बड़ कहाँ है? उत्तर देने वाला कोई नहीं है. क्या इसका कोई उत्तर नहीं है? कोई समाधान नहीं है? उत्तर है कि हमें चीजों तथा लोगों से डरना नहीं है, हमें उन्हें समझना है. काम डरने से नहीं समझने और समझाने से बनेगा. मगर भाई साहब को अब यह बात समझाई नहीं जा सकती. वे उस स्थिति से आगे निकल चुके हैं. अब इस बात को वे समझ नहीं सकेंगे. अब वे सिर्फ डर सकते हैं.

दिनेश कर्नाटक

भारतीय ज्ञानपीठ के नवलेखन पुरस्कार से पुरस्कृत दिनेश कर्नाटक चर्चित युवा साहित्यकार हैं. रानीबाग में रहने वाले दिनेश की कहानी, उपन्यास व यात्रा की पांच किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं. ‘शैक्षिक दख़ल’ पत्रिका की सम्पादकीय टीम का हिस्सा हैं.

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Sudhir Kumar

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  • दरअसल भाईसाहब...की इसमे गलती कम और उनके परिवेश की ज्यादा प्रतीत होती है... वास्तव में कितना विरोधाभास है...हमारे समाज मे...
    बढ़िया आलेख...

  • भाई साहब।की तरह हम अधितर लोग अपने अपने तरीके से।डरे हुये है ।इसीलिये अपने खोल।से बाहर आने मैं संकोच व डर लगने लगता है ।चाहे हम भाई साहब की तरह।अपने निडर होने के सबूत क्यो न दे ।डरे लोग कितना अपने मन का जी पायेगे करना तो वैसे भी जब अधिकतर।के बस का भी नही ।हालांकि इस बीमारी की दवा आखिरी पैरा मे मिल जाती है ।

  • आपकी प्रतिक्रियाओं के लिए आभार...

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