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स्वस्थ बातचीत का वर्जित विषय

साधो हम बासी उस देस के – 6
ब्रजभूषण पाण्डेय

(पिछली कड़ी : नियति दानवी से लड़ कर विजेता राजकुमार बनने की कथाएं )

मास्साब की अख़लाक़ निगाहों में पढ़ाने से ज़्यादा ज़रूरी काम अपने ढीठ रुतबे को प्रूव करना था. इसलिए इस सारी परोक्ष हील हुज्जत के बावजूद भी त्रिभुवन अपनी कक्षा में जाने के लिए टस से मस नहीं हुए.

हार थक कर बोर्ड इम्तिहान को लेकर सिंसियर एक दो पढ़ाकू पहलवान ख़ुद गुरुजी को बुलाने आ पहुँचे. आख़िर प्यासे को कुआँ के पास आना चाहिए. है कि नहीं? आंय?

त्रिभुवन मास्टर ने उनकी विनम्र प्रार्थनाओं के उत्तर में एक लम्बी जम्हाई ली और अपने नेता काट कुर्ते की जेब में चुनौटी ढूँढने लगे.

अलादीन के उस नन्हें चिराग़ को हस्तगत कर चुकने के बाद एक भरपूर निगाह उन्होंने आगे खड़े लड़के के सींकिया बदन में गाड़ दी. लौंडे की पेशानी पर पसीना चुहचुहा आया.

‘का रे मुकेसवा! काहे बेचैन हो? इस्टेसन से गाड़ी छूट रही है? भेंचो पढ़ के का जज कलक्टर बनोगे? आंय?’

अपने भविष्य की निषेधमुख व्याख्या सुन लेने के बाद लड़का क्या बोलता? वैसे भी लौंडा कामरान भविष्य की सिद्धि में लगा पढगीत प्रजाति का सदस्य था और नानस्टाप तीन बार से विद्यालय का अनुशासन पुरस्कार भी जीतता आ रहा था.

इतने सपनों, गुणों, और उपलब्धियों के बोझ ने उसके हिम्मत और स्वास्थ्य दोनों का कबाड़ा कर दिया था. सो ना वो उत्तर दे सकता था ना डंडे की चोट से उत्पन्न देहराग को सुनने की हालत में था. इसलिए उसने तीसरा सेफ़ विकल्प लपक लिया-बग़लें झाँकने का.

कुछ देर तक त्रिभुवन उसकी इस असहजावस्था का मजा लेते रहे. लेकिन नैतिकता, कर्तव्यबोध या ‘आज के लिए ज़्यादा हो गया’ इनमें से जिस किसी मूल्य ने चुल्ल मचाई हो मास्साब काँख में अटेंडेंस रजिस्टर दाब कर कक्षा की ओर चल पड़े.

स्कूल भवन क्या था पुरातत्वविदों की नज़र से छूट गया हड़प्पा मोहनजोदड़ो के टक्कर का कोई हेरिटेज था.

मिट्टी के बेहद करीब रहने के मोह के कारण दीवारों पर पलस्तर बिल्कुल नहीं किया गया था. जगह-जगह भुडकियां छोड़ी हुईं थी जिन्हें साबुत बाबा ब्रांड ईंट ठूंस कर बंद किया हुआ था. खिड़कियों के पल्ले घरेलू इस्तेमाल के लिए निकाल लिए गए थे और जंग खाए सरिए ज़बरन उखाड़ने के प्रयास में कहीं-कहीं से मुड़ गए थे.

कंडी पटिया से ढली छत का प्राचीन दर्द उसमें पड़ी दरारों में से झाँक रहा था. उन दरारों के रास्ते छत पर चतरे कंपाउंड के पेड़ों की डालियों में बसेरा बनाए साँप, नेवले, गोह, विषखोपड़े भी कभी-कभी तफ़रीह काटने क्लास में घुस आते.

लेकिन पढ़ने-पढ़ाने वाले दोनों अभ्यस्त थे. थोड़ी कूदमकूद मचती, मास्टर प्रिंसिपल को गरिया लेते, प्रिंसिपल वादाखिलाफी कर गए स्थानीय विधायक को. मामला सलट जाता. मनोरंजन बतकूचन का टापिक मिल जाता फ्री फ़ंड में वो अलग.

ऐसे में जब त्रिभुवन ने प्रवेश किया तो क्लास का माहौल बिल्कुल बाज़ार के चौराहे की तरह नुमाया हो रहा था.

धूल भरी चप्पल वाला पैर बेंच पर टिकाए और डेस्क पर पिछवाड़ा जमाए भुआली और सुनील ‘चवन्नी तोहरी चाल पे अठन्नी तोहरी गाल पे’ नामक अश्लील गाने का जोर-जोर से गायन कर रहे थे. बाकि लड़के झुंड में खड़े हो कर मजा काट रहे थे.

लेकिन अमां मियां ऐसा भी नहीं था. इंफ्लेशन रेट एडजस्ट करके भी साली मोहोब्बत इतनी सस्ती नहीं थी यार. सस्ती ग़रीब टुच्चई का रिफ्लेक्शन बस चवन्नी-अठन्नी…भुच्च साले.

इधर के मुक़ाबले लड़कियों के तरफ का माहौल थोड़ा घरेलू क़िसम का था.

कुछ तो ये सब गाने सुन कर मुँह में ओढ़नी दबाए हंस रही थीं. कुछ ने बेपरवाह हो कर अधूरा स्वेटर पूरा करने के लिए कांटा कुसा निकाल लिया था. एक लड़की अपनी पकिया सखी की ढीली चोटी को पूरा खोल कर फिर से कस रही थी.

मास्साब के घुसते ही सभी अपनी अपनी सीट पर पहुँचने के लिए भागने लगे. जैसे जुआघर पर रेड पड़ गयी हो. लड़कियों ने ऊन का गोला नीचे गिरा दिया.
त्रिभुवन ने सीधे चोटी गूँथती लड़की को घूरा. उसने झट काम बंद कर दिया. एक चोटी कसी एक झूलती रह गयी.

पूरे क्लास को कंट्रोल में देखने के बाद त्रिभुवन मास्टर ने सुर्ती की पीक से कोने को रंगीन किया और कुर्सी में धँस कर अटेंडेंस लेना शुरू किया.

‘रॉल नंबर एक?’
‘सिर्मान’
‘दो,तीन पाँच…बीस?’
‘सिर्मान, जै भारत, सिर्मान’
‘अरे नरैना आया है कि नहीं?’

नारायण उर्फ़ नरैना ने हाथ खड़े कर अपनी उपस्थिति की सूचना दी.

‘केतना है तोहार रॉल नंबर?’
‘प प पचीस.’ नारायण हकला कर बोलता था.
‘अरे! तो तू बीस से सी सी करना शुरू काहे नहीं करता बे? तब ना पचीस पर तुम्हारा सिर्मान आएगा.’
क्लास में ठहाके लगने लगे नरैन झेंप गया.

त्रिभुवन मास्टर ने उपस्थिति पंजीयक बंद किया और संस्कृत शिक्षांजलि की पतली पुस्तक की गर्द झाड़ी.

‘मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगम शाश्वती समा.’
‘एक दिन तमसा नदी में स्नान करते हुए रिषि वाल्मीकि ने देखा कि मैथुनरत क्रौंच के जोड़े में से एक को व्याध ने मार डाला.’

‘गुरूजी! ई मैथुन माने का होता है?’ पढ़ाकू मुकेस ने जिज्ञासावश पूछा.

त्रिभुवन ने कनखी से मुकेस को देखा लेकिन प्रश्न को नज़रअंदाज़ करना ही उचित समझा.

यद्यपि लोगों की दैनिक दिनचर्या का अधिकांश भाग सेक्स चिंतन में ही जाया होता. प्रेम प्रयत्नों की चरम परिणति पाने का ध्येय भी दैहिक रहस्यों के अनावरण में ही निहित था.

किंतु ये करने का विषय है कहने का नहीं. यह मानते हुए सेक्स स्वस्थ बातचीत का सर्वाधिक वर्जित विषय था.

मास्साब ने जारी रखा.
‘और रिषि के करूणा विगलित हृदय से यह श्लोक फूट पड़ा.’

‘गुरूजी!ई मैथुन का क्या अर्थ है?’ लौंडे ने फिर एक निर्दोष साहस किया.
‘ई डंडा देख रहे हो? एतना न मारेंगे कि पीठ पर गोहिया कबार देंगे. सारे! दिने राती वही करते रहते हो और पूछ रहे हो मैथुन क्या है? अपने बाप से पूछोगे? बिलट्टन से?’

लड़के की संटी ढीली. लाख मगज मारने पर भी उसे याद नहीं आया कि उसके नित्य दिनचर्या में ऐसा कोई मैथुन नाम्ना काम शुमार है.’

लेकिन सुनील और भुआली जैसे गुरुघंटालों ने मास्साब के टोन और भड़कने के अंदाज से करेक्ट गेस मार लिया. वे डेस्क बजा कर हँसने लगे.

‘मे आई कम इन सर?’

एक दबी हुई खनक. जैसे गयी रात के उनींदे पहरों में भीतरी बरौठे की साँकल बजी हो-झुनुक झुनुक. पूरे क्लास में फजिर का अँजोर फैल गया.

बड़ी बड़ी रतनार आँखों की सीपियों में डोलती दो काजुली मछलियाँ. लजाई धूप से इंगोरा भए गाल. भरी गोल कलाइयों में शंख की उजली कामदानी चूड़ियाँ.

लड़की नहीं दादा भेस बदले कोई अस्कामिन.

 

बनारस से लगे बिहार के कैमूर जिले के एक छोटे से गाँव बसही में जन्मे ब्रजभूषण पाण्डेय ने दिल्ली विश्वविद्यालय से उच्चशिक्षा हासिल करने के उपरान्त वर्ष 2016 में भारतीय सिविल सेवा जॉइन की. सम्प्रति नागपुर में रहते हैं और आयकर विभाग में सेवारत हैं. हिन्दी भाषा के शास्त्रीय और देसज, दोनों मुहावरों को बरतने में समान दक्षता रखने वाले ब्रजभूषण की किस्सागोई और लोकगीतों में गहरी दिलचस्पी है.

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Sudhir Kumar

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