भारतीय भाषाओं के शीर्षस्थ कथाकारों का समागम : ‘कलकत्ता कथा समारोह, 1982’ : जब भारतीय भाषाओं का नेतृत्व हिंदी करती थी
-बटरोही
आज सब कुछ कितना बदल गया है! आज बिना अंग्रेजी के सभी भारतीय भाषाओं को एक मंच पर लाने की कल्पना ही नहीं जा सकती.
मगर छत्तीस साल पहले यह बात नहीं थी. 23 दिसंबर, 1982 को कोलकाता की मशहूर संस्कृति संस्था ‘शिक्षायतन’ ने हिंदी के प्रख्यात विचारक जैनेन्द्र कुमार की अध्यक्षता और विख्यात बांग्ला उपन्यासकार समरेश बसु के मुख्य-आतिथ्य में कथा समारोह- 1982 का आयोजन किया.
देश भर के दो दर्जन से अधिक चर्चित हिंदी कथाकारों ने इस समारोह में भाग लिया. तीन दिनों तक कथा-साहित्य की ज्वलंत समस्याओं पर इस समारोह में गम्भीर विचार-विमर्श हुआ. समारोह में भाग लेने वाले कथाकारों में मुख्य थे – अवधनारायण मुद्गल, राजी सेठ, गोविन्द मिश्र, विवेकी राय, लक्ष्मीनारायण लाल, हिमांशु जोशी, भीष्म साहनी, बटरोही, निर्मल वर्मा, नरेंद्र कोहली, सिद्धेश, प्रभाकर माचवे, चंद्रकांत वान्दिवडेकर, मन्नू भंडारी, उषा प्रियंवदा आदि.
समारोह में भारतीय कथा-साहित्य से जुड़ी अनेक समस्याओं पर गंभीर विमर्श किया गया था. खास बात यह थी कि विख्यात बांग्ला उपन्यासकार समरेश बसु ने अपने संबोधन में कहा, “निःसंदेह हिंदी का मंच बहुत व्यापक है. हिंदी के माध्यम से ही हम अन्य भारतीय भाषाओं की नवीनतम गतिविधियों से अवगत होते हैं. बांग्ला में इतर भारतीय भाषाओं के साहित्य का अनुवाद नहीं के बराबर होता है, जिससे भारत के अन्य लेखक क्या सोच रहे हैं, क्या कर रहे हैं, यह जानने का एकमात्र माध्यम हिंदी का ही मंच है. बांग्ला पाठक दूसरी भारतीय भाषाओं के साहित्य से कम परिचित है.”
सिर्फ सैतीस सालों के बाद स्थिति कितनी बदल गयी है? आज भारतीय साहित्य को एक मंच पर लाने के लिए जिस माध्यम-भाषा की जरूरत पड़ती है, वह हिंदी नही, अंग्रेजी बन गयी है. खुद हिंदी के लेखक अपनी भाषा को दोयम दर्जे की समझते हैं और संपर्क-भाषा के रूप में अंग्रेजी का इस्तेमाल करने लगे हैं. कहाँ खो गए भारतीयता को एक सूत्र में जोड़ने वाले वे विराट सपनों वाले लेखक! मजेदार बात यह है कि हमारी नई पीढ़ी भी अपनी परंपरा की जड़ों के प्रति जिज्ञासु भी नहीं दिखाई देती.
लक्ष्मण सिह बिष्ट ‘बटरोही‘ हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार-कहानीकार हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं. उनकी मुख्य कृतियों में ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ ‘सड़क का भूगोल, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल दा’ और ‘महर ठाकुरों का गांव’ शामिल हैं. काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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