कठपतिया का श्राप
चारों ओर छोटे-छोटे पत्थरों से एक गोल घेरा बनाया जाता था जिसके बीच कोई भी आदमी – किसी भी जगह का, किसी भी जाति-धर्म का, जिसका धर्म इन जंगलों की आजीविका से जुड़ा रहता, गोल घेरे के बीच वन-देवता के रूप में किसी बेडौल पत्थर को मूर्ति मानते हुए स्थापित कर देता था. मूर्ति-स्थापना के वक़्त किसी मंत्र या पूजा की जरूरत नहीं थी, सिर्फ मन में वन देवता का बिम्ब बना लेने की जरूरत पड़ती थी. चूंकि इस पुजारी या मंदिर के संस्थापक के लिए देव-भाषा अथवा किताबों में लिखी ऊँची-ऊँची बातों की जानकारी जरूरी नहीं थी इसलिए मूर्ति स्थापित करने के बाद उसे आस-पास फैले बांज के पेड़ों में से कुछ पत्तियां तोड़कर तीन या पांच बार थान में चढ़ाना होता था और अपनी स्थानीय भाषा में यह प्रार्थना गानी पड़ती थी:
कठपतिया,
काठ–पाठ तू लेना
राज–पाट मुझे देना.
आऊँगा जब मैं सकुशल वापस
तुझे चढाऊंगा फिर पत्ते
बांज के हरे–नुकीले
कोमल!
इस प्रार्थना का न तो भाव जटिल था और न भाषा. जंगली और कबाइली लोगों की भाषा दिमाग से नहीं, दिल से पैदा होती है और वहां पर उनके लिए यह भाषा नहीं, उनका हथियार होती है. घोर विपत्तियों के बीच भी उन्हें निराश नहीं होने देती यह भाषा और असीम जंगल के बीच कहीं भी भटक जाने पर उन्हें यह भरोसा देती है कि वक़्त आने पर कठपतिया देवता उन्हें रास्ता बता ही देगा.
“ये अभी-अभी तुमने क्या डाला?” एक लड़के ने पूछा.
“जंगल का देवता है कठपतिया, साहब”, बहादुर सिंह ने कहा, “अब तो वैसा जंगल कहाँ रहा हजूर! पहले जब ये भासी जंगल था, तब भटक गए लोगों को कठपतिया ही रास्ता दिखाता था. जंगल में जानवरों की रखवाली भी यही करता था.”
“फुलिश!” लड़के ने कठपतिया से एक मुट्ठी में लेकर बांज के पत्ते उठाकर सूंघे और फिर उन्हें सड़क पर बिखरा कर बोला, “ये जंगली पत्ते क्या रखवाली करेंगे? किस ज़माने में जी रहे हैं आप लोग? आप जानते हैं, हिंदुस्तान इक्कीसवीं सदी में चला गया है. गूगल के बारे में जानते हो?”
“नहीं सरकार, हम क्या जानें? मगर ये कठपतिया तो मत फैंको हजूर! हमारा तो यही एक सहारा है. आप लोग तो दो-एक घंटे में घूम-घाम कर चले जायेंगे, इनका गुस्सा तो हमें ही भुगतना पड़ेगा. कल को अगर सूखा-अकाल पड़ गया, तो कठपतिया को मनाना मुश्किल हो जाएगा.”
“क्या असर दिखाएगा. यू बास्टर्ड!…” युवक गुस्से से भरा हुआ आया और अपने बूट की ठोकर से उसने कठपतिया की पूरी दीवार गिरा दी. गरजा युवक, “बुला अपने देवता को. कहो उससे, मुझे सजा देकर देखे. अन्धविश्वासी कहीं के!”
घुसी राम की आँखों में आंसू आ गए. उसे लगा, जैसे वह लात कठपतिया नहीं, उसकी कमर पर पड़ी है. एक-एक कर वह नीचे गिरे पत्थरों को दीवार पर सहेजने लगा.
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थोडा ही आगे बढ़े थे कि बहादुर सिंह ने बताया कि यही पर कटान होगा. ठेकेदार दिन में आएगा और उसके आने के बाद यहीं से कटे पेड़ों की बल्लियाँ नीचे ध्यूल मंदिर के पास ले जायेंगे. वहां से ठेकेदार का ट्रक बल्लियों को काठगोदाम पहुँचा देगा.
“पेड़ तो हम नहीं कटने देंगे’, नीता आगे आकर बहादुर सिंह से बोली,’अच्छा हो आप लोग चले जाएँ. हम सब पेड़ से चिपक जायेंगे. काटना है तो हमें काटिए. आज से पेड़ों का कटान बंद होगा.”
“हम क्या कर सकते हैं मलिक,’ घुसी राम बोला. ‘हमको तो जैसा ठेकेदार कहेगा, वैसा ही करना होगा. आपको जो भी कहना है, ठेकेदार से बात करो.”
“उससे तो हम कहेंगे ही. लेकिन ठेकेदार के आने तक आप कोई पेड़ नहीं काटेंगे.”
“हम अपनी मर्जी से थोड़े ही काटते हैं मेम-साब!’, बहादुर सिंह ने कहा, ‘अपने जंगल को कौन ऐसे काटेगा? ये तो हमारे पितरों का जंगल है. यहाँ मजदूरी न करें तो अपने घर-परिवार को पालेंगे कैसे?”
“क्यों, खेतों में मजदूरी कीजिये, सरकार ने इतनी योजनाएँ शुरू की हैं, उनका लाभ उठाइए. जंगल काटकर तो आप लोग अपने ही पांव पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं.”
“ये तो हम भी समझते हैं हजूर”, घुसी राम बड़बड़ाया, ‘खेतों-नदियों में इतना होता कहाँ है कि परिवार पल सकें. फिर चूल्हा जलाने के लिए तो लकड़ी चाहिए ही. घर-मकान बनाने के लिए भी चाहिए.”
“इसके लिए आप जंगलात वालों से पेड़ छपवाइए. ये क्या बात हुई कि छपवाया एक पेड़ और काटे दस.”
“हमसे तो जैसा ठेकेदार कहेगा, हम वैसा ही करेंगे मालिक! ठेकेदार की बात नहीं मानेंगे तो वो हमें क्यों देगा मजदूरी! मजदूरी नहीं देगा तो खायेंगे क्या?”
“कौन है आपका ठेकेदार?”
“कफलिया साब हैं कोई. लड़के से हैं.”
“अच्छा, हाइडिल वाले कफलिया बाबू का लड़का होगा, संजय कफलिया. डिग्री कॉलेज और युवा जनता दल का रनर प्रेसिडेंट… वो तो गुंडा है.” मिसेज सिंह ने कहा.
“देखिए, आप समझने की कोशिश कीजिए,” नीता शांत ढंग से बोली, “आपके जंगल आपकी ही नहीं, पूरे देश की सुरक्षा करते हैं. यहाँ की नदियाँ पूरे देश को हरा-भरा रखती हैं. हम ये नहीं कहते कि ये जंगल हमारे हैं. आज हालत यह है कि जलाने की लकड़ी के लिए आपको जंगलात के लोगों की कृपा पर रहना पड़ता है. ये जंगल आपके हैं. लेकिन इन लकड़ी-पत्तियों पर कोई बाहर वाला अपना हक जमाये, इसे आप की सहन करते हैं?”
“हम क्या कर सकते हैं साहब! हमें तो सिर्फ काटना आने वाला ठैरा, वो हमने कर दिया. सरकार तक जाने की और उनके साथ बात करने की तमीज कहाँ ठैरी हमारी? ठैरा तो ये हमारे पुखों का जंगल ही.”
“पुरखों को रटने से कुछ नहीं होगा बहादुर सिंह. आपको अपने अधिकारों की लड़ाई लड़नी पड़ेगी. वरना ऐसे ही भूखे-प्यासे भटकते रहोगे.”
“तब हम क्या करें मालिक!”
“एक ही तरीका है. जब ठेकेदार पेड़ कटवाने लगे, पेड़ से चिपक जाना. कहना, काटना है तो हमको काटो. पेड़ हम किसी हालत में नहीं काटने देंगे.”
“तब क्या ठेकेदार कटान बंद करवा देगा?”
“एक बार करके तो देखो. कुछ होगा तो हम तो हैं ही.”
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बहादुर सिंह ने कॉलर से ठेकेदार का हाथ झटकते हुए कहा, “ऐसी वैसी बातें तो मत करो हजूर. ध्यूल महराज की सौगंध है, हम पेड़ नहीं काटेंगे.”
“अच्छा, जोरदार असर पड़ा है उन हराम जादियों का… क्यों अपनी मौत बुला रहा है यार!” ठेकेदार संजय कफलिया ने घुसी राम को बायीं ओर धक्का दिया मगर वह सम्हल नहीं पाया और जिस पत्थर पर उसका पांव पड़ा था, उसके उखड़ने के साथ ही उसका पांव भी उखड़ा. पत्थर के साथ ही उछलता घुसी राम पेड़ों के बीचों-बीच छटकता नीचे घाटी में पहुँच गया.
नैनीताल के परगनाधिकारी सिंह साहब की अध्यक्षता में जाँच समिति गठित हो गयी.
(लेखक के उपन्यास ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ का अंश)
लक्ष्मण सिह बिष्ट ‘बटरोही‘ हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार-कहानीकार हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं. उनकी मुख्य कृतियों में ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ ‘सड़क का भूगोल, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल दा’ और ‘महर ठाकुरों का गांव’ शामिल हैं. काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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