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उत्तराखंडी चेतना की नई शुरुआत या पटाक्षेप

फरवरी 2014 में, जब उस वक़्त के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के त्यागपत्र के बाद हरीश रावत को मुख्यमंत्री की कमान सौंपी गई थी, खतरनाक सियासती उठापटक का सिलसिला तभी से शुरू हुआ था. जैसा कि होना ही था, इसके बाद यह षड्यंत्र राजनीति के दो विरोधी ध्रुवान्तों के गिर्द सिमटता चला गया और उत्तराखंड के मतदाताओं को तोड़ने के लिए हर संभव प्रयास किया गया.

सियासत में आपसी मतभेद और अपनी ताकत आजमाने के साथ दूसरे की छवि को नुकसान पहुंचाने का सिलसिला हमेशा, हर जगह होता ही है, उत्तराखंड में भी शुरू से मौजूद था; मगर ऐसी लड़ाई पहले अलग-अलग मुहल्लों के शरारती दादाओं की एक-दूसरे को पटखनी देकर अपनी ताकत का इज़हार करने जैसा होता था. उत्तराखंड में खतरनाक षड्यंत्र का सिलसिला भाजपा राज में तब शुरू हुआ था जब 8 मार्च, 2007 को एक ईमानदार और कड़क छवि वाले फौजी भुवनचंद्र खंडूड़ी को मुख्यमंत्री बनाया गया और जनता के साथ उनका सीधा संवाद न होने के कारण सियासत में ‘अंतःपुर की राजनीति’ को बल मिला और इसी का परिणाम हुआ 24 जून, 2009 को 808 दिनों के लिए रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ का सिंहासनारोहण. मजेदार बात यह है कि उत्तराखंडी समाज में पहले से मौजूद विरूपित विसंगतियों (गढ़वाल-कुमाऊँ; ठाकुर-ब्राह्मण; देसी-पहाड़ी) आदि के मौजूद रहते वे कभी सतह पर नहीं उभरे थे. संभव है, इसके पीछे पाँच वर्षों तक मुख्यमंत्री रहे बुजुर्ग एनडी तिवारी का अनुभवी और कूटनीतिक शासन कारण रहा हो, मगर 2009 के बाद उत्तराखंडी पहाड़ी समाज जिस तेजी से विकृति के गर्त में धँसता चला गया, वह एक मिसाल है. तिवारी से पहले उत्तराखंड के बंद समाज में यह भेदभाव किस्सों-अपवादों के रूप में भले ही मौजूद रहा हो, ऐसी बातों से यह समाज कभी परिचालित नहीं हुआ. यहाँ तक कि विशाल प्रांत यूपी का हिस्सा होते हुए भी, जहाँ ये संकीर्णताएं भरी पड़ी थीं.

अच्छी बात यह रही कि उत्तराखंड के गंभीर सियासतदानों ने इस नए संकट की संवेदनशीलता को समय रहते महसूस किया और 11 सितंबर, 2011 को 1024 दिनों तक फिर से खंडूड़ीजी को कुर्सी पर बैठाया गया, मगर तब तक बहुत देर हो चुकी थी और जहर काफी फैल चुका था. इसी की परिणति थी 2016 में 9 विधायकों का विद्रोह; 27 मार्च, 2016 को उत्तराखंड में लागू राष्ट्रपति शासन; विद्रोही विधायकों का सम्मिलित रूप से भाजपा का दामन थामना और पूर्व-मुख्यमंत्री हरीश रावत की हरिद्वार ग्रामीण और किच्छा सीटों से एक साथ शर्मनाक पराजय.

खास बात यह है कि राष्ट्रपति शासन के बाद उत्तराखंड का राजनीतिक नेतृत्व सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने अपने हाथ में लिया जो आज तक जारी है. आज हालत यह है कि आम आदमी के लिए किसी प्रादेशिक राजनेता या मंत्री (मुख्यमंत्री समेत) का कोई अस्तित्व नहीं है, जो प्रजातांत्रिक ढांचे के लिए शर्मनाक बात है. आम जनता के लिए यह गंभीर संकट की स्थिति इसलिए भी है कि वह अपनी समस्याओं के समाधान के लिए किसके पास जाए?

इसी ऊहापोह के बीच आ पहुंचा है नयी सरकार के गठन का आदेश. जाहिर है, आम आदमी आज गहरे असमंजस और भ्रम की स्थिति में है. ऐसे में, जैसा कि होता आया है, क्रूर और अवसरपरस्त ताक़तें उस व्यक्ति पर सामूहिक रूप से हमला करेंगी ही, जो उत्तराखंड के आम आदमी के बीच कम-से-कम विवादास्पद और विश्वसनीय व्यक्ति हो और जिसकी जड़ें आम लोगों के बीच फैली हुई हों.

पिछले विधानसभा चुनावों में भी यही रणनीति अपनाई गयी थी; खास बात यह है कि उन दिनों भी प्रतिपक्ष के पास सत्ता थी और वे समस्त संसाधन थे, जिनकी बदौलत कुछ भी संभव किया जा सकता था. उन्हीं दिनों प्रिंट मीडिया को जनता का भावनात्मक दोहन करने के लिए ललचाया गया था; उत्तराखंड जैसे धर्मभीरु और निर्धन समाज को पस्त करने लिए यह रणनीति अनायास नहीं अपनाई गयी थी; उसका परिणाम भी सत्ताधारी वर्ग के अनुकूल रहा; ऐसे में वर्तमान लोकसभा चुनावों के परिणामों का अंदाज लगा पाना बहुत मुश्किल नहीं है.

पहले भी राजनीति के पास अपने अस्तित्व की रक्षा के अनेक विकल्प मौजूद रहते थे, आज के कूटनीतिक मूल्यों वाले समाज में तो इनकी भरमार है और कब कौन-सा मूल्य आपका हितैषी दिखाई देता हुआ आपका गला काट रहा होता है, इसे पकड़ पाना अब कतई आसान नहीं रहा. हालांकि हरीश रावत को राजनीति के रंग में डूबा हुआ खिलाड़ी माना जाता रहा है, मगर एक पहाड़ी आदमी की भावुकता उनमें भी कम नहीं है… उसका खामियाजा भी उन्हें भुगतना पड़ा है. उनकी यह भावुकता उनके मुख्यमंत्रित्व काल में ही अनेक बार उजागर हुई, जैसे सर्वोच्च न्यायालय से जीतने के बाद बाबा केदारनाथ और अपने लोक-देवताओं की शरण में जाकर फूट-फूट कर रोना और बात-बात में अपने देवी-देवताओं की दुहाई देना. ठीक है कि राजनीतिक जीवन के बीच अपनी वंश-परंपरा में पहली बार उभरे इस आदमी के मन में अकेलेपन का अहसास विस्फोट के रूप में उभरा हो, लेकिन ‘आम आदमी राजा को रोते हुए देखना पसंद नहीं करता’. राजनेता से जिस तरह के वस्तुनिष्ठ नजरिए की अपेक्षा होती है, उनमें उसका अभाव तो है ही, उस तरह की चालाकी तो बिलकुल नहीं है, जो समय और परिस्थिति को देखते हुए अपने अर्जित विश्वासों को बदलने की मांग करती है.

बदलते समय की बयार के बीच उत्तराखंड जैसे समस्या-बहुल समाज के लिए, जो आज भी तमाम अंतर्विरोधी मूल्यों से घिरा हुआ है, ऐसे नायक की जरूरत है जो अपनी जड़ों के साथ गहराई से जुड़ा होने के साथ ही नए उपज रहे कॉस्मोपोलिटन समाज की धड़कनों को सुन  सकता हो. सवाल यह कतई नहीं है कि ऐसा नायक सत्ता हासिल कर पाता है या नहीं; जो लोकप्रिय होगा, कभी-न-कभी तो केंद्र में आएगा ही; मगर एक कम पढ़े-लिखे और भोले विश्वासों से घिरे समाज को संतुष्ट करने के लिए उनकी हर चीज को सिरे से स्वीकार कर लेने की तुष्टीकरण की नीति अधिकतर खतरनाक होती है. समाज के लिए भी और उसके नायक के लिए भी.

इस सिलसिले में मैं दो प्रसंगों की ओर ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ. मुख्यमंत्री के रूप में हरीश रावत के शासन काल में ऐसे मौके गिनती के हैं, जिन्हें लेकर उनका वैचारिक घेराव किया गया हो, या कुर्सी संकट में पड़ी हो. उनका बड़ा विरोध एक कृषि भूमि को ‘कौड़ी के भाव’ किसी बिल्डरनुमा ‘बाहरी’ व्यक्ति को बेचना था, जिसके बारे में कहा जाता रहा कि वह उस जगह पर एक नए शैक्षिक ढांचे को खड़ा करना चाहता था. एक और गलत छवि मुख्यमंत्री के विधायक रणजीत सिंह रावत के साथ नजदीकी सम्बन्धों के कारण बनी हालांकि हर शासक के साथ इस तरह के लोगों की दोस्ती होना कोई नई बात नहीं मानी जाती. उनके कार्यकाल के अंतिम दिनों में रिश्वत लेने से जुड़ा जो वीडियो वायरल हुआ था, वह भी आज तक अर्ध सत्य बना हुआ है.

मेरा आशय पूर्व-मुख्यमंत्री का किसी तरह का बचाव करना नहीं है, मेरे द्वारा किए जा रहे बचाव का कोई अर्थ भी नहीं है क्योंकि राजनीति मेरा विषय नहीं है. एक सामान्य पर्यवेक्षक के रूप में मुझे हमेशा लगता रहा है कि उत्तराखंड की राजनीति में जो सार्थक हस्तक्षेप वाले चेहरे उभरे हैं, उनमें खंडूड़ीजी के अलावा हरीश रावत से उम्मीद बंधती दिखाई देती है. खंडूड़ीजी का इलाका राजनीति कभी नहीं रहा, वे एक बेहतर सलाहकार जरूर हैं, मगर नेतृत्व करने वाले नायक के गुण उनमें नहीं हैं. सेना का नेतृत्व करने और जनता का नेतृत्व करने में जमीन-आसमान का फर्क है.

उत्तराखंड की पिछली अठारह वर्ष की यात्रा में पहली बार किसी मुख्यमंत्री ने हरीश रावत के रूप में स्थानीय उपेक्षित संसाधनों के दोहन की बात पूरे विश्वास और प्रामाणिक ढंग से उठाई थी, मगर यह संकल्प धरातल पर ही बना रह गया. इसके लिए दोषी भी स्थानीय लोग ही थे, जो स्थानीय नियोजन की बात तो करते रहे, मगर जिसने भी ऐसी बातों को कार्य रूप में परिणत करने की कोशिश की, लोग उसके विरोध में पिल पड़े. वैसे तो यह मनोवृत्ति हर अविकसित समाज में होती है, उत्तराखंड में कुछ ज्यादा ही है.

कई बार कुछ गलतियाँ ऐसी हो जाती हैं, जिन्हें नहीं होना चाहिए था; मगर एक बार होने के बाद उन गलतियों का संशोधन संभव नहीं हो पाता. दुबारा संशोधित करने के लिए वही व्यक्ति खुद भी कोशिश करे तो अपनी ही परिकल्पना को साकार कर पाना उसके लिए संभव नहीं हो पाता. राजनीति एक तेज भागती प्रक्रिया जरूर दिखाई देती है, मगर सच्ची राजनीति को विचार के धरातल पर खड़ा होना पड़ता है, जहाँ पग-पग पर ठहरकर अपने ही निर्णयों पर पुनर्विचार की जरूरत होती है. राजनीति को एक ही डाल पर बैठी उपनिषद की उन दो चिड़ियों की भूमिका एक साथ निभानी पड़ती है जिनमें से एक पके हुए फल खा रही है और दूसरी उस खाते हुए पक्षी को निहार  रही है. इसे यों भी कह सकते हैं कि एक को तेजी से बदलते परिदृश्य के साथ भागना होता है और दूसरे को अपने समय के विचार-बोध के अनुरूप उसे साकार करना होता है. खास बात यह है कि राजनीति के नेतृत्वकर्ता को ये दोनों काम एक साथ खुद ही करने होते हैं. भौतिक रूप से समय के साथ भागना और विचार के स्तर पर अपने परिवेश और समय को ढालना, भोगी और सन्यासी की भूमिका एक साथ! बिना विचार और दर्शन के राजनीति की कल्पना नहीं की जा सकती.

मुख्यमंत्री रावतजी ने अपने कार्यकाल के अच्छे दिनों में मुझे एक राज्यगीत तैयार करने का काम दिया था, जिसमें प्रदेश भर से चुने हुए दस-बारह रचनाधर्मी शामिल थे. चूंकि उत्तराखंड में इस तरह का यह पहला सुझाव था, इसलिए काम शुरू करने से पहले ही साहित्यकारों के ईगो आड़े आ गए और विरोध शुरू हो गया. कुछ लोगों को ऐतराज था कि इस प्रदेश का राज्यगीत हिन्दी में कैसे हो सकता है, कुछ दूसरों का कहना था कि उनके चहेते कथित-कवियों के लिखे हुए गीत जब पहले से मौजूद हों तो अलग से राज्यगीत लिखाये जाने की जरूरत ही क्या है? वह तो अच्छा हुआ, मुख्यमंत्री ने प्रसिद्ध लोकप्रिय गढ़वाली कवि नरेंद्र सिंह नेगी को सह-अध्यक्ष नियुक्त कर दिया था, जिसके कारण मुझ पर कम गालियाँ पड़ीं. आरोप भी कम मजेदार नहीं लगे. मैं, जो कवि नहीं, एक अध्यापक हूँ, राज्यगीत कैसे लिख सकता हूँ?… (मानो गीत मुझे लिखना हो!) सुझाव दिया गया कि हिन्दी में लिखा गीत तो राज्यगीत हो ही नहीं सकता, अगर जरूरी हो तो उसके उत्तराखंड की तमाम लोक-भाषाओं में अनुवाद होना चाहिए. एक अति-उत्साही संपादक महोदय ने तो मरहूम बंकिम और टैगोर को तक गीत निर्माण के लिए आमंत्रित कर डाला क्योंकि यह काम पिछड़े उत्तराखंडियों के वश का है ही नहीं! एक सज्जन ने मेरी साहित्यिक पात्रता को ही उच्च न्यायालय में चुनौती दे डाली. जैसा कि होना ही था, यह योजना जन्म लेते ही फ्लॉप हो गयी.

अब जरा आज के परिदृश्य पर नजर डालें. यह चुनाव राज्य के मुखिया को चुनने के लिए नहीं लड़ा जा रहा है, फिर भी आज भी सारे समीकरणों के केंद्र में दो ही लोग दिखाई दे रहे हैं. भुवन चंद्र खंडूड़ी और हरीश रावत. पहले अफवाह फैली कि नैनीताल सीट से हरीश रावत के पुत्र चुनाव लड़ रहे हैं और  देखते-देखते उनके विरोध में उन्हीं की पार्टी के नेता-पुत्रों की लाइन खड़ी हो गई. एक नई खबर आई कि खंडूड़ीजी हरीश रावत के साथ मिलकर अपने बेटे मनीष को कांग्रेस में शामिल कर रहे हैं. भाजपा ने इसके लिए कुछ जगह उनके पुतले भी जलाए. दूसरी बार खबर फैली कि नैनीताल सीट से खुद हरीश रावत चुनाव लड़ेंगे. इसी के साथ खबर उड़ी कि नेता प्रतिपक्ष श्रीमती इन्दिरा हृदयेश अपने लिए टिकट मांगने दिल्ली गयी हैं. वहाँ से निराशा हाथ लगने के बाद वह पूर्व सांसद महेंद्र पाल को प्रत्याशी बनाएँगी. इस बीच और भी अनेक आरोप-प्रत्यारोपों की झड़ी लगी, भाजपा ने विवाद समेटने में पहल की और अपने पांचों प्रत्याशी घोषित कर दिये.

चुनाव की घोषणा होने के बाद से ही नैनीताल सीट का दबाव सबसे अधिक रोमांचक बना हुआ है, मानो उत्तराखंड से कोई सांसद नहीं, भावी मुख्यमंत्री का चयन हो रहा हो. लोग आज भी राज्य के नियोजन के रूप में पूर्व मुख्यमंत्री की नीतियों की चर्चा करते नजर आ रहे है. इसका कारण यह भी हो सकता है कि जनता के दिमाग में कोई ऐसा सांसद या मंत्री हो ही नहीं, जिसे उत्तराखंड के संदर्भ में रेखांकित करते हुए वे अपनी बात कह सकें, या, यह भी हो सकता है कि मोदी-शाह की जोड़ी ने इस बीच सचमुच नए उत्तराखंड का ऐसा मॉडल तैयार कर लिया हो कि अब किसी नए-पुराने मंत्री/मुख्यमंत्री या सांसद की उत्तराखंड को जरूरत ही न हो.

इसे राज्य के प्रति उसकी जनता की उदासीनता कहें या उसके नेताओं की. आखिर उत्तराखंड में एक ही नेता हरीश रावत तो नहीं है! ठीक है कि राज्य में मुख्यमंत्री एक ही होता है, उत्तराखंड से सांसद तो पाँच हैं. अगर हरीश रावत जीत भी जाते हैं तो वह इस प्रदेश के सिर्फ 1/5 हिस्से का ही तो प्रतिनिधित्व कर पाएंगे! नए समीकरणों को ध्यान में रखते हुए एक और मनीष खंडूड़ी. मनीष जीत पाते हैं या नहीं, यह तो भविष्य के गर्भ में है, मगर उन्हें हरीश रावत की रणनीति का हिस्सा ही माना जा रहा है. रावत के बहुत करीबी माने जाने वाले प्रदीप टम्टा भी कमजोर नहीं समझे जा रहे है, सवाल यह है कि बाकी के दो कांग्रेसी सांसद प्रत्याशियों और एक बार फिर कुर्सी की उम्मीद लगाए बैठी भाजपा की पूरी टीम का क्या होगा? क्या तब भी समूचे परिदृश्य को हरीश रावत के सपनों के आलोक में देखा जाएगा?

सारी ऊहापोह और समीकरणों को देखते हुए यह बात बहुत साफ दिखाई दे रही है कि 2019 का चुनाव उत्तराखंड का नया इतिहास रचेगा. यह उत्तराखंड की संसदीय चेतना की आंखिरी सांस भी हो सकता है, या एक नए उत्तराखंड के उदय का बहुत साफ संकेत!

लक्ष्मण सिंह बिष्ट ‘बटरोही’ का यह लेख ‘उत्तरांचल पत्रिका’ के अप्रैल 2019 अंक में छप चुका है.

फ़ोटो: मृगेश पाण्डे

 

लक्ष्मण सिह बिष्ट ‘बटरोही‘ हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार-कहानीकार हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं. उनकी मुख्य कृतियों में ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ ‘सड़क का भूगोल, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल दा’ और ‘महर ठाकुरों का गांव’ शामिल हैं. काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

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Girish Lohani

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