फोटो: स्व. कमल जोशी
‘माँ, महान होती है.’
‘माँ, महान ही होती है.’
हमारी सामाजिक व्यवस्था में ये दोनों वाक्य अधूरे हैं. इसका एक तीसरा और पूरक वाक्य भी है-
‘माँ, को महान ही होना चाहिए.’
उसके लिए कोई और रास्ता नहीं. कोई दिशा नहीं. कोई गति नहीं. ‘कुमाता’ का न होना स्त्री के संसार की सबसे खूबसूरत भाव हो सकता है लेकिन पुरुष समाज और पूरे सामाजिक समीकरणों में इससे बड़ी बदसूरती कोई नहीं. ये एक साज़िश है. षणयंत्र है.
इस ‘माता न होती कुमाता’ बात को बहुत सोच-समझ कर प्रचारित किया गया है, पुरुषों द्वारा. (और देखिये बाज़ार भी इसी ताक में था.) हां ! स्त्रियों का इस विचार से कितना ही मोह हो, उनकी भागीदारी भोक्ता के अतिरिक्त बहुत कम है. मान्यताओं को ढोने वाली, संस्कृति के गुरुतम भार को उठाए, रिश्तों के भार के नीचे कुचली जाने वाली स्त्री की कितनी हिस्सेदारी हो सकती है.
बहुत सामान्य है किसी व्यक्ति का दुष्ट होना, झूठा होना, छली होना, अपराधी होना उतना ही सामान्य जितना कि उसका भला होना.
अगर आप इसे बच्चे और माँ के सम्बंध के बारे में समझ रहे हैं, तो ये भूल है आपकी. व्यक्तित्व बहुस्तरीय होता है सभी का लेकिन इतने छद्म उठाना मनोविज्ञान के लिहाज़ से सम्भव ही नहीं है कि आप इसके लिए बहुत अच्छे हों उसके लिए बहुत बुरे. हो सकता है आप इस बात से नाइत्तेफाकी रक्खें. आप कहें कि एक बुरी पत्नी, बहन या बेटी बहुत अच्छी माँ हो सकती है. बिल्कुल हो सकती है. लेकिन इसका विलोम भी सच हो सकता है, होना चाहिए, गौर तलब बात ये है. इस बात की गुंजाइश ही नहीं है, ऐसा सोचना या मानना ग़लत है. इस बात की गुंजाइश ख़त्म ही कर देना इस दुनिया की सबसे बड़ी साज़िशों में से एक.
दुनिया की तमाम स्त्रियों को उनके ममत्व के लिए शुक्रिया कहते हुए उनसे एक गुज़ारिश भी है कि वो इस महानता की लादी गई ठेकेदारी से बाहर आ जाएं. आपका स्त्री होना ज़्यादा महत्वपूर्ण है. कहते हैं लोग कि ये लादी गई नहीं है. ये स्त्रियों के स्व-विवेक का मामला है. हो सकता है हो भी. पर आपको किसी षणयंत्र की बू नहीं आती? आपको इस ठेकेदारी से ही किसी असामान्य समीकरण का भास नहीं होता?
अगर आपको ये लग रहा है कि यहां महानता के प्रतिपक्ष में नीचता की वकालत हो रही है, तो माफ़ कीजियेगा इन खांचों का निर्माण आपके द्वारा किया गया है. यहां बात सिर्फ सामान्य न हो पाने की सम्भावनाओं की समाप्ति पर प्रश्न है.
स्वस्थ समाज वही हो सकता है जिसमें ‘पूत कपूत सुने पर ना माता सुनी कुमाता’ जैसे आप्त वाक्यों की समाप्ति हो जाए. क्योंकि व्यक्ति की गरिमा सबसे महान है उसे बचे रहना चाहिए.
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अमित श्रीवास्तव
उत्तराखण्ड के पुलिस महकमे में काम करने वाले वाले अमित श्रीवास्तव फिलहाल हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात हैं. 6 जुलाई 1978 को जौनपुर में जन्मे अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी दो किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता).
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Beautiful thought
खूबसूरत रचना