सामान्यतः पहाड़ के गांव की महिलाओं के दैनिक जीवन का स्वरूप अत्यधिक व्यस्त और संघर्षमय रहता है. छह ऋतुओं, 12 महीने उनके पास हर माह, हर दिन और हर घंटे के लिए कोई न कोई काम बना ही रहता है. खेत-खलिहान का काम, पशुओं के लिए चारा, जलाऊ लकड़ी, पेय जल की व्यवस्था, बच्चों की देखरेख, उनके पढ़ने-लिखने की चिंता और घर का खर्च चलाने की सारी जिम्मेदारियां ये हंसते-खेलते निभाती रहती हैं. कभी थोड़ा समय मिल गया तो थोरी या बछिया को खुजलाना, लाड़-प्यार या घुघूती-बासूती के साथ बच्चों के दुलार में बीत जाता है. इन सबके बीच उनके भीतर एक अलग तरह का अलगाव और तनाव हर रोज अंकुरित होता रहता है. इसका प्रबंधन वे खुद ही करतीं हैं. (Collective Rural Women of Uttarakhand)
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सारी व्यस्तताओं और अस्तव्यस्त जीवन के बीच से वे हर मौसम में अपने लिए कुछ ऐसा वक्त निकाल लेती हैं जिसमें अड़ोस-पड़ोस और गांव की महिलाओं को एक साथ बैठने, बात करने, अपने दुख-तकलीफ को बांटने के मौके मिल जाते हैं. बतियाना, हंसना, मुस्कराना, जीवन में नये रंग बिखेरना और उसे उत्सवधर्भी बनाने के लम्हे उनके लिए बहुत महत्वपूर्ण होते हैं. अगर वह जंगल में घास काटने जाती हैं तो कम से कम तीन-चार महिलाएं एक साथ जाती हैं. इसी प्रकार जिन गांव में पेयजल की समस्या है वहां पानी भरने के लिए भी गगरी लेकर अनेक महिलाएं साथ नौले या प्राकृतिक जल स्रोत-धारे को जाती हैं. खेतों में बुआई, धान की रोपाई, हुड़की बाल, गुड़ाई, निराई, कटाई यह सब काम अनेक महिलाएं और पुरुष एक साथ मिलकर काम करते हैं. इससे उनके भीतर सामूहिकता, सहयोग और सामंजस्य का भाव विकसित होता है. वे गांवों में अनेक ऐसे कार्यक्रमों का आयोजन कर लेती है जो उनके जीवन क्रम को सहज और तनाव रहित बनाने में मदद करता है. इनमें से ग्रामीण महिलाओं द्वारा आयोजित अनेक छोटे-छोटे परन्तु सार्थक कार्यक्रम निम्न हैं—
पहाड़ी ककड़ी के चीरे बना कर नमक के साथ खाना ऐसा ही एक कार्यक्रम है. पहाड़ी ककड़ी का वजन लगभग एक से डेढ़ किलो तक रहता है. वर्षा ऋतु के अंत और शरद् में धान की मड़ाई और घास काटने का काम शीर्ष पर रहता है. महिलायें अपने-अपने घर से हरी ककड़ी, धनिये मिर्च का नमक साथ ले जाती हैं. गुनगुनी धूप में सब महिलायें साथ बैठ कर ककड़ी के चीरे बनाकर हरे धनिये के नमक के साथ इसे खातीं हैं. आधुनिक बोलचाल में ककड़ी पार्टी भी कह सकते हैं. महिलायें एक साथ बैठकर अनेक समस्याओं पर आपस में चर्चा कर समाधान भी निकालती हैं. एक दूसरे की मदद की भावी कार्य योजना भी बनाती हैं.
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इसी प्रकार ह्यून में जब बाहर बर्फ पड़ने लगता है तो कई महिलाएं और परिवार साथ बैठकर काले या सफेद भट (ब्लैक और वाइट सोयाबीन ) को लकड़ी की अंगीठी या रौन (घर के भीतर लकड़ी जलाने का स्थान जिसके चारों तरफ बैठकर लोग आग भी सेंकते हैं.) में लोहे की जांती के ऊपर तवा रखकर भूनते हैं. जांती एक गोलाकार लोहे का उपकरण है जो तीन पांवों पर टिका होता है. इसके बाद गुड़ या मिश्री के साथ भुने हुए भट्ट के दाने समूह में बैठकर खाते हैं. इस क्रम में कभी कभी गेहूं भी इसी तरह भून कर खाते हैं.
माघ फाल्गुन में सल्द/सल्दी या सलाद बनाकर काफी महिलाएं एक साथ बैठकर उसका लुप्त उठातीं हैं. सल्द या सल्दी बनाने के लिए तिमुल के कोमल दाने, पालक, हरा धनिया, नींबू या पका चूक, हरी मिर्च, नमक की आवश्यकता होती है. पहले हरी मिर्च, हरा धनिया और नमक को ओखली में महीन कूटा जाता है. फिर तिमुल को ओखली में महीन कूट कर इसमें महीन कटा पालक मिलाकर हल्का- हल्का कूट देते हैं. इस तरह सल्दी बन जाती है. उसके बाद ओखली से यह सारी चीजें स्टील की थाली में निकाल ली जाती है इनमें पका हुआ नींबू का रस, जिसे ग्रामीण भाषा में चूक कहते हैं, की कुछ बूंदें सल्दी में मिला दी जाती हैं. उसके बाद तिमुल के पत्ते या अन्य पत्तों में सारे लोगों में यह सल्दी या सलाद बांटा जाता है और काफी संख्या में महिलाएं सल्दी को चाव से खाती है. इसे आप सल्दी,सल्द या सलाद पार्टी कह सकते हैं.
पहाड़ों में एक फल नींबू या चूक होता है जिसका एक दाना वजन में पांव से तीन-चार सौ ग्राम तक का होता है. ह्यून (शरद से बसन्त के बीच का समय) में महिलाओं के पास रबी की फसल के बुआई के बाद काम अपेक्षाकृत कम रहता है. काफी गांव की महिलायें इकट्ठा होकर दो तीन नीबू के दाने, हरा धनियां, भूनी भाग, हरी या लाल मिर्च, चीनी या गुड़ और दही एकत्रित करते हैं. कोई भी अपने घर से कुछ भी सामग्री ला सकता है. नींबू या चूक के दाने छिलकर इसके फांकों (फ्यस) से पतली झिल्ली निकाल कर छोटे-छोटे टुकड़े बनाये जाते हैं. एक दाने के भीतर लगभग एक दर्जन फांक रहते हैं. भुनी भांग, नमक, मिर्च, धनिया और जीरा महीन पीस कर नींबू के टुकड़ों में हाथ से मिलाया जाता है. फिर चीनी या गुड़ डालते हैं. स्वाद के लिए दही भी डाल सकते हैं. इस तरह तैयार हो जाता है पहाड़ी चूक निम्बू. तिमुल, क्वेराल के पत्ते या स्टील के कटोरों में इसे परोस कर जाड़ों की गुनगुनी धूप में खाने का मजा ही कुछ और है. इसे आप निंबू या चूक पार्टी भी कह सकते हैं.
पहाड़ों का ऋतु चक्र मैदानी क्षेत्रों से कुछ भिन्न होता है. आप असोज 15 गते से फाल्गुन 15 गते के बीच के मौसम को सर्दी या स्थानीय भाषा बोली में ह्यून कहते हैं. ह्यून में रात्रि को भोजन के बाद एक आयोजक महिला पूरे गांव की महिलाओं को भजन और संगीत के लिए आमंत्रित करती है. इसे जागरण कहते हैं. इसमें भजन, गीतों के साथ नृत्य का भी कार्यक्रम होता है. आयोजक की तरफ से रात्रि में कटकी चहा/चाय की व्यवस्था रहती है. कटकी का मतलब गुड़ या मिश्री का टुकड़ा अलग से चाय के साथ दिया जाता है. चाय पीजिए एक-एक कटक गुड़ की लगाते जाइये. संगीत, भजन और नृत्य का यह कार्यक्रम ग्रामीण महिलाओं के लिए अपने सुख-दुख बांटने, मेल-मिलाप और तनाव नियंत्रण का अच्छा माध्यम बन जाता है. ऐसे कार्यक्रम अनकहे अपनी सांस्कृतिक विरासत को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तांतरण की कड़ी भी बन जाते हैं.
इस मेल मिलाप से वे अपना तनाव प्रबंधन ही नहीं करतीं वरन खेती-बाड़ी के लिए वल्ट-पल्ट, रुपये पैसे, खाद्य सामग्री की समस्या से निपटने के लिए ऐच-पैच सब तरफ से सेल्फ-हेल्प मोड पर काम करती हैं. (Collective Rural Women of Uttarakhand)
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मूल रूप से ग्राम भदीना-डौणू; बेरीनाग, पिथौरागढ के रहने वाले डॉ. गिरिजा किशोर पाठक सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी हैं.
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