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ऐसे होते थे 1989 में कुमाऊँ में बीड़ी-सिगरेट के विज्ञापन

2018 में दस रुपये की एक छोटी गोल्ड फ्लैक की बत्ती सुनकर मेरी आँखे फटी रह गयी थी क्योंकि मेरा आखिरी छोटे गोल्ड फ्लैक का डिब्बा 24 रुपये का था. ऐसे में उन लोगों का हाल सोचिये जिनने एक जमाने में 25 पैसे की एक बत्ती खरीदी थी.

बीड़ी-सिगरेट हमारे समाज के वे व्यसन हैं जिन्हें एक उम्र तक परदे के पीछे किया जाता है और उसके बाद खुले आम.

बीड़ी और सिगरेट में उतना ही अंतर है जितना इण्डिया और भारत में है. मतलब स्टेटस का अंतर है. तभी आपने हमेशा बीड़ी से बीड़ी जलती जरुर देखी होगी लेकिन कभी सिगरेट से सिगरेट जलती नहीं देखी होगी. 

इन विज्ञापनों की एक ख़ास बात ईमानदारी है. ये बड़ी ईमानदारी से कहते हैं सिगरेट पीजिए, इसकी अंतिम कश तक मजेदार है. आज के विज्ञापनों की तरह नहीं सोडा के विज्ञापन से शराब का प्रचार, पान मसाले के विज्ञापन से गुटखे का प्रचार. 

90 के दशक में भारत में वैश्वीकरण आया जिसने विज्ञापन का स्वरूप ही बदल दिया. विज्ञापन देना, जहां इससे पहले डिसट्रीब्यूटर की जिम्म्देदारी थी वह अब उत्पादक के जिम्मे आ गयी. वैश्वीकरण ने विज्ञापन के पूरे बाजार को बदल दिया.

ख़ैर, श्री लक्ष्मी भंडार अल्मोड़ा द्वारा प्रकाशित ‘पुरवासी’ 1980 से प्रकाशित एक नियमित पत्रिका है. 1984 में इसका पांचवां अंक छपा था.

80 के दशक के अंतिम वर्षों और 90 के दशक के शुरूआती वर्षों में श्री लक्ष्मी भंडार अल्मोड़ा द्वारा प्रकाशित ‘पुरवासी’ के अंकों में छपे बीड़ी और सिगरेट के विज्ञापन के माध्यम से देखिये भारत में वैश्वीकरण के आने से पहले बीड़ी और सिगरेट के विज्ञापन किस तरह छपते थे.

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Girish Lohani

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