छलिया नृत्य और उत्तराखंड एक दूसरे के पूरक बन चुके हैं. छलिया नृत्य जिसे हिन्दी में छोलिया नृत्य कहा जाता है उत्तराखंड का पारम्परिक नृत्य है. दो एक दशक पूर्व उत्तराखंड के समाज में होने वाली शादियों में छलिया नृत्य बेहद आम था. छलिया नृत्य के बारे में कहा जाता है कि यह दरबार से शुरू होकर समाज में आया. हालांकि इस बात का कोई साक्ष्य नहीं है फिर भी कुछ लोक विद्धानों का यह मानना है कि सबसे पहले छलिया नृत्य की शुरुआत पहाड़ के राजाओं ने अपनी रानियों के मनोरंजन के लिये दरबार में की थी.
(Choliya Dance Uttarakhand Folk)
लोक विद्वानों की इस मान्यता के अनुसार युद्ध जीतने के बाद दरबार में जश्न का माहौल होता था. भाट लोग युद्ध में राजा और उसकी सेना की विजय गाथा कहते हैं. विजय गाथा को और अधिक रोचक और जीवंत बनाने के लिये दरबार में ही राजा की सेना के वीर दो दलों में विभाजित हो जाते और युद्ध की वेश-भूषा पहनकर अपना-अपना कौशल दिखाते. सेना के वीर ढाल और तलवारों द्वारा रानी और दरबार में मौजूद अन्य के मनोरंजन के लिये इसका प्रदर्शन करते.
तलवार और ढाल के साथ संगीत जुड़ने के बाद यह इतना आकर्षक हुआ कि इसका प्रदर्शन दरबार में विशेष अवसरों पर किया जाना शुरू हुआ. ढोल की ताल के साथ युद्ध की कलाबाजियों को दरबार के बाहर भी खूब पसंद किया जाने लगा. दरबार के बाद यह पहाड़ के धनी वर्ग के परिवारों में आया. पहाड़ के धनी वर्ग ने इसका आयोजन अपने गांव और घरों में विशेष अवसरों पर करना शुरू किया. यहीं से छलिया नृत्य का समाज के बीच प्रवेश हुआ. समाज के धनी लोगों द्वारा अपने शुभ कार्यों में छलिया नृत्य का यह आयोजन बाद के समय में समाज के अन्य वर्गों ने भी अपनाया.
(Choliya Dance Uttarakhand Folk)
छलिया नृत्य का यह आयोजन कब समाज के सभी शुभ अवसरों का अभिन्न और अनिवार्य अंग बना गया इसका कोई निश्चित समय ज्ञात नहीं है. छलिया नृत्य की शुरुआत होने के पीछे अन्य मान्यता और कही जाता है. कहा जाता है कि पुराने समय में युद्ध के दौरान ढोल का बड़ा महत्त्व हुआ करता था. युद्ध के समय ढोल वादकों की ताल के आधार पर ही सेना अलग-अलग व्यूह रचते थे. महाभारत में अभिमन्यु को मारने के लिये रचे गये चक्रव्यूह के जैसे ही कुमाऊं की मौखिक लोकगीत परम्पराओं में गरुड़ व्यूह, सर्प व्यूह या मयूर व्यूह जैसे वर्णन देखने को मिलते हैं. दूसरी सेना को घेरने से लेकर युद्ध में वीरों की चाल को ढोल के द्वारा नियंत्रित करने के कई साक्ष्य आज भी मौजूद हैं.
मसलन आज भी कुमाऊं और गढ़वाल में विवाह के समय ढोल वादकों द्वारा अलग-अलग बाजा बजाकर उक्त घटना और अपनी स्थिति की सही सूचना दी जाती है. यहां बारात चलने का बाजा, बारात के एक धार से नियत दूरी में पहुंचने का बाजा, गांव की सीमा में प्रवेश या निकास का बाजा आदि सभी कुछ अलग-अलग है. कुछ दशक पहले तक बुजुर्ग बाजा सुनकर ही न केवल बारात की दूरी बता थे. आज भी कुमाऊं और गढ़वाल की पारम्परिक शादियों में प्रत्येक कर्म के लिये ढोल की ताल निश्चित है. बाद के समय दरबार में इसी का प्रतीकात्मक स्वरूप प्रदर्शित किया जाने लगा जो इतना लोकप्रिय हुआ कि समाज ने उसे एक नृत्य के रूप में अपना लिया.
इन दोनों ही मतों को जोड़ दिया जाय तो इस बात की प्रमाणिकता बड़ जाती है कि कुमाऊं यह छलिया नृत्य निश्चित ही दरबार में प्रारंभ हुआ होगा. इस बात में कोई दो राय नहीं कि यह नृत्य बेहद आकर्षक और ओजपूर्ण होता है शायद इसी कारण इसे पहाड़ की संस्कृति का अभिन्न हिस्सा बनने में समय न लगा होगा.
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