समाज

पहाड़ी बारात में एक धार से दूसरे धार बाजों से बातें होती हैं

बचपन में हम बच्चों की एक तमन्ना बलवान रहती थी कि गांव की बारात में हम भी किसी तरह बाराती बनकर घुस जायें. हमें मालूम रहता था कि बड़े हमको बारात में ले नहीं जायेंगे. पर बच्चे भी उस्तादों के उस्ताद बनने की कोशिश करते थे. गांव से बारात चलने को हुई नहीं कि आगे जाने वाले 2 मील के रास्ते तक पहुंच कर गांव की बारात का आने का इंतजार कर रहे होते थे.
(Memories of Marriages in Uttarakhand)

नैल गांव जाने वाली बारात की याद है. हम बच्चे अपने गांव की पल्ली धार में किसी ऊंचे पत्थर पर बैठ कर सामने आती बारात में बाराती बनने को उत्सुक हो रहे थे. बारात जैसे-जैसे हमारे पास आ रही थी, हमारा डर भी बड़ रहा था. हमें मालूम था पिटाई तो होगी परन्तु मार खाकर बाराती बनना हमें मंजूर था. वैसे भी रोज की पिटाई के हम अभ्यस्थ थे. शाम होने को थी. बड़े लोग वापस हमको घर भेज भी नहीं सकते थे. क्या करते नतीजन बुजुर्गों की सिफारिश पर हमें भी बारात में शामिल कर लिया गया.

बाराती का तगमा लगते ही हम फन्नेखां हो गये. कभी बारात से आगे तो कभी उसके दायें-बायें. हम अनचाहे बारातियों पर बड़ों का कान उमठने और धौल जमाने जैसा जुल्म सारे रास्ते भर चलता रहा. पहले नगर गांव की चढ़ाई फिर मिरचोड़ा गांव तक का लम्बा रास्ता तय करने में हम पस्त हो गये. बड़े ताने कसते – और आंदी बरात मा (और आते हो बारात में).

नगें पैरों पर छाले ही छाले. बारात का उत्साह हममें अब कहीं दुबक गया था. फुरकी (पतले कपड़े) पहनकर आये थे. शाम होने को आई तो अक्टूबर की ठंडी ने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया था. रुमक (शाम का झुरपुट अंधेरा) पड़ गयी और नैल गांव पहुंचने की कोई बात तक नहीं हो रही थी.
(Memories of Marriages in Uttarakhand)

शाम होते ही नैल गांव के पास की धार में बारात पसर सी गयी. इधर-उधर से ढोल-दमौ की आवाजों का आदान-प्रदान हो रहा था. तीन-चार जगहों पर आग के चारों ओर बैठ कर पौणें थकान उतार रहे थे.

‘अ भणजा म्यार दगड़ बैठ’ मशकबीन बजाने वाले बुजुर्ग ने कहा.

‘हां ममा’ (हां, मामा) कह कर मैं उनकी चदरी में दुबक गया.

‘अभि लोडि वलूं पर देर च’ (अभी लड़की वालों की तैयारी में देर है.) किसी ने कहा.

बाजे दोनों तरफ बज रहे थे. एक तरफ चुप होते तो दूसरी तरफ शुरू हो जाते. ‘अरे यी त नखंरि गालि दीणां छन.’ (अरे ये तो गंदी गाली दे रहे हैं हमको) ढोल बजाने वाले एक मामा ने ‘पिड बैंणा मैंश’ कहा और तेजी से ढोल बजाने लगे. साथ में दमों वाले मामा भी नये जोश से उनका साथ दे रहे थे.

मशकबीन वाले मामा चुप-चाप मुस्करा रहे थे. उन्होने मुझे बताया – भणजा द्वी बज्जों म बथ्यों कि लडै हूंणी च. (भानजे दोनों ओर के बाजों में बातों की दोस्ताना लड़ाई हो रही है.)

‘‘अयं! कन क्वै ममा जी. (अरे! कैसे मामा जी)’’ मुझे जिज्ञासा हुई.

वो बोले ‘‘बाजे भी आपस में बोलते हैं. जब हम इस धार में पहुंचे ही थे कि लड़की वालों के बाजों ने बताया अभी तैयारी पूरी होने में समय लगेगा. बारात तुम लोग जल्दी ला गये हो. फिर हमने बताया कि ठीक है, हम यहां बैठ कर इंतजार करते हैं, चाय-पाणी भेज दो. पर वहां से जबाब आया कि यह संभव नहीं है. वहां (लड़की वाले) के एक ढोल वाले ने मजाकिया लहजे में इधर (लड़के वाले) के ढोल-दमो वाले को कुछ गालीनुमा कहा दिया. जिससे ये भड़क गये हैं. ये भी उनको दोस्ताना गाली दे रहे हैं.’’ पर उन मामा ने मुझे बच्चा समझकर गाली नहीं बताई. हां कितने बाराती हैं और स्याह पट्टे वालों को भेज दो ये सूचना बाजों ने कैसे दी ये जरूर समझाया. बहुत देर बाद उन्होने ही ढोल खुद बजा कर सयानेपन की सलाह देकर उन बाजगीरों के वाकयुद्ध को विराम दिया.

ढोल विद्या पर उन मामा जी का ज्ञान लगभग 30 साल बाद विख्यात कहानीकार मोहन थपलियाल जी कहानी ‘पमपम बैंड मास्टर की बारात’ पढ कर और पुख्ता हुयी.
(Memories of Marriages in Uttarakhand)

नैल गांव में बारात के साथ पंहुचते ही दूल्हे की दान वाली चारपाई के आस-पास सारे बच्चे लमलेट हो गये. पर पौणें की पिठाई मिलेगी ये लालच नींद पर हावी था. पिठाई लगाने वाले सज्जन जैसे ही पास आये हमने चम्म से खड़े होकर अपना माथा लगभग पिठाई की थाली में घुसा ही दिया था. पिठाई लेने की जल्दी और उनींद में जो थे हम. आस-पास के लोग हंसे पर उसकी किसको परवाह. चव्वनी की उम्मीद में एक रुपया ‘हे ! ब्ई.’ हमको लगा दान की चारपाई में बैठे आसमान में उड़ रहे हैं. बाद के ठाठ् देखिए. अचानक बारातियों को दी जाने वाली मांगलिक रस्मी गालियों में हमारा नाम भी आया तो मारे शरम गरदन नहीं उठी पर अपने बड़ते कद का गुमान भी हुआ. नींद को अब कौन पूछे वो कोसों दूर थी.

दूसरे दिन बारात की विदाई से पहले पिठाई के वक्त हम फिर मुस्तैद थे. उस दौर में पिठाई नाम पुकार कर दी जाती थी. कल रात के एक रुपया मिला कर अब दो रुपये की सम्पत्ति के हम मालिक थे. अपनी दुनिया की सभी ख्वाइशों को खरीदने की हिम्मत आ गयी थी हममें. खो न जाये इसलिए मेरे दो रुपये दादा जी की जेब रूपी गुल्लक में जो गये वो वहीं समाये रहे. मेरे कभी हाथ नहीं आये. पर जब तक मेरी मुठ्ठी में थे तब तक की बादशाही अमीरी की गरमाहट अब भी दिल में महसूस होती है.

नैल गांव की बारात से वापस आने के बाद हम बच्चों में दिन-रात ब्यो की छुंई (बात) होती रहती. बारात में क्या खाया, सुना और देखा. संयोग से जल्दी ही एक बारात चामी से चौंदकोट के किसी गांव में जानी तय थी. मजे की बात यह भी कि उस बारात में दाजि (दादा जी) और ननाजि (नाना जी) दोनों न्यूतेर थे. ‘दाजि मिल भि जाण बारात मा’. (दादाजी, मैं भी जाऊंगा बारात में) मैने कहा. ताजुब्ब कि थोड़ी सी टिप्स में ही काम बन गया. ‘हां किलै ना’ दाजि ने सहमति दी तो मां का पुराना वही राग ‘भारि ठंडु च कन क्वै जैलि’. (कैसे जाओगे, बहुत ठंडा है) पर गांव के और बच्चे भी इस बारात में जा रहे थे. इसलिए मां ने थोड़ी बहुत ना नुकर करके मेरे बारात में जाने पर सहमति दे ही दी.
(Memories of Marriages in Uttarakhand)

मां मुझे कपड़े पहनाते हुए कई बातें कहती जा रही थी. उसमें करने वाली बातें तो एक-दो ही थी बाकी सारी न करने वाली थी. मुख्य बात यह थी कि दाजी का साथ और हाथ नहीं छोड़ना है. मुझे लगा मां ज्यादा ही चिन्ता कर रही है मेरी. मैंने उसे खुश करने को कहा ‘‘इबरि पौणे पिठ्ये मी त्वे थै हि द्यूल दाजी तै नि दीण मिल’’ (इस बार बारात की पिठाई मैं तुझको दूंगा, दादाजी को नहीं).

गरम सुलार-कमीज, स्वेटर, कनटोपा (बदंरछाप) लाल-पीले छींटदार कपड़े के जूते पहने दाजी के साथ गांव से बाहर निकलने तक उसकी न करने वाले कामों की हिदायत मेरा पीछा करती जा रही थी.

चौंदकोट हमारे गांव के ठीक सामने वाला इलाका हुआ. घर की छज्जे से दिन-रात उसके गांव दिखते. रात को इन गांवों से टिम-टिमाती रोशनी को गिनने का खेल रोज ही होता. चौंदकोट इलाके के बौंसाल से पाटीसैंण जाने वाली मोटर सड़क के कुछ हिस्से गांव से दिखाई देते. यदि किस्मत से कभी कोई मोटर दिख जाती तो हम एकटक उधर ही निहारते रहते, जब तक वो मोटर ओझल न हो जाती. जिन बच्चों ने बस देखी थी और उसमें सफर किया था वो बस के बारे में तरह-तरह की बातें बता कर हमारी जिज्ञासा को और बड़ा देते थे.

हम बच्चों का इस शादी में जाने की व्याकुलता का एक जबरदस्त कारण यह था कि हम सड़क और मोटर दोनों को पहली बार देख पायेगें. गांव से बारात चली तो डुंक तक के जाने-पहचाने रास्ते से आगे भागते हुए बारात से बहुत पहले मरगांव की धार पर हम बच्चे पहले ही पहुंच चुके थे. वहां से पलट कर लम्बी सी बारात पहाड़ की ऊंची धार से धीरे-धीरे नीचे आ रही थी. किसी साथी ने कहा ‘बरात यन औणीं जन लम्बु गुरौ (सांप) सरकणूं हौल’. (बारात ऐसी लग रही है जैसे एक लम्बा सांप सरक रहा होगा).

मरगांव से दाजि और नना जी के आस-पास ही मुझे चलने की हिदायत दी गयी. मोटर सड़क पास आने वाली थी. नयार नदी का पैदल पुल पार करने को हुए तो नाना जी का हाथ कसकर पकड़ लिया – हे ! ब्यटा इथगा पाणी अर स्यूंसाट’. पहली बार नदी देखी. मोटर सड़क पर पहुंचे तो साथ वाले ने कहा ‘अब्बे ! पुंगडा जन रस्ता चु यू’ (खेत के जैसे चौड़ा रास्ता है ये तो).

बारात अब सड़क के एकदम बांये तरफ सीधी लाइन में पाखरीसैंण की ओर चल रही थी. हम बच्चे अपने-अपने बड़े-बुर्जुगों का हाथ जकड़े हुए यही सोच रहे थे कब मोटर सड़क पर दौड़ती हुयी दिखाई दे. अचानक बहुत दूर से आती गुर्रायट जब सामने आती दिखाई देने लगी तो सारा जोश फाख्ता हो गया. कई बच्चे तो डर के मारे अपने सयानों की गोदी-कंधों में सरर से विराजमान हो गये थे. संयोग से गाड़ी हमारे बिल्कुल पास आकर रुकी. लाल-लाल सी बड़ी मुहं वाली बस के अंदर से झोलों से लदे-फदे कुछ लोग उतरे. फिर पीछे की सीढ़ी से चढ़कर छत से उनके संदूक आदि सामानों को उतारा गया. हम स्तब्ध से एकटक ये सब देखे जा रहे थे.

गाड़ी ढेर सारा धुंआ हम पर फैंकती गुर्र से आगे चल दी. वो डीजल के धुंये की सुंगध बड़ी मनमोहक थी. गाड़ी के ओझल होने तक हमारी नजर उसका पीछा करती रही.

गाड़ी गयी और सड़क पार करके पैदल रास्ते से बारात पहाड़ पर चढाई चढ़ने लगी. बारात में एक हमसे बहुत बड़ा लड़का आंख में धूप-छांव का चश्मा और रंगीन चैक वाली पतली कमीज पहने था. बारात के आगे-पीछे सर-सर चलकर कालर के अंदर एक रेशमी रूमाल को लपेटता और बड़ी अदा से कभी हाथों से फर्र से लहराता.

रात को भौत ठंडा लगेगा, तूने गरम कपड़े नहीं पहने हैं रे. लाया नहीं क्या? एक बुर्जग ने उससे पूछा.

‘नहीं यहां बहुत गर्मी है’ उसने तपाक से उत्तर दिया.

हमें पता चला वह दिल्ली से आया है. रात को जब जनवासे में सब अपने साथ लाये गरम कम्बल-पंखी में दुबके थे तो वो लड़का ठंड से डुगडुगा रहा था. उसी समय किसी सयाने ने उससे कहा – ब्यट्या अपणु चश्म पैण ल्य. कुछ त जड्डू रुकुलू. (बेटा अपना चश्मा ही पहन ले कुछ तो जाड़ा कम लगेगा.)
(Memories of Marriages in Uttarakhand)

पैदल खड़ी चढ़ाई में चलते हुए बार-बार पीछे मुड़कर नीचे सड़क की ओर नजर जरूर जाती. लालच यही कि कोई चलती गाड़ी दिख जाय. मोटर सड़क से बहुत दूर आने पर भी हमारी बहस मोटर गाड़ी पर अटकी हुयी थी. अपने गांव से जब हम बौसाल-पाटीसैंण के बीच सड़क पर दौड़ती बस को देखते तो बस के ऊपरी भाग में दिखने वाली आकृतियों को आदमी समझकर गिनते. आज पता चला कि वो तो सामान है पैसेजरों का. जिसे खड़ा करके गाड़ी की छत पर सैट करके रखा जाता है. आदमी लोग तो बस क पुट्ग मा रैदिन बैठ्यां. (आदमी तो बस के पेट में बैठे रहते हैं) एक ने बोला. चट से दूसरा बोल पडा ‘कनक्वै (किस तरह)’ जबाब हममें से किसी के पास नहीं था. यह हमारे लिए अभी भी रहस्य था.

मोटर सड़क से हटकर खड़ी चढाई में पैदल चलते हुए काफी दूर हम आ गये थे, पर बातें गाड़ी ही की चल रही थी. एक ऊंची धार पर थकान हल्की करने बराती जहां-तहां लमलैट होने लगे. बराती बने हम बच्चे भी उस धार में बैठकर एकटक नीचे की ओर मोटर रोड को ही देखे जा रहे थे कि संयोग से कोई चलती बस दिख जाय.

सबसे ज्यादा अचरज और मजा तो हमें चौंदकोट की इस धार से अपने गांव चामी और अगल-बगल के गांवों को दूर से देखकर हो रहा था. दाजी (दादा जी) ने तब वहां से एक-एक गांव की ओर इशारा करके उनके बारे में बताया. इतनी दूर से भी हमारा अपना आम का पेड़ दिखना मेरे इतराने के लिए काफी था.

बारात में एक आदमी चलता-फिरता दुकानदार बना सबके आगे-पीछे डोल रहा था. उसके कुर्ते-सलवार की लम्बी-चौड़ी जेबों में बारातियों को बेचने के लिए बीड़ी-सिगरेट, माचिस, तम्बाखू की पिंडी, लमचूस, बिस्कुट आदि और भी समान भरा पड़ा था. आजकल के मोबाइल मॉल की तरह.
(Memories of Marriages in Uttarakhand)

वैसे ज्यादातर बाराती अपना इंतजाम करके ही आये थे. तम्बाखू, चिलम, छोटा हुक्का उनके पास अपना ही था. कई पत्तबीडा बनाकर उसी से तम्बाखू पीने का आनंद ले रहे थे. उनकी बातचीत खेतीबाड़ी से लेकर नाते-रिस्तेदारी की कुशल-क्षेम तक ही थी. आजकल की तरह राजनीति की बातों से वे दूर थे.

मैने अपने दोस्त बराती को बताया था कि बाजे भी आपस में बातें करते हैं. उसे यकीन दिलाने के लिए मशकबीन बजाने वाले मामा जी के पास ले गया.

‘भणजा आज मी तैं थैं जददू दिखोंद’ (भानजा, आज में तुम्हें जादू दिखाता हूं.) उस मामा ने मेरी बात के सर्मथन मैं कहा.

उस मशकबीन वाले मामा ने ऊपर की धार के गांव की ओर इशारा किया और बोला कि ‘‘हमारी बारात उसी गांव से होकर गुजरेगी. उस गांव में मेरा कोई रिश्तेदार है. अब मैं यहां से ढोल बजा कर उसे अपने आने की सूचना दे रहा हूं. साथ ही यह अनुरोध भी कर रहा हूं कि चार चाय गिलास में भरकर रास्ते में ला जाये.’’

उन मामा जी ने जैसे ही ढोल बजाकर यह सूचना लगभग एक किमी ऊपर की ओर बसे गांव में अपने रिश्तेदार को दी तो कुछ ही मिनटों में ऊपर गांव से भी ढोल की आवाज प्रति उत्तर में आयी.

‘‘मामा जी क्या खबर आयी है वहां से.’’ मैंने पूछा.

‘‘चाय के साथ पकौड़े भी बना रहे है वो हमारे लिए.’’ वे मुस्करा के बोले.

गजब तो तब हुआ जब हम उस गांव के बगल के रास्ते से गुजरने को हुए तो ढोल बजाते उस गांव के लोगों ने हमारी बारात का स्वागत चाय-पकौड़े के साथ किया. तब हम बच्चों को चाय पीने का अमल नहीं था पर पकौड़ों पर मन ललचा रहा था. मालूम था कि हम उनके हाथ की चाय-पकौड़ी नहीं ले सकते फिर भी गरम और डमडमी पकौड़ियों से हमने अपनी जेबें भर ली. ‘यार कैमा न बोली, तैं थैं विद्या कसम’ आपस में कसम बोलकर हम बड़ों की डांट-मार से बचना भी चाहते थे.
(Memories of Marriages in Uttarakhand)

रास्ते की लगातार चढ़ती चढाई में भूख से बिलबिलाती हमारी पेट की अंतड़ियों को ये चलमली पकौडियां जीवनदान दे रही थी. सुबह गांव में बारात का भात खाने के बाद कुछ लमचूस ही चूसे थे हमने. दोस्त बराती ने कहा ‘इबरि त ड्यार (घर) मा श्याम वक्तै कल्यो कि रुवटी भि खाण भैग्या हौला’ ( इस समय तो घर में शाम के नाश्ते की रोटी भी खाने लगे होंगे.)

रास्ते में अपने रिश्तेदारों-परिचितों से मिलते-मिलाते बारात छितरी हुई आगे बढ रही थी. गांव के ऊपरी हिस्से के बाट्ट (रास्ते) के बगल के एक बड़े से घर में नाना जी, दादा जी के साथ हमारे गांव के कुछ और बाराती आराम फरमाते दिखे. जल्दी से हमने जेबों की पकौडियां पेट के हवाले किया. पता चला ये हमारे परिवार की फूफू (बुआ) का घर है.

फूफू को तो सेवा लगानी ही ठैरी पर उसकी सास से लेकर जिठानी, देवरानी और पास-पडोसियों के पैर छूते-छूते पसीना निकल जाने वाला हुआ. सबसे ज्यादा हिचक अपरिचित महिलाओं का हम बच्चों की भुक्की पर भुक्की लेते समय लगी. एक हो तो ठीक पर यहां तो ‘हे बाबा-हे बाबा’ पुचकार कर हम बच्चों के उन्होंने गाल-कान लाल ही कर दिए थे. ‘यार भारि गिजगिजी लगणीं मी थैं’ (यार मुझे बहुत गिजगिजी लग रही है) एक बच्चे ने बोला तो दूसरे ने इशारा किया ‘अबे चुप्प रये चा-पकौडा आणा छन’.
(Memories of Marriages in Uttarakhand)

आगे चलने को हुए तो उस फूफू ने बाराती बने बच्चों को खूब सारे अखरोट दिए. मुलायम फट्ट से फूटने वाले अखौड हमने पहली बार देखे. हमारे गांव में अखरोट के पेड़ काठी ही थे. पहले बड़े से पत्थर से फोड़ो फिर सुई से निकालकर ही खा पाते थे.

उस गांव की धार के बाद जंगल का रास्ता शुरू हुआ तो घसेरियों के बाजूबंद गीत सुनाई देने लगे. घास-लकड़ी काटती हुयी एक महिला कोई लोकगीत ऊंचे स्वर में गाती तो गधेरे पार से दूसरी उस गीत का प्रति उत्तर देती. फिर एक साथ कई घस्यारिनों के सामुहिक स्वर सुनाई देते. उनकी घर वापसी का समय हो गया था. उन्होंने घास-लकड़ी के बिठ्गे (गठ्ठर) लगा लिए थे.

गधेरा पार करते ही जंगल ज्यादा ही घना होता जा रहा था. एक सयाने ने कहा ‘बाघ अर रिक्ख भी रैंदिन ये जंगल मा. (बाघ और भालू भी रहते हैं इस जंगल में)’ हमारी सिट्टी-पिट्टी गुम. पर ऐसा भी मन हो रहा कि बाघ दिख ही जाय. अचानक उस घनघोर जंगल में न्योली (एकल स्वर में खुदेड गीत) गाता एक आदमी घास चरती बकरियों के बीच दिखाई दिया तो एक दोस्त ने बोला – बाघ पैलि बाकरा खालू हमतैं किले भुकालू (बाघ पहले बकरी खायेगा हमें क्यों भभोडेगा).
(Memories of Marriages in Uttarakhand)

हमारी बारात उतराई में थी और नीचे से एक दूसरी बारात ऊपर की ओर हमारे ही रास्ते को आ रही थी. दो-तीन लोगों की जोर की आवाज आई कि – ब्योला लुकाओ, ब्योला लुकाओ (दूल्हे को छुपाओ). ब्योला जी हमारे पास ही चल रहे थे. हमारे साथ वो भी डरे-झिझके कि क्या बात हो गयी?

पंडित जी भी पता नहीं किधर से तुरंत उस जगह पर हाजिर हो गये. रास्ते से दूर हट कर पंडित जी और ब्योला जी ऊंकूडू बैठ गये. ब्योला ने अपना पूरा मुण्ड (सिर) पंडित की खुचली (गोदी) में छुपा दिया. इतना ही नहीं उनके चारों ओर बड़ों के साथ हम बच्चों ने भी गोल अभेद दीवार बना डाली कि देखें बच्चू, कौन देख पायेगा हमारे प्यारे वरनारायण को. उकाल लगी बारात के हमारे पास से दूर जाने के बाद ही गोल घेरे में पंडित जी की गोद में छुपे वरनारायण जी को मुक्ति मिल पाई.

पंडित जी ने बताया कि दो बरातों का रास्ते में आमना-सामना नहीं होना चाहिए. दो दुल्हे तो एक दूसरे को देख ही नहीं सकते. भारी अपशकुन होता है.
(Memories of Marriages in Uttarakhand)

बारात घने जंगल के रास्ते में जो घुसी तो उसके बाद बाजे बंद हो गये. सबको चुपचाप चलने को कहा गया. दूल्हे जी को तो आज की ‘जेड प्लस’ सुरक्षा में जैसे चलाया गया. सयाने उसे घेर कर बिना बात करे ले जा रहे थे. हम परेशान कि ‘अब क्य ह्वाई’ ( अब क्या हुआ)? लेकिन कोई बताने को तैयार नहीं था.

घनघोर जंगल की धार हमने पार कर ली तब हमको बताया कि – वो जंगल अंछरियों (प्रेतात्मा) का था. बाजा बजने से वो जाग जाती हैं फिर नाचने-गाने लगती हैं. अंछरियां बारात को रोक कर सुंदर बच्चों और पुरुषों विशेष कर दूल्हे को हर (अपहरण) लेती हैं.

कभी का एक किस्सा है कि एक बारात में अंछरियों ने दूल्हे को हर लिया तब दूसरे को दूल्हा बनाना पडा. कहीं अंछरियां हमारी बारात के दूल्हे का अपहरण कर ले तो तुम बच्चों में से ही किसी को ब्योला बनाना पड़ेगा. हम बच्चे हक्के-बक्के जैसे किसी ने अचानक इस्टैचू बोल दिया हो.
(Memories of Marriages in Uttarakhand)

– डॉ. अरुण कुकसाल

वरिष्ठ पत्रकार व संस्कृतिकर्मी अरुण कुकसाल का यह लेख देहरादून डिस्कवर से साभार लिया गया है.
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  • 👍👍👍सचमुच बहुत ही सजीव वर्णन किया गया है। बचपन में हम भी ऐसे ही थे, और हमारे साथ भी कुछ-कुछ ऐसा ही हो चुका है।

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