ईजा की शादी 11 साल की उम्र में हो गयी थी. दो साल पहले ही ताऊ डिगर सिंह की शादी ईजा की चचेरी बहन राधा से हुई थी. तभी तय हुआ कि उसी परिवार में एक और लड़की है कुंती. (Childhood Memoir Govind Singh)
एक दिन चंचल सिंह के लिये उसे ब्याह कर ले आए. कोई घमचम नहीं हुई. बस, परिवार के दो-चार सयाने लोग लीमा गए और वहां से लड़की को ले आए.
सौगांव पहुँचने से पहले एक नया कपड़ा ख़रीदा गया और इकौड़ा ही सिलकर पहनाया गया, फेरे करवाए और शादी मान ली गई. लेकिन शादी के तीसरे दिन ही पति फ़ौज में भर्ती होने के लिये घर से भाग गए और साल भर भी न हुआ था कि उनके लापता होने की ख़बर आ गई.
सरकार ने भी उन्हें मृतक मान लिया था. ईजा जब 15-16 साल की हुई तो लोग तरह-तरह के ताने कसने लगे. इस उम्र में किसी भी युवती के लिए बिना पति के ससुराल में रहना आसान नहीं था. इसलिए मां ने मायके में ही रहना बेहतर समझा. (Childhood Memoir Govind Singh)
पति को लापता हुए दो साल ही हुए होंगे कि सरकार से पेंशन की सूचना आ गई. लोग यही कहते थे चंचल सिंह मर गया होगा.
लेकिन मां कहना है कि उन्हें कभी भी यह नहीं लगा कि वह विधवा हो गई हैं. लीमा में नाना जी के पास अनेक लोग कुंती देवी का हाथ मांगने आए. लेकिन मां ने कहा मैं नहीं जाऊंगी. मेरा पति जीवित है.
लोग गहने लेकर आते और प्रलोभन देते थे लेकिन मां नहीं मानी. भले मायके में रहीं लेकिन उनके लिये पति जीवित थे. इस तरह मां ने 12 साल काट दिए, इस इंतजार में कि एक दिन चंचल सिंह जरुर आएगा.
भारत की पहली लड़ाका कौम : काली-कुमाऊँ के ‘पैका’ और उड़ीसा के ‘पाइका’ योद्धा
पिताजी कहते थे कि वे अपने कुछ साथियों के साथ चीन के घेरे में आ गये थे. ये सब लोग चीन के युद्ध बंदी थे. उन्हें कालकोठरी में रखा गया था दिन में एक बार राशन के डिब्बे में गन्दा सा खाना डाल दिया जाता.
फिर एक दिन अजीब घटना घटी. भयानक ठण्ड थी. तीन-चार दिन तक खाना देने वाला कोई भी नहीं आया. चंचल सिंह बेहोश हो गये. बेहोशी में ही कोई उन्हें कचरे के ढेर में फैंक गया.
अगले दिन खुले आकाश के नीचे चंचल सिंह की आंखे खुली. वक्त का उठाकर धीरे-धीरे रैंगकर वहां से खिसके और किसी नदी किनारे पहुंचे. जंगल में केले के पेड़ थे, केले तो नहीं लेकिन जंगल में जो फल मिला, खा लिया. छिपते-छिपाते और कुली-कभाड़ी का काम करते हुए रंगून पहुंचे.
रंगून में एक होटल में नौकरी कर ली. कई वर्ष चीन में युद्धबंधी होने के कारण उन्हें थोड़ी-थोड़ी चीनी भाषा आ गई थी. एक दिन उन्होंने रंगून में एक चीनी जासूस को पकड़ पुलिस के हवाले किया.
साउथ रंगून के कमिश्नर ने खुश होकर उन्हें 50 रुपये और एक प्रमाण पत्र दिया. कमिश्नर ने जब चंचल सिंह से उसके बारे में पूछा तो उसने अपनी आप-बीती सुनाई. कमिश्नर ने दुबारा नौकरी की पेशकश की.
उनके सारे कागजात महायुद्ध की बलि चढ़ चुके थे इसलिए फ़ौज में वही पद मिलना संभव न था. कमिश्नर की कृपा से उन्हें बर्मा पुलिस में नौकरी मिली. तीन साल बर्मा पुलिस में नौकरी कर 1949 में पेंशन लेकर घर आये.
‘पहाड़‘ में छपे गोविन्द सिंह के लेख ‘बचपन की छवियां’ से
देश के वरिष्ठ संपादकों में शुमार प्रो. गोविन्द सिंह सभी महत्वपूर्ण हिन्दी अखबारों-पत्रिकाओं के लिए काम कर चुके हैं. ‘अमर उजाला’ के मुख्य सम्पादक रहे गोविन्द सिंह पहले उत्तराखंड मुक्त विश्विद्यालय और फिर जम्मू विश्विद्यालय के मीडिया अध्ययन विभागों के प्रमुख रह चुके हैं. पिथौरागढ़ जिले से ताल्लुक रखते हैं.
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