जब मैं पहली बार शहर के स्कूल पहुँचा
सन 1955 तक मैंने गाँव के स्कूल में पढ़ा जो चारों ओर से ऊँची-नीची पहाड़ियों से घिरे खुले पठारनुमा शिखर पर एक तपस्वी की तरह हर वक़्त हमारी आँखों के सामने मौजूद रहता था. माँ की मृत्यु के दो साल के बाद पिताजी को लगा होगा कि वो मेरी परवरिश एक माँ की तरह नहीं कर पाएंगे, इसलिए मुझे इस स्कूल में भेज दिया. मिट्टी-पत्थर से बने दो कमरों में एक-एक काठ की कुर्सी और भूरे रंग की चार गुणा दो फुट की मेज पड़ी रहती जो हमारे अध्यापक ज्वाला दत्त जी के प्रयोग के लिए थी. हमारे ये गुरूजी चालीस साल के एक विधुर थे, जिनके बारे में कहा जाता था कि उन्होंने ब्रह्मचर्य धारण किया है, हालाँकि हमें यह नहीं मालूम था कि ब्रह्मचर्य क्या होता है. पूरे स्कूल परिसर में वो अकेले रहते थे, पास के एक झरने से वह हर सुबह और शाम बाल्टी में पानी भर लाते थे; शाम के वक़्त स्कूल छोड़ने से पहले हम छात्र गुरूजी के लिए सूखी लकड़ी बटोर कर अपनी कक्षा के कोने पर रख आते थे. कमरे के आगे एक आड़ में उन्होंने चिकने समतल पत्थरों से चूल्हा बनाया था, जिसे वह पास की छोटी-सी गुफा में मिलने वाली गेरुआ मिट्टी से लीपे रखते. रात के खाने के बाद वह चूल्हे के ऊपर पानी छिड़क कर आग बुझा देते, जब कि भोर की किरणों के फूटने के साथ ही वह अपनी सदाबहार सफ़ेद धोती के साथ जल-स्रोत के पास जाते, हर ऋतु में ताज़ा पानी से नहाते, पहनी हुई धोती को पानी के पोखर में खंगालकर धोते और हमारे समझ में न आने वाले मन्त्रों के उच्चारण के साथ अपने कमरे में लौट जाते.
गुरूजी के सुबह का भोजन खिचड़ी था, जो रात्रि भोज के अलावा उनका एकमात्र आहार था. आज की शब्दावली में उसे हम ब्रैंच कह सकते हैं, लेकिन दुर्भाग्य, हम उन दिनों इस शब्द से परिचित नहीं थे. कभी-कभार अगर हमें एकदम सुबह उनके घर और हमारे स्कूल जाने का मौका मिलता तो हम लोग उनके वास्तुशिल्प की अद्भुत कारीगरी -चूल्हे- के ऊपर कांसे की ‘भड्डू’ (संकरे मुँह वाला पतीला) पर दाल, सब्जी, चावल, नमक. हल्दी, मिर्च, घी के साथ उबलते उनके भारी-भरकम मंत्रों का साक्षात् दर्शन कर सकते थे. गुरूजी कभी उमंग में आकर संस्कृत भाषा के उन लम्बे-लम्बे वाक्यों का पहाड़ी भाषा में अर्थ भी बताते, जो कभी तो हल्के-हल्के समझ में आते, मगर ज्यादातर हमारे सिर के ऊपर से गुजर जाते.
कभी-कभी गुरूजी हमें स्कूल–समय के अलावा भी बुलाते, मगर कभी अपने हिस्से का काम हमें नहीं करने देते. उनके कमरे में लकड़ी पहुँचाने का काम भी हम उनके कहने पर नहीं, घर वालों की जिद पर पहुँचा आते; मगर इस काम से भी वो खास खुश नहीं होते… ज्यादातर वो तब खुश होते थे, जब किसी का लेख सुन्दर होता, या कोई ग्यारह के बाद के पहाड़े एक साँस में सुना देता. तब वो इतने खुश होते कि ऐसे बच्चे की कान में रंगीन चाक टिकाकर उपहार में देते और यह उपहार हर बच्चे के लिए जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि होता. हमें मालूम नहीं था कि गुरूजी हमसे कोई फीस भी लेते हैं, (बाद में मालूम हुआ कि उनकी फीस बच्चे के द्वारा की गई उपलब्धियां होती थी, जिसका वो ढिंढोरा नहीं पीटते थे, मगर उसे सिर्फ महसूस करते थे और ऐसे मौकों पर उनकी आँखों से आंसू झरने लगते थे.
नैनीताल जाने के बाद मेरी बुआ के घर के ठीक सामने रहने वाले उनके भतीजे आनंद लाल साह उर्फ़ ‘पादुकेतन’, जो एक जूतों की दुकान चलाते थे, अपने कंधे में बैठाकर मुझे बाजार के कोने पर स्थित नगर पालिका जूनियर हाईस्कूल की सातवीं कक्षा में भर्ती करा आये थे. गठीली देह, डोटियाली चेहरे, गुस्सैल आँखों और दिल में करुणा का सागर समेटे इस पच्चीस-तीस वर्षीय इन्सान ने मुझे हेड मास्टर ध्यान सिंह रावत को सौपते हुए कहा, ‘लीजिये मास्साब, संभालिये अपना बालक’; और उसी वक़्त हेडमास्साब ने कक्षा सात से मेरे क्लासटीचर बिशन दत्त पन्त उर्फ़ ‘बिशन गुरू’ को सौंपते हुए कहा, ‘ लिख दो गुरू इसका नाम अपने रजिस्टर में.’
बिशन गुरू स्कूल के सबसे सख्त शिक्षकों में माने जाते थे. उनके हाथ में हमेशा एक हरी संटी रहती थी, जिससे वो, थोड़ी सी असावधानी होने पर तड़ातड़ पीटने लगते थे.
पहले महीने की फीस तो आनंददा जमा कर गए थे, मगर दूसरे महीने की फीस पांच आने बुआ ने जब मुझे दी और जब मैं उसे लेकर अपने क्लासटीचर बिशन गुरू के पास जमा करने ले गया, उनके आतंक का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पैसे अपने साथ से उनके हाथ में डालते हुए इतना घबरा गया था कि मेरा हाथ कांपने लगा और घबराहट में चवन्नी हाथ से गिरी और लकड़ी के फर्श पर के ढीले जोड़ों पर से नीचे चली गई. चवन्नी वहां से निकाली नहीं जा सकती थी जब तक कि पूरा फर्श उखाड़ा न जाए.
मैं न फर्श उखाड़ सकता था और न ही दूसरी चवन्नी ला सकता था. उस दिन बिशन गुरू ने मुझे पूरी ताकत से चूटा और दूसरे दिन चवन्नी लाने अन्यथा नाम काट दिए जाने का खौफ देकर उसी क्षण कक्षा से निकल दिया. उस दिन मैं रात भर सो नहीं पाया क्योंकि दूसरे दिन मुझे तय करना था कि मैं बुआ के आदेश का पालन करते हुए स्कूल जाता या बिशन गुरू के आदेशानुसार कहीं से भी चवन्नी का इंतजाम करता. दोनों ही काम असंभव थे, क्योंकि बुआ से दूसरी चवन्नी मिलनी संभव नहीं और बिशन गुरू को चाहिए थी चवन्नी. उसी दिन मुझे लगा कि संसार की सबसे सुन्दर और मूल्यवान चीज चवन्नी ही होती है. उस दिन अगर कोई मुझे चवन्नी देकर मेरे प्राण भी मांग लेता या उसके बदले व्यभिचार भी कर लेता तो मैं ख़ुशी-ख़ुशी तैयार हो जाता.
दूसरे दिन दस बजे हम लोगों की प्रार्थना आरम्भ हुई ‘हे प्रभो, आनंद दाता, ज्ञान हमको दीजिए…’ और मैं गा रहा था, ‘हे प्रभो, आनंद दाता, चवन्नी मुझको दीजिये…’ लेकिन चवन्नी लकड़ी के छेद से उछलकर मेरे हाथ में तो नहीं आ सकती थी. इसलिए वही हुआ, जो होना था. अगले पल मैं बिशन गुरू की आग्नेय आँखों और चवन्नी की मांग के सामने खड़ा था. इससे पहले कि बिशन गुरू का वाक्य पूरा होता, मैं दहाड़ मर कर रोने लगा. वह संसार का सबसे करुण दृश्य था. उसकी तुलना के लिए अगर संसार की सारी औरतों को एक साथ भी रुला दिया जाता तो वह भी कमजोर उपमा होती. एक ओर बिशन गुरू मुझे संटियाते रहे , दूसरी ओर मैं गवारों की तरह रोता रहा.
बिशन गुरू जब पीटते-पीटते थक गए, उन्होंने छड़ी एक ओर छटकाई और जेब से पांच आने निकालकर रजिस्टर के ऊपर रखे और मेरे नाम के आगे के खाने में ‘उ’ (उपस्थित) लिखा और रजिस्टर ढक दिया. जीवन में पहली बार मुझे बिशन गुरू के रूप में भगवान के साक्षात् दर्शन हुए.
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लक्ष्मण सिह बिष्ट ‘बटरोही‘ हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार-कहानीकार हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं. उनकी मुख्य कृतियों में ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ ‘सड़क का भूगोल, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल दा’ और ‘महर ठाकुरों का गांव’ शामिल हैं. काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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उम्दा संस्मरण।
बट रोही जी का उपन्यास ' थोकदार किसी की नहीं सुनता' पढ़ा है। साफ़ सफ़ कहूं तो यह मेरे मन पर कोई छाप नहीं छोड़ पाया। बट रोही जी के संस्मरण ज्यादा रोचक हैं।