यह यात्रा अलग तरह की थी; ऐसी यात्रा जिसमें असमय हमसे छिन गए कालजयी कवि चंद्रकुंवर बर्त्वाल की अंतिम यात्रा में हमें शामिल होना था. रामगढ़ की महादेवी वर्मा के घर ‘मीरा कुटीर’ से चले हम लोग अगस्त्यमुनि की मन्दाकिनी किनारे बसे चंद्रकुंवर के ननिहाल के गाँव पवालिया तक की यात्रा कर रहे थे. इस गाँव में 21 अगस्त, 1919 को पैदा हुए, 28 वर्ष 24 दिन की उम्र गुजारकर एक अतुलनीय हिंदी कवि की मृत्यु हो गई थी. तीन वर्षों तक वह अकेला पशुओं के एक गोठ में जिंदगी और मौत के बीच जंग लड़ता रहा था, मगर अंततः हार कर अपनी ही स्रोतस्विनी गंगा के अंक में समा गया.
(Chandrakunwar Bartwal Article by Batrohi)
मेरे साथ पच्चीस वर्षीय मेरा शोध छात्र विक्रम सिंह राठौर था, जाहिर है कि वह इस यात्रा में कहीं अधिक उत्साहित और भावुक था. हमारा पहला पड़ाव रुद्रप्रयाग था. 14 सितम्बर, 2007 को स्थानीय साहित्यकारों ने वहां एक आयोजन किया था जिसमें लोक-कवि नरेंद्र सिंह नेगी अध्यक्ष थे और गढ़वाल विवि के हिंदी विभाग की अध्यक्ष उमा मैठाणी और उनके पति नगर पालिका परिषद्, श्रीनगर के अध्यक्ष कृष्णानंद मैठाणी विशिष्ट अतिथि. संयोजक ओमप्रकाश सेमवाल ने रुद्रप्रयाग के बस अड्डे पर ही सड़क किनारे मंच तैयार करवाया था और मंच के चारों ओर ही नहीं, किनारे की उठी दीवार की सीढ़ियों पर भी बहुत बड़ी संख्या में लोग जमा थे, अपने ही गाँव के कवि के बारे में जानने और उनकी साहित्यिक यात्रा के रोमांचक अनुभवों को जानने की प्यास से लबालब भरे हुए ग्रामीणों की विराट भीड़.
बस अड्डे के नजदीक सड़क किनारे एक साफ-सुथरे होटल में ठहरने की व्यवस्था की गई थी. बगल से ही तेज़ गति से बहती अलकनंदा और दोनों ओर फैले घने जंगल. हम अभी आधे रास्ते में ही थे, मगर चंद्रकुंवर के घर के पास पहुँच चुके होने का अहसास बड़ी शिद्दत से महसूस हो रहा था. आज रात यहीं रुक कर अगले दिन पंवालिया के लिए रवाना होना था. छिटपुट बारिश थी और आगे कुछ जगहों पर भू-स्खलन और सड़क टूटने की ख़बरें भी. मगर उस धरती के स्पर्श का ताप इतना मदमस्त किये था कि परेशानी का कोई अहसास था ही नहीं. मानो हम सचमुच स्वर्ग के प्रवेश-द्वार में बैठे चंद्रकुंवर की प्रतीक्षा कर रहे हों.
इस बार मैं अपनी निजी कार से चल रहा था इसलिए रास्ते की असुविधाओं की चिंता नहीं थी. यकीन था कि जैसे-तैसे रास्ता तय कर ही लेंगे. रास्ते में विक्रम ने पूछा था, सर, बर्त्वाल लोग किस जाति के हुए? मैंने अपने परिचित अंदाज़ में कहा, कवि की जाति पूछ रहा है, नालायक! मगर उसने बुरा नहीं माना, सहज जिज्ञासावश बोला, “सर, असल में नाम के साथ कोई जाति-सूचक शब्द नहीं लगा है इसलिए ऐसा सोच रहा था.”
मैंने उसे कवि की तरुणाई में लिखी यह कविता सुनाई:
मैं न चाहता युग-युग तक
पृथ्वी पर जीना
पर उतना जी लूँ
जितना जीना सुन्दर हो!
मैं न चाहता जीवन भर
मधुरस ही पीना
पर उतना पी लूँ
जिससे मधुमय अंतस हो
मानव हूँ मैं सदा मुझे
सुख मिल न सकेगा
पर मेरा दुख भी
हे प्रभु कटने वाला हो
और मरण जब आवे
तब मेरी आँखों में
मेरे ओंठों में उजियाला हो.
विक्रम का ऊहापोह मैं समझ रहा था. उसके हाथ में एक पुस्तिका थी, ‘सरफरोशी की तमन्ना’, जो आज़ादी से पहले के उत्तराखंड के सेनानियों का इतिहास है. एक संपन्न थोकदार परिवार के चंद्रकुंवर की ऐसी निरीह मौत को लेकर शायद उसके मन में जिज्ञासा उठी होगी. उस दौर में राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम में कंधे-से-कन्धा मिलाकर जाने कितने सेनानियों ने प्राणों की आहुति दी थी, मध्यवर्ग में बौद्धिक चेतना फ़ैलाने की दिशा में लगातार प्रयास हो रहे थे, ऐसे में कौन-सी ऐसी मजबूरी थी कि इतने बड़े कवि को एक अन्धविश्वास से ग्रसित होकर अपनी जिंदगी के आखिरी दिन जानवरों के गोठ में बिताने पड़े होंगे?
(Chandrakunwar Bartwal Article by Batrohi)
चंद्रकुंवर बर्त्वाल के भतीजे डॉ. योगम्बर सिंह बर्त्वाल ने बेहद परिश्रम के साथ बर्त्वाल के साहित्य पर व्यापक शोध किया है और कवि की एक डायरी खोजी है, जिससे पता चलता है कि वह बार-बार इस काल-कोठरी से बाहर निकलकर जीना चाहते थे; अपने घर के चारों ओर फैली ‘फूलों की घाटी’ की गंध अपने फेफड़ों में भरकर उन बुग्यालों में उन्मुक्त उड़ना चाहते थे, जहाँ उनका बचपन बीता था:
पतझड़ देख अरे मत रोओ, यह वसंत के लिए मरा!…
मैं मर जाऊंगा, पर मेरे जीवन का आनंद नहीं
झर जाएंगे पत्र कुसुम तरु पर मधु-प्राण वसंत नहीं
सच है घन तम में खो जाते स्रोत सुनहले दिन के,
पर प्राची से झरने वाली आशा का तो अंत नहीं.
चंद्रकुंवर यानी कुंवर सिंह बर्त्वाल गढ़वाल के संपन्न थोकदारों के वंश में से थे. ब्रिटिश हुकूमत ने जिन शुरुआती तीन एंग्लो-इंडियन स्कूलों की स्थापना की थी,उनमें सबसे पहले अगस्त्यमुनि के नागनाथ में स्थापित किया गया था. उनके पिता ठाकुर भूपाल सिंह बर्त्वाल उन्नीसवीं सदी के आखिरी वर्षों में इसी मशहूर स्कूल के प्रधानाचार्य थे और उनकी माँ गढ़वाली समाज में मिथक बन चुके वीर माधो सिंह भंडारी की नवीं पीढ़ी में जन्मी जानकी देवी थीं. इन दोनों के घर 21 अगस्त, 1919 को उनका जन्म हुआ था. इस घर में 28 वर्ष, 24 दिन बिताकर यह बेहद भावुक और संवेदनशील प्रकृति-पुत्र अपने ही स्रोत ‘फूलों की घाटी’ में विलीन हो गया:
अपने उद्गम को लौट रही अब बहना छोड़ नदी मेरी
छोटे-से अणु में डूब रही अब जीवन की पृथ्वी मेरी
आँखों में सुख से पिघल-पिघल ओंठों में स्मिति भरता-भरता
मेरा जीवन धीरे-धीरे इस सुदर घाटी में मरता
इसी कविता को रेखांकित करते हुए चंद्रकुंवर के परवर्ती कवि मंगलेश डबराल ने अपने इस पुरखे के बारे में लिखा: “कई वर्ष पहले पढ़ी हुई चंद्रकुंवर बर्त्वाल की ये पंक्तियाँ आज भी विचलित कर देती हैं. किसी नदी के अपने स्रोत की ओर, अपने जन्म की ओर लौटने का बिम्ब शायद किसी और कविता में नहीं मिलता. यह छायावाद का भी परिचित बिम्ब नहीं है. ‘मेरा जीवन धीरे-धीरे इस सुन्दर घाटी में मरता’ में हरे नीले पहाड़ों के नीचे किसी सुरम्य सुन्दर घाटी में मृत्यु की कल्पना कितनी भीषण औए फिर भी किस कदर मृत्यु-भय से मुक्त है.”
(Chandrakunwar Bartwal Article by Batrohi)
प्रसंगवश, मंगलेश डबराल की मृत्यु भी महानगर के एक महंगे अस्पताल के अकेले कमरे में नए दौर के असाध्य रोग से जूझते हुए हुई थी. उनके अंतिम दिनों का मार्मिक वर्णन मंगलेश के अनेक मित्रों-प्रशंसकों ने बार-बार किया है; मगर दोनों मौतों के बीच कितना फर्क है! मौत को दोनों ने ही गले लगाया, मगर मंगलेश ने शायद ही अपनी जड़ों को चंद्रकुंवर की तरह याद किया, उसकी गोद में अपने स्रोत की ओर लौटने की इच्छा रखते हुए भी क्या वह कभी लौट सका?
क्या इसके पीछे सिर्फ यही कारण है कि मंगलेश के पास अपने आखिरी दिनों में अपना गाँव नहीं था, सिर्फ हू-हू करते महानगर के अकेलेपन का अवसाद था? हालाँकि मंगलेश के अंतिम दिनों में उसके असंख्य मित्रों-परिजनों का साथ था, देश-विदेश में फैले प्रशंसकों की शुभेच्छाएं थीं, आंसू बहाते लोग थे, क्या दोनों कवियों का अकेलापन एक-समान था?
विक्रम राठौर के हाथ में ‘सरफरोशी की तमन्ना’ क्यों थी? वह क्यों उस किताब को कवि के अवसाद के साथ जोड़कर देख रहा था? किताब का ये पन्ना उसके सामने क्यों था:
प्रथम विश्वयुद्ध से पूर्व सामाजिक चेतना निरंतर प्रखर होती रही. 1912 में अल्मोड़े में वाचस्पति पन्त, ज्वालादत्त जोशी, हरिराम पांडे, मुंशी सदानंद सनवाल, शेख मानुल्ला, मदन गुरूरानी, बद्रीदत्त जोशी आदि के प्रयासों से कांग्रेस की स्थापना हुई. इसी समय उत्तराखंड के अनेक नवयुवक वकालत की डिग्री लेकर लौट रहे थे या उनके दीक्षांत का समय आ रहा था. कांग्रेस और आर्यसमाज के सम्मलेन अल्मोड़ा में हुए. शुद्ध साहित्य समिति तथा छात्रों के संगठनों की स्थापना हुई. नायक सुधार समिति की शुरुआत हुई; अल्मोड़ा अख़बार’ को न केवल बद्रीदत्त पांडे जैसा प्रखर संपादक मिला बल्कि उसमें बेगार विरोधी, जंगलात तथा स्थानीय संगठन की जरूरत बाबत लेखों का प्रकाशन होने लगा था. ‘अल्मोड़ा अख़बार’ में बद्रीदत्त पांडे का आना पत्रकारिता के नए युग की शुरुआत थी. शिल्पकारों को द्विजों के बराबर का दर्जा देने की बात सवर्ण समाज से उठने लगी थी. 1912-13 में गढ़वाल-देहरादून की अनेक सभाएं तथा संगठन एक हुए. ‘गढ़वाल समाचार’ का पुनर्प्रकाशन हुआ. ‘विशाल कीर्ति’ का प्रकाशन शुरू हुआ और ‘गढ़वाली’ निरंतर प्रकाशित होने लगा. 1912 में जोहार में ‘जोहार उपकारिणी सभा’ की स्थापना कर समाज सुधार तथा स्वदेशी कार्य शुरू हुआ.
(शेखर पाठक: ‘सरफरोशी की तमन्ना)
एक ओर इतने जोर-शोर से परिवर्तन का बिगुल बज रहा था, दूसरी ओर गढ़वाल की ‘पतित-पावनी’ मन्दाकिनी के किनारे एक गोठ में यक्ष्मा-संक्रमित पच्चीस साल का नौजवान अंधविश्वासों की सीमाओं से बंधा हुआ मुक्त होने के लिए अपने समाज को ललकार रहा था अपनी जड़ों – फूलों की घाटी के बुग्यालों – में उड़ने की बेचैनी से सराबोर!
काफल पाक्कू
सखि वह मेरे देश का वासी-
छा जाती वसंत जाने से है जब एक उदासी
फूली मधु पीती धरती जब हो जाती है प्यासी
गंध-अंध के अलि होकर म्लान
गाते प्रिय समाधि पर गान…
4 अक्तूबर, 1938 को उन्नीस वर्ष की उम्र में अपनी डायरी में चंद्रकुंवर लिखते हैं:
दिन में ‘रघुवंश’ का पन्द्रहवां सर्ग पढ़ा. शाम को नदी के किनारे जब मेरा साथी पानी में अपना जाल फैला रहा था, मैं डूबते हुए सूर्य की चम्पक कलियों की हंसी में परित्यक्ता सीता की वेदना म्लान मुख छवि देख रहा था. परित्यक्ता तपस्विनी सीता की वेदना भारतवर्ष के पुराणों में सदैव ही अंकित रहेगी. मैं जब-जब सीता की वियोग-कथा पढ़ता हूँ मेरी आँखों में आंसू आ जाते हैं. मुझे राम पर दया है. राम विवश थे… यदि मैं संस्कृत-काल में होता तो उत्तर-रामचरित लिखता… बाहर आज चांदनी नीले आसमान पर चमक रही है. बादल कभी उसके चारों ओर तैरने लगते हैं, उसके गालों पर लाज की लाली छा जाती है. कभी उसको अपने-अपने हाथों पर थाम लेते हैं और कभी सहसा उड़कर दूर देश चले जाते हैं. चांदनी अकेली रह जाती है. आज मुझे ध्यान आया, मैं किसी कवि को उसकी भाषा या देश के कारण नापसंद करता हूँ. कवि मनुष्य है, उसने मनुष्य के हृदय का संगीत गाया, उसे तो किसी से द्वेष नहीं था, यदि उसे द्वेष होता तो वह भला गा पाता? तो फिर मैं अपने हृदय को इतने संकुचित लोहे के संदूक में क्यों बंद कर रहा हूँ? मुझे तो विशाल होना चाहिए.
(Chandrakunwar Bartwal Article by Batrohi)
रुद्रप्रयाग से पंवालिया के लिए सवेरे पौने नौ बजे चल चुके थे, पवालिया पहुँचते-पहुँचते दोपहर ढलान पर थी. रास्ता अनेक जगह ख़राब था, मलवा भी अनेक जगहों पर इकठ्ठा था.
मन्दाकिनी के संगम पर एक ओर कुछ सड़क-निर्माण हो रहा था, विशालकाय जेसीबी चौड़ी खुदी सड़क के बीच चौकन्नी हालत में खड़ी थी. सामने के हरे-भरे ऊंचे शिखर को छूते सीढ़ीदार खेत उसी कलात्मकता में बिछे थे, जैसे हमारे पहाड़ी गांवों में फैले रहते हैं. अनुमान लगा पाना ज्यादा मुश्किल नहीं था कि कभी यह इलाका गढ़वाल के बर्त्वाल थोकदारों को भरपूर मालगुजारी देता रहा होगा. बरसात की वजह से रास्तों में घास भर आई थी लेकिन आसानी से हम उस खंडहर तक पहुँच गए जो हमारी यात्रा का अंतिम पड़ाव था. दुमंजिला मकान था जो कभी निश्चय ही थोकदारों की मर्यादा के अनुरूप रहा होगा. मिट्टी-चूने से चिनी गई मोटी दीवारें जो कभी जरूर मजबूत रही होंगी. जैसा कि पहाड़ी घरों में होता रहा है, ऊपरी मंजिल परिवार वालों के रहने और गोठ मवेशियों के रहवास के लिए इस्तेमाल में लाया जाता है.
इलाके का एकांत भी कमोवेश वैसा ही था, जैसा चंद्रकुंवर की बीमारी के वक़्त रहा होगा. दुमंजिले की एक दीवार पूरी तरह ढह कर मोटे खम्बे की तरह शेष रह गई थी. दोनों मंजिलों में चौखट सुरक्षित थी, मगर दरवाजे या तो सड़ गए थे या कोई उठा कर ले गया था. हम लोगों की नज़र गोठ पर टिकी थी जिसमें हमारे कवि को तीन वर्ष तक एक तकलीफदेह निर्वासन से गुजरना पड़ा था. गोठ की जो छवि दिमाग में थी, निश्चय ही वह उससे कहीं अलग थी क्योंकि वहां यद्यपि प्रथम तल की तरह खिड़कियाँ नहीं थी, तो भी वह एक आदमी के रहने लायक कमरे से खासा बड़ा था. गोठ की मुंडेर भी कभी कलात्मक और मजबूत रही होगी. दोनों मंजिलों की दीवारें गोल थीं जहाँ सुविधा के साथ चारों ओर घूमा जा सकता रहा होगा.
असल में वहां आने से पहले दिमाग में यह मिथक मौजूद था कि तपेदिक के मरीजों को गोठ में बांधकर रखा जाता था और उनके बाहर आवाजाही की मनाही रहती थी. इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि मरीजों को कितनी तकलीफों से गुजरना पड़ता रहा होगा. सुनते थे कि सुदूर एकांत में बनाये जाने वाले इन घरों को इस्तेमाल के बाद जला दिया जाता था या तिरस्कृत छोड़ दिया जाता था. हम लोग साठ साल के बाद इस घर में पहुंचे थे, उसे देखते हुए विश्वास किया जा सकता था कि यद्यपि तपेदिक के मरीज को कोई सुविधा नहीं दी जाती थी, तथापि थोकदारों के एकमात्र वंशज को (जो अपने इलाके का सबसे पढ़ा-लिखा और प्रतिभावान बच्चा था) एक मामूली कमरे में तो नहीं रखा जा सकता था. भोजन-पानी भी दूर से ही दिये जाने की परम्परा थी, मगर यह शोध का विषय है कि क्या बर्त्वाल थोकदारों की (इकलौती) संतति के प्रति भी यह भेदभाव बरता जाता रहा होगा?
गाँव में पलायन की शुरुआत हो चुकी थी, इसलिए कोई भी उस मकान के अतीत के बारे में बता सकने में असमर्थ था. हमारे साथ लोक-संस्कृति-कर्मी नंदकिशोर हटवाल थे, जिन्होंने अपनी ओर से कोशिश की भी, मगर उन्हें भी कोई खास हासिल नहीं हुआ. इस सब के बावजूद हमारे लिए यह अनुभव कम उपलब्धिपूर्ण नहीं था कि कुछ हद तक ही सही, चंद्रकुंवर के अवसाद का हम लोग अनुमान लगा सके.
मैं चंद्रकुंवर के इस घर में महादेवी संग्रहालय की स्थापना के उत्साह से लैस घुसा था, इसलिए बहुत दिनों तक इस ट्रांस से मुक्त नहीं हो पाया कि कभी इसे भी अपने प्रिय कवि का संग्रहालय बनाऊंगा. मगर सब कुछ इतना ही आसान होता तो कितनी मुश्किलों से बचाए गए मीरा कुटीर की आज यह हालत नहीं होती और बनाये जाने के बाद भी मैं अवसादग्रस्त न होता. और इस कहानी के कितने ही दूसरे हाशिये हैं: वह चाहे लमही वाला प्रेमचंद का घर हो, सुल्तानपुर वाला महावीरप्रसाद द्विवेदी का, उन्नाव के निराला का या बहुत सारे दूसरे घर, जिनके बारे में हम जानते हैं लेकिन बात नहीं करते.
(Chandrakunwar Bartwal Article by Batrohi)
हिन्दी के जाने-माने उपन्यासकार-कहानीकार हैं. कुमाऊँ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष रह चुके बटरोही रामगढ़ स्थित महादेवी वर्मा सृजन पीठ के संस्थापक और भूतपूर्व निदेशक हैं. उनकी मुख्य कृतियों में ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ ‘सड़क का भूगोल, ‘अनाथ मुहल्ले के ठुल दा’ और ‘महर ठाकुरों का गांव’ शामिल हैं. काफल ट्री के लिए नियमित लेखन.
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बहुत गहरा स्पर्श।
हिला देता है।