उत्तराखण्ड के लोगों के लिए चन्द्र सिंह राही का अर्थ है एक ऐसी आवाज जिसमें पहाड़ तैरते थे. उनके गले से लहरें उठती थी और उत्तराखण्ड का पहाड़ उसमें समा जाता था. राही के सुरों के समन्दर में पूरे डूब जाते थे यहां के ऊंचे-ऊंचे…आसमान को छूने वाले डांडे-कांठे. राही के सुरों के समन्दर में जब लहरें उठती थी तो उनमें उछलते, तैरते, अठखेलियां खेलते थे पहाड़. यहां की घाटियों की तरह गहरी आवाज. नदियों की तरह बलखाती लहराती. राही की आवाज में यहां की हरियाली लहलहाती थी. इस हिमालयी प्रदेश की वादियों और फिजाओं की सी खूबसूरत आवाज. (Chandra Singh Rahi Legendary Singer of Uttarakhand)
उत्तराखण्डियों के लिए कुछ-कुछ दादा साहेब फाल्के और के. एल. सहगल का सा दर्जा लिए चन्द्र सिंह राही का जन्म 28 मार्च सन् 1942 को जनपद पौड़ी गढ़वाल के गिंवाली गांव, पट्टी मौंदाड़स्यूं, उत्तराखण्ड में हुआ था. उनके पिता का नाम श्री दिलबर सिंह नेगी तथा मां का नाम सुंदरा देवी था. चन्द्र सिंह की आठवीं तक की स्कूली शिक्षा गांव में ही हुई थी. बाद में उन्होंने हाईस्कूल किया. आगे दिल्ली में संघर्ष करते हुए उन्होंने विशारद एवं साहित्यरत्न की उपाधियां प्राप्त की.
राही जी 15 वर्ष की आयु में सन् 1957 में रोजगार की तलाश में दिल्ली चले गये थे. कई दिनों तक रोजगार की तलाश में भटकते रहे. कहीं रोजगार न मिलने के कारण राही जी ने दिल्ली कनॉट प्लेस के क्षेत्र में बांसुरी बजा-बजाकर गुब्बारे एवं बांसुरियां बेची. एक वर्ष तक जैसे-तैसे जीवन निर्वाह किया. बाद में सदर बाजार में मेहता ऑफसेट प्रेस में छपाई का कार्य सीखना प्रारंभ किया. दुर्भाग्यवश नौ महीने के अंतराल में ही छपाई-मशीन में हाथ कट गया. साल भर तक अस्पताल में पडे़ रहे. किसी तरह हाथ तो बच गया लेकिन दायें हाथ का अगूंठा गंवाना पडा़.
राही का जीवन विकट हो गया था. यह उनका कठिन दौर था. दिल्ली जैसे महानगर में रोजगार का न होना और ऊपर से विकलांग हो जाना किसी त्रासदी से कम नहीं था. लेकिन राही खांटी पहाड़ी थे. बहुत जल्दी हार मानने वालों में नहीं थे. उन्होंने रोजगार की तलाश जारी रखी. रोजगार कार्यालय के माध्यम से एक दिन दिल्ली टेलीफोन विभाग में सेवक के पद पर नियुक्ति मिल गई. यहां से उनके जीवन में नया मोड़ आया. रोजी-रोटी की समस्या काफी हद तक सुलझ गई. संगीत बीज रूप में उनके अंदर था ही, उसके लिए स्पेस मिलने लगा. उनका ध्यान अब संगीत की ओर जाने लगा.
लोक-कला की शिक्षा और संस्कार राही जी ने अपने पिता से प्राप्त किए. चन्द्र सिंह राही जी का बचपन जिस दौर में बीता उस दौर में गढ़वाल में लोकगीत संगीत अपनी मौलिकता के साथ पर्याप्त मात्रा में मौजूद था और स्वयं चन्द्र सिंह राही इस गीत संगीत के नयी पीढ़ी के वाहक थे. श्रुति और वाचिक माध्यम से उन्होंने अपने बाल्यकाल से ही लोकगीतों को ग्रहण करना शुरू कर दिया था. यही उनकी संगीत की प्रारम्भिक शिक्षा थी. चूंकि यह शिक्षा उन्होंने सीधे लोक के माध्यम से ग्रहण की इसीलिए उनके अंदर ताजिंदगी लोक की ताजगी बनी रही.
चन्द्र सिंह राही के पिता दिलवर सिंह एक अच्छे लोक कलाकार थे. वे जागरी थे. इस कारण उनका स्थानीय गीत-संगीत से गहरा नाता होना स्वाभाविक था. अपने समय में पूरे क्षेत्र में दिलबर सिंह जी का बड़ा नाम था. राही जी ने संगीत की प्रथम शिक्षा अपने पिता से प्राप्त की. उन्होंने अपने पिता से जागर सीखे और लोकगीतों और लोक की गायन शैलियों से परिचित हुए. वे अपने एक साक्षात्कार में कहते हैं, ‘‘मेरा सौभाग्य है कि मेरे पिताजी अच्छे कलाकार थे. जागरी थे, वादक थे. डौंर थाली हुड़का बजाते. मैंने जागर के क्षेत्र में उनसे ही प्रेरणा ग्रहण की.’’
जैविक रूप से कला राही जी के अंदर जन्मजात तो थी ही और फिर समय, समाज और पिता से राही ने बचपन से ही अनौपचारिक रूप से सीखना आरम्भ कर लिया था. लेकिन दिल्ली में नौकरी मिलने के बाद उनके अंदर संगीत सीखने की ललक पैदा होने लगी. दिल्ली महानगर में जीवन की चुनौतियां भी उनके उत्साह को कम नहीं कर पायी. उन दिनो दिल्ली के अंधविद्यालय में ग्राम-ढुंगा, बुरगांव, जनपद पौड़ी के बचनसिंह जी संगीत के आचार्य थे. चन्द्र सिंह राही ने गुरू-शिष्य परम्परा के तहत विधिवत उनसे शिक्षा ग्रहण की.
चन्द्र सिंह राही ने आकाशवाणी से अपने लोकगीतों को गाने की शुरूवात 1963 से की. इस वर्ष दिल्ली आकाशवाणी से लोकगीतों पर ऑडिशन पास किया. उस समय उनकी उम्र 21 वर्ष थी. इसके बाद आकाशवाणी दिल्ली से फौजी भाइयों के लिए प्रसारित कार्यक्रम में गाना शुरू किया. अपनी प्रतिभा के बल पर उन्होंने आकाशवाणी में ’ए’ श्रेणी के प्रथम उत्तराखण्डी कलाकार होने का दर्जा प्राप्त किया.
यद्यपि 12 साल की उम्र से उन्होने मंचीय गायन शुरू कर दिया था. उनके पिता मेलों-उत्सवों में बचपन से ही चन्द्र सिंह को ले जाया करते थे. परन्तु एक लोकगायक के रूप में उन्हें ख्याति आकाशवाणी ने ही दिलायी. दिल्ली में आकाशवाणी से गाने के बाद 1972 से आकाशवाणी लखनऊ से भी लगातार गाते रहे. उस दौर में आकाशवाणी से प्रायः लोकगीत ही प्रसारित होते थे. राही जी को लोकगीत गाने के लिए ही आमंत्रित किया जाता था. उस दौर में उन्होंने लोकगीतों के साथ अपने दो गीत ‘रूपा की खज्यानी भग्यानी कनि छै…’ और ‘म्यरा मन की तिसळी चोळी न बोल तू पाणि-पाणि…’ भी गाये. जिनको खूब सराहना मिली. आकाशवाणी लखनऊ से ‘गिरि गुंजन’, ‘उत्तरायण’ और नजीबाबाद से प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों में वे लगातार गाते रहे.
जब कभी उनके गीत आकाशवाणी में बजते तो लोग झूम उठते. उनके कुछ गीत जैसे ‘हिल मां चांदी को बटना…’, ‘मेरी चदरी छुटी पिछनै…’, ऐजा सुवा ग्वालदम की गाड़ी मा…’, ‘सरग तारा जुनाल़ी राता…’, ‘गाड़ो गुलोबंद, गुलबंद को नगीना…’, ‘पार भीड़े की बंसती छोरी रूमा-झुमा…’ आदि बहुत लोकप्रिय हुए. इन गीतों ने अपने समय में धूम मचा दी थी.
चंद्र सिंह राही के पास लोकगीतों- जागर, पंवाड़े, लोक गाथाएं, थड़िया, चौंफला, पंडौ, चांचरी, बद्यी लोकगीतों का विशाल भण्डार था. वे उत्तराखण्ड के लोकवाद्यों के अच्छे जानकार भी थे. ढोल-दमाऊ, हुड़का, डोंर, थाली, मोछंग, सिणैं (पहाड़ी शहनाई), बांसुरी, ढोलक, रणसिंघा, मशकबाजु आदि वाद्ययंत्रों को बजा लेते थे. जब कैसेट का जमाना आया तो उनके गीतों के कैसेट बाजार में आने लगे. उनके कैसेट काफी लोकप्रिय हुए. चन्द्रसिंह ‘राही’ ने लगभग डेढ़ सौ कैसेट-सीडी में किसी न किसी रूप में अपनी उपस्थिति दी. उन्होंने लगभग पांच सौ गीत गाये.
दूरदर्शन के राष्ट्रीय चैनल में समय-समय पर उनके साक्षात्कार, लोक गीत एंव लोकवाद्यों की प्रस्तुतियां प्रसारित होती रही. उन्होंने दूरदर्शन में चलने वाले कार्यक्रम फेस इन द क्राउड के लिए भोटिया जनजाति के ऊपर एक डॉक्युमेन्ट्री फिल्म बनाई, गंगा के प्रदूषण पर भी फिल्म बनाई. उन्होंने गढ़वाली, कुमाऊनी, जौनसारी लोकगीतों का संग्रह भी किया. लोकसंस्कृति पर उन्होंने मानव संसाधन विकास मंत्रालय, संस्कृति विभाग भारत सरकार की अनेक परियोजनाओं पर कार्य किया जिसमें कि उत्तराखण्ड गढ़वाल के लोक गीत, लोक नृत्य एवं विलुप्त होते लोक वाद्यों पर तीन खण्डों में किया गया महत्वपूर्ण कार्य है. इसी प्रकार मध्य हिमालय गढ़वाल की जागर भक्ति संगीत शैली एवं तंत्र मंत्र पर शोध संकलन का कार्य भी किया.
स्वभाव से विनम्र राही जी ने आडम्बर और बनावटीपन से कोशों दूर रहते अपने मूल स्वभाव को जीवित रखा. गढ़वाली में बातचीत करना उन्हें पसंद था. स्पष्ट वादिता के कारण सही बात बोलने से नहीं चूकते. ‘राही’ जी ने अपनी विरासत अपने परिवार को भी सौंपी है. परिवार का एक-एक सदस्य कलाकार है. सभी ने संगीत शिक्षा अपने पिता से ही ग्रहण की. लोक द्वारा विस्मृत लोकगायिका कबूतरी देवी का इंटरव्यू
दिल्ली की एक संस्था साहित्य मंच राही जी की पचास वर्षो की रचना-यात्रा पर ‘लोक का चितेरा’ नाम से चारू तिवारी के सम्पादकत्व में एक पुस्तक के प्रकाशन की तैयारी कर रहा था. उस बीच राही जी अस्वस्थ हो गये. साहित्य मंच चाहता था कि वे इस पुस्तक का लोकार्पण करें, पर किन्हीं कारणो से ये प्रकाशित नहीं हो सकी. आशा करते हैं कि साहित्य मंच इस पुस्तक को शीघ्र प्रकाशित कर सके ताकि राही जी का सम्पूर्ण व्यक्तित्व और कृतित्व पाठकों के सामने आ पाये.
निसन्देह उनकी गायकी को उत्तराखण्ड की लोकगायकी के आधार स्तम्भ के रूप में देखा जा सकता है. उनके सुरों में यहां का लोक बोलता था. अगर कहा जाय कि उनकी गायकी यहां के लोक की प्रतिनिधि गायकी थी तो गलत न होगा. उनके गायन में यहां का लोक पूर्ण रूप से समाहित रहता. यद्यपि उन्होने संगीत की शिक्षा ली थी लेकिन शास्त्रीयता उनके गायन में कभी हावी नहीं रही. शायद इसीलिए लोक में उनकी ग्राह्यता बहुत अधिक थी.
उत्तराखण्ड के लोकगीतों के मौलिक कण्ठ थे राही और उस मौलिकता को ताजिंदगी बचाए रखने में सफल रहे. लोक की मौलिकता से छेड़-छाड़ नहीं की, ब्यावसायिक दबाओं के बावजूद दांए-बांए नहीं भटके. वे लोकगीतों को जीते थे. वे आवाज की ताकत पर अपने श्रोताओं के दिलों में राज करते रहे. उनके गायन की अपनी शैली थी. चौबीस कैरेट का फोक गाने वाले अपनी शैली के अप्रतिम कलाकार. जरा ठन्डू चलदी, जरा मठ्ठु चलदी, मेरी चदरी छुट्टी ग्ये पिछनै, जरा मठ्ठू चलदी के उलट कुछ जल्दी चले गए, चदरिया पीछे छोड़ दी. उनका कुछ जल्दी चले जाना पहाड़ के लोकसंगीत के लिए कभी न भर पाने वाला खालीपन है. लेकिन राही ने लोक में जो लहरें पैदा की हैं वो उठती रहेंगी. उन्हें कोई नहीं मिटा सकता. लहराता रहेगा पूरा पहाड़ उन लहरों में.
वे याद किये जाते रहेंगे…. भाना हे रंगीली भाना दुरु ऐजै बांज कटण, पार बांणा कु छई घसेरी, रूपैकी खजानी भग्यानी कनि छए, धार मा सी जून दिखेंदी जनि छई, तिलै धारु बोला मधुलि हिराहिर मधुलि, सौली घुराघुर्र दगड़िया, हिल्मा चांदी कु बटीणा…रैंद दिलमा तुमारी रटीणा, सात समुन्दर पार च जाणा ब्वे, जाज म जौलू कि ना, पार बौणा कु छई घसेरी, मालू रे तू मालू नि काटी, हिट बलदा सरासरी रे, तिन हाळमा जाणा रे, जरा ठन्डू चलदी जरा मठ्ठु चलदी, मेरी चदरी छुट्टी ग्ये पिछनै आदि अपने कालजयी गीतों के लिए.
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नंद किशोर हटवाल उत्तराखंड के सुपरिचित कवि, लेखक, कलाकार व इतिहासकार हैं. उन्हें उत्तराखंड की लोक कलाओं के विशेषज्ञ के तौर पर भी जाना जाता है.
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निसंदेह चंद्र सिंह रही जी लोकगीतों की महक रूप में हर उत्तराखंडी के दिल में बसे हैं ।