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स्वाधीनता संग्राम में गढ़वाल का चंपारण ककोड़ाखाल: कुली बेगार विरोधी आंदोलन के सौ साल

1857 की क्रांति में गढ़वाल भू-भाग में पूरी तरह शांति रही. इतनी कि तत्कालीन कमिश्नर रैमजे को गढ़वाल भ्रमण पर होने के बावजूद नैनीताल पहुँचना ही श्रेयस्कर लगा. उसी गढ़वाल में अंग्रे राज्य के विरुद्ध असंतोष की पहली ज्वाला ककोड़ाखाल में भड़की थी. आज से ठीक सौ साल पहले, 12 जनवरी 1921 को.
(Champaran of Garhwal)

रुद्रप्रयाग जिले के दक्षिण-पूर्वी छोर पर स्थित है, ककोड़ाखाल. अलकनंदा नदी और सारी गदेरे दोनों के दाँये पाश्र्व में. 1997 तक चमोली का हिस्सा था और 1960 तक अविभाजित जिला गढ़वाल का. खाल शब्द से जैसा कि जाहिर है ये दो घाटियों का संधिस्थल है और आवागमन का सबसे सुगम मार्ग भी. पूर्व की ओर सारी-गौचर की घाटी का दृश्य खुलता है तो पश्चिम की ओर छिनका-कोठगी का. दक्षिण में गगनचुम्बी नाग का डांडा है और उत्तर की ओर विस्तृत दशज्यूला पट्टी के गाँव. ककोड़ाखाल की घटना के बाद इस पूरी दशज्यूला पट्टी को ही ब्रिटिश सरकार ने दस नम्बरी घोषित कर दिया था.

ककोड़ाखाल की घटना दरअसल ब्रिटिश सरकार के प्रति खुला विद्रोह था. कुली बेगार और बर्दायश की सरकार द्वारा संरक्षित अमानवीय कुप्रथाओं के खिलाफ़. कानून इसे इसलिए नहीं कहेंगे क्योंकि ऐसा तत्कालीन कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया था कि इन प्रथाओं का चलन पूर्वकालीन गढ़वाल नरेशों के समय से ही है. ये सत्य भी है. गढ़वाल नरेशों के समय से इनका चलन रहा है और ब्रिटिश गढ़वाल और कुमाऊँ में भले ही इनका अंत 1921 में हो गया हो पर टिहरी गढ़वाल में आज़ादी के समय तक बरा के नाम से ये बदस्तूर चलता रहा.

ककोड़ाखाल स्थित स्मारक

क्या थी ये कुप्रथा. कुली बेगार अर्थात बिना पारिश्रमिक के पालकी, बोझा ढोने आदि का काम करवाना और बर्दायश का मतलब सरकारी हाकिमों के क्षेत्रीय भ्रमण के अवसर पर उनके लिए निःशुल्क आवास और भोजन-प्रबंध करना. बेगारी की प्रथा का चलन कमोबेस पूरे देश में ही था पर कमजोर आर्थिक स्थिति और पहाड़ी क्षेत्र होने के कारण उत्तराखण्ड में ये कुछ ज्यादा ही कष्टदायी था. इनकी अमानवीयता का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि बेगार-बर्दायश से छूट उस परिवार को भी नहीं मिलती थी जहाँ शादी जैसा कोई शुभ आयोजन हो रहा हो या जो मृत्युशोक के कठिन-काल से ही क्यों न गुजर रहा हो.
(Champaran of Garhwal)

उन्नीसवीं सदी के अंत से ही बेगार-बर्दायश के सवाल प्रांतीय काउंसिल में भी उठने लगे थे. 1903 में वायसराॅय लाॅर्ड कज़ऱ्न के गढ़वाल भ्रमण के अवसर पर उन्हें भी इन कुप्रथाओं के समापन करने विषयक ज्ञापन दिए गये. इन्हीं सवालों का प्रभाव था कि गढ़वाल में दस कुली एजेंसियां खुल गयी थी. बाकायदा इनके संचालन के लिए एक समिति भी बनायी गयी. रायबहादुर तारादत्त गैरोला इस समिति के प्रमुख बने. देश में महात्मा गांधी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन चल रहा था. बागेश्वर-कुमाऊँ में  कुली बेगार आंदोलन का नेतृत्व कुमाऊँ-केसरी बदरीदत्त पांडे कर रहे थे.

इस सबके बावजूद सरकारी अधिकारियों और उनके कारिंदों ने बेगार-बर्दायश लेना बंद नहीं किया. जब भी वे दौरे पर होते तो मालगुजारों के जरिए जनता पर बेगार-बर्दायश का दबाव बनाते. ककोड़ाखाल में भी 12 जनवरी 1921 को यही हुआ था. रुद्रप्रयाग से चमोली का पैदल मार्ग तब ककोड़ाखाल, चटवापीपल, कर्णप्रयाग से होकर गुजरता था. डिप्टी कमिश्नर गढ़वाल पी. मेशन के लश्कर का पड़ाव ककोड़ाखाल में था.

गढ़वाल के लोकप्रिय जननायक, स्वाधीनता सेनानी अनसूया प्रसाद बहुगुणा पहले से ही बेगार-बर्दायश के खिलाफ़ लोागों को जागरूक कर रहे थे. ककोड़ाखाल में बर्दायश वसूली की खबर मिलते ही वे अपने सहयोगियों के साथ ककोड़ाखाल पहुँच गए. उनके आह्वान पर इलाके के सैकड़ों लोग बर्दायश का विरोध करने के लिए एकत्र हो गए. चैंरा नामक स्थान पर बहुगुणा  ने एकत्रित जनसमुदाय को संबोधित किया. उनके संबोधन से उत्साहित भीड़ आंदोलनकारी बन गयी और देखते ही देखते बर्दायश के लिए रखी गयी सामग्री को फेंक दिया गया. बर्दायश के लिए लायी जा रही सामग्री को लौटा दिया गया. आवास के लिए बनाए गए छप्पर में भी आग लगा दी गयी. पी. मेशन ने गोली चलाने का आदेश दे दिया तो आंदोलनकारी और भी उग्र हो गये. फलतः आदेश वापस लेना पड़ा. बाजगी समुदाय भी आंदोलन में पीछे नहीं रहा. मूगूदास के ढोल-दमाऊ की गमक ने भी मेशन के पसीने छुड़ा दिए. रात को जब ठंड के कारण अधिकांश आंदोलनकारी अपने-अपने घर चले गए तो मौका पाकर डिप्टी कमिश्नर मेशन अपने कुछ विश्वस्थ साथियों के साथ भाग कर चटवापीपल पहुँच गया.
(Champaran of Garhwal)

अनसूया प्रसाद बहुगुणा

चमोली के स्वाधीनता सेनानी शिव सिंह चैहान ने 1977 में ककोड़ाखाल आंदोलनकारियों के वंशजों के बयान कलमबंद किए थे. बयान संख्या-11 में इस आंदोलन की कहानी कुछ इस तरह व्यक्त हुई है –

मैं गबर सिंह उर्फ़ गैभर सिंह पुत्र श्री आलमसिंह भूतपूर्व मालगुजार ग्राम सारी हाल निवासी बैसोड़ (सारी) उम्र 64 वर्ष, ककोड़ाखाल बरदायश आंदोलन के सिलसिले में अपनी जानकारी इस प्रकार देता हूँ कि मेरे स्व0 पिता श्री आलमसिंह  सारी के मालगुजार थे. जिस समय यह आंदोलन हुआ उस समय मेरी उम्र लगभग 10-11 वर्ष की रही होगी. मुझे अच्छी तरह याद है कि पटवारी श्री त्रिलोचन  ने जिला साहब के ककोड़ाखाल में आने पर बरदायश देने का रुक्का पिता को दिया. साहब के आने के पहले दिन सभी 72 गाँवों से मालगुजार और थोकदार आदमी लेकर ककोड़ाखाल में उपस्थित हुए. चैकी-मोठी (रिंगाल की चटाइयां) व घास-पत्ती के छप्पर बने थे. लकड़ी, घास, राशन, दूध सभी हाजिर था. श्री अनसूयाप्रसाद  बमोथ पुल को पार कर हमारे घर बैसोड़ में आए. उनके साथ मुकुंदीलाल बैरिस्टर भी थे. उन्होंने मेरे पिता को बुलाया. उनके हाथ में तिरंगा झण्डा था. कहा कि इस झण्डे  को अपने हाथ में रखो और बरदायश के खिलाफ आंदोलन में हमारे साथ मिलो. पहले तो पिता ने सरकार के डर से इंकार किया. फिर उनके आश्वासन और भरोसे से वे तैयार हुए. मैं भी उनके साथ ककोड़ाखाल चला. ककोड़ाखाल में साहब पहुँच चुके थे. अनसूयाप्रसाद ने और मेरे पिता ने अन्य बहुत से लोगों की सहायता से छप्पर फेंके, लकड़ी जलायी, राशन व दूध वापस किया. बहुत नारे लगे. साहब अपने कुत्तों सहित तम्बू से बाहर निकल गये. क्योंकि कुछ तम्बू व छप्परों पर आग लग गयी थी. सारी गधेरे, बारा में गढ़ी तथा गेंदा पानी में अन्य आने वाले लोगों को रोकने के लिए पार्टियां भे गयी. लेकिन फिर भी मालगुजार और थोकदारों ने बरदायश दी.

सिर्फ़ हयात सिंह थोकदार ग्राम काण्डई ने अपनी मदद (आदमी) देने से इंकार किया. इस प्रकार आंदोलन के डर से साहब उसी रात पता नहीं कब निकल गये. उनका सामान ककोड़ाखाल ही छूटा. अतः पटवारी श्री त्रिलोचन और सारी के श्री मुरखल्यासिंह  ने अपने पैसे लगाकर साहब का बोझा रात को चटवापीपल पहुँचाया. पिता ने साफ इंकार किया कि हम बरदायश में बेगार नहीं देंगे. इस पर पटवारी की शिकायत पर साहब ने पिता को इन शब्दों के साथ कि आलमसिंह बेगार-बरदायश देने में बहुत लेटलतीफी करता है. गूंगा है, अतः मालगुजारी के योग्य नहीं है. यह कांग्रेस का पक्षपाती है. इसलिए इसकी मालगुजारी खत्म की जाती है. यह आॅर्डर हमारे पास था पर अब बच्चों ने फाड दिया है. पिता को मालगुजार से हटाया गया और श्री मुरखल्यासिंह को सिफारिश पर साहब ने मालगुजार बना दिया. हमारी दशजूला पट्टी को दस नम्बरी लिस्ट में रख दिया. पिता ने मालगुजारी हेतु अपील भी की पर कुछ नहीं हुआ.
(Champaran of Garhwal)

ग्राम नाग के महेशानन्द का बयान था कि बाजे-गाजों तथा नारों के साथ बरदायश का विरोध किया गया. अंग्रेज साहब थर्रा गया. मेेरी उम्र उस समय लगभग 14-15 वर्ष की थी.  गेंजा केदारू गिरफ्तार हुआ. आलमसिंह मालगुजार की मालगुजारी खत्म हुई. मुरखल्यासिंह मालगुजार बने. अंग्रेज साहब रातोंरात ही भगे और सामान कोई नहीं ले गया. पटवारी और पदानों ने सामान रातों रात चटवापीपल पहुँचाया. उस दिन से फिर कभी बरदायश नहीं हुई.

ककोड़़ाखाल आंदोलन के बाद अनसूयाप्रसाद गढ़केसरी के रूप में विख्यात हो गये. इसी ख्याति से वो 1931 में गढ़वाल डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के चेयरमैन भी बने और 1937 में यूनाइटेड प्राॅविंस की विधान परिषद के गढ़वाल से चुने गये प्रथम सदस्य भी.  इस आंदोलन से दो साल पहले ही 1919 में उन्होंने बैरिस्टर मुकुंदीलाल के साथ कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में गढ़वाल के प्रतिनिधि के रूप में प्रतिभाग किया था. ककोड़ाखाल आंदोलन की सफलता पर स्वयं महात्मा गांधी ने अनसूयाप्रसाद बहुगुणा  को बधाई संदेश भेजा था और इस आंदोलन को गढ़वाल में स्वाधीनता आंदोलन की प्रथम सफलता बताया था. आंदोलन के सौ साल पूरे होने के अवसर पर ककोड़ाखाल स्थित जनता हाईस्कूल में स्थानीय जनता द्वारा एक स्मृति कार्यक्रम का आयोजन किया जा रहा है.
(Champaran of Garhwal)

ककोड़ाखाल आंदोलन में सारी के केदारसिंह बिष्ट शहीद हुए तथा 86 आंदोलनकारियों को जेल की सजा दी गयी. सारी के आलमसिंह की मालगुजारी और डाँडाग्वाड़ नरसू के हयातसिंह की थोकदारी जब्त की गयी. आंदोलनकारी सारी, नाग, सिंदराणी, डिडोली, बिलकोण, छिनका, क्वींठी, रानौं, डांडा, ग्वाड़, नरसू, बैसोड़, झालीमठ गाँव के थे. गढ़वाल के स्वाधीनता संग्राम इतिहास में ककोड़ाखाल आंदोलन का वही महत्व है जो भारत के इतिहास में चम्पारण के आंदोलन का है. दोनों गुमनाम-सी जगह पर हुए पर दोनों के प्रभाव और संदेश स्पष्ट थे. दोनों की प्रतिध्वनि बहुत दूर तक सुनी गयी. अंतर था तो बस ये कि चंपारण पहाड़ों की तलहटी में स्थित था जबकि ककोड़ाखाल पहाड़ की चोटी पर. चंपारण की ही तरह ककोड़़ाखाल आंदोलन ने भी भोलेभाले गढ़वालियों के मन से अंग्रेज सरकार के भय को निकाल फेंका. इसी आंदोलन ने उन्हें आत्मविश्वास दिया और और स्वाधाीनता के अग्रणी नायकों पर पूर्ण विश्वास भी.
(Champaran of Garhwal)

देवेश जोशी

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1 अगस्त 1967 को जन्मे देवेश जोशी फिलहाल राजकीय इण्टरमीडिएट काॅलेज में प्रवक्ता हैं. उनकी प्रकाशित पुस्तकें है: जिंदा रहेंगी यात्राएँ (संपादन, पहाड़ नैनीताल से प्रकाशित), उत्तरांचल स्वप्निल पर्वत प्रदेश (संपादन, गोपेश्वर से प्रकाशित) और घुघती ना बास (लेख संग्रह विनसर देहरादून से प्रकाशित). उनके दो कविता संग्रह – घाम-बरखा-छैल, गाणि गिणी गीणि धरीं भी छपे हैं. वे एक दर्जन से अधिक विभागीय पत्रिकाओं में लेखन-सम्पादन और आकाशवाणी नजीबाबाद से गीत-कविता का प्रसारण कर चुके हैं. 

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