दूसरा विश्व युद्ध समाप्त हुए डेढ़ दशक हुए थे और दुनिया साम्राज्यवाद के नरम संस्करणों में शांति और समृद्धि के नए रास्ते तलाश रही थी. युद्ध की विभीषिका के बाद विज्ञान से बेहतर कल की अपेक्षाएं बढ़ गई थीं और तकनीक नए स्वरूप में ढल रही थी. कैंब्रिज विश्वविद्यालय सीनेट हाउस में फिजिकल केमिस्ट्री के प्रोफेसर सर चार्ल्स स्नो ने 07 मई 1959 को एक भाषण दिया जिसे दुनिया ‘द टू कल्चर्स’ के नाम से जानती है. इस भाषण से विश्व भर के अकादमिक जगत में हलचल मच गई. पहले दो, फिर कई धड़ों में बंटे हुए बुद्धिजीवी आज भी इस सिद्धांत की काट या इसके पुष्टिपेषण में मुब्तिला हैं.
(C P Snow’s Two Cultures)
सर स्नो का कहना था कि आधुनिक सभ्यता में हम विकास के एक ऐसे बिंदु पर खड़े हैं जिसमें विज्ञान और मानविकी नाम की दो सबसे महत्वपूर्ण धाराएं अपने हुनर की विशेषज्ञता हासिल करते हुए एक दूसरे से इतनी अलग और दूर हो चुकी हैं कि एक तरह से दो संस्कृतियां सी बन गई हैं. दुनिया जिन समस्याओं से जूझ रही है उन्हें सुलझाने में इन दो संस्कृतियों का अलगाव एक तरह की बेहद दुर्गम बाधा बन चुका है. इस सिद्धांत को साबित करने के लिए स्नो एक मज़ेदार बात कहते हैं– नेशनल लिटरेरी सोसायटी के लोगों से पूछिए कि आप में से कितने लोग ऊष्मप्रवैगिकी यानी थर्मोडायनामिक के दूसरे नियम की व्याख्या कर सकते हैं तो शायद ही कोई जवाब मिले. इसी तरह से अगर वैज्ञानिकों से ये पूछा जाए कि आप में से कितनों ने शेक्सपियर के नाटक पढ़े हैं या चार्ल्स डिकेंस को पढ़ते हैं तो भी जवाब मिलना बहुत मुश्किल है. कहने का तात्पर्य ये है कि मानव सभ्यता की बेहतरी और एक बेहतर समझ के लिए विज्ञान और मानविकी के जिस संतुलन की ज़रूरत है, वो सिरे से नदारत है.
इस भाषण और उसपर आधारित उनकी किताब ‘द टू कल्चर्स एंड द साइंटिफिक रिवोल्यूशन’ की जबर्दस्त प्रतिक्रियाएं आईं. लेकिन आपको जानकर आश्चर्य होगा कि इस सिद्धांत की काट या नकार से ज़्यादा ज़ोर पश्चिमी जगत में इस बात पर रहा कि ये जताया जाए कि दो संस्कृतियों के बीच जितनी दूरी स्नो बता रहे हैं उतनी है नहीं. वैज्ञानिकों ने बाकायदा अपनी पढ़ी (और लिखी हुई भी) किताबें, अपनी रुचियां और सामाजिक गतिविधियों का उल्लेख करना शुरू किया तो वहीं मानविकी के बुद्धिजीवियों ने अपने सिद्धांतों के प्रतिपादन, अपनी समझ और अभिव्यक्ति में विज्ञान, या कहें कि टेक्निकल आधारों की ओर ध्यान दिलाने की कोशिशें शुरू कर दीं.
ये कोशिशें आजतक जारी हैं. बल्कि अब, जिन दो संस्कृतियों की बात सर स्नो कर रहे थे उनके बीच बहुतेरे पुल, सीढ़ियां और कड़ियां दिखाई देती हैं. आज वो उस दशा में हैं कि कह सकते हैं कि उन्होंने एक समावेशी ‘थर्ड कल्चर’ की नींव रख ली है जिसमें समाज के बेहतर कल का अक्स बहुत हद तक साफ़–साफ़ दिखता है. वो कह सकते हैं ‘साइंटिस्ट्स एंड द लिटरेरी इंटेलेक्चुअल्स गो हैंड इन हैंड टू बिल्ड अ बेटर फ्यूचर फॉर मैनकाइंड.’
(C P Snow’s Two Cultures)
इस ‘बेटर फ्यूचर’ वाले विकास के रास्ते और मंजिलों के विमर्श में फिलहाल न उलझते हुए हम इस बात को एक उदाहरण से समझते हैं. नब्बे के दशक के आखिरी सालों में जिस वक्त अमरीका के आर्म्ड फोर्सेज इंस्टीट्यूट ऑफ पैथोलॉजी के मॉलिक्युलर पैथोलॉजी के प्रमुख डॉक्टर जेफरी टौबेनबर्गर ‘द स्पेनिश लेडी’ यानी 1918 के इन्फ्लूएंजा वायरस के जेनेटिक मैटेरियल को खोलने में पूरी तरह व्यस्त थे, और जैसा कि वैज्ञानिकों के बारे में आम राय है, देश–दुनिया से कटे हुए थे, एक लेखक ने अपने उपन्यास की भारी भरकम पांडुलिपि के साथ उनसे संपर्क किया. उपन्यास बायो–वार से संबंधित था और वो लेखक उनसे ये चाहता था कि उसकी तकनीकी जानकारियों को दुरुस्त करने में उनकी मदद करें. टौबेनबर्गर अपने रिसर्च के आखिरी हिस्से में थे, हल्टिन के द्वारा भेजे गए फेफड़ों के नमूने उन्हें मिल चुके थे और कुछ ही दिनों में चिकित्सा विज्ञान के लिए इस शताब्दी की बड़ी ब्रेकथ्रू होने सकती थी. टौबेनबर्गर के पास कोई कारण नहीं था कि उन सैकड़ों पन्नों के ड्राफ्ट में अपना सिर खपाएं. लेकिन यहीं–कहीं किसी बिंदु पर ‘टू कल्चर्स’ का मेल होता है. टौबेनबर्गर ने न केवल उस पांडुलिपि को पढ़ा बल्कि विषाणु विज्ञान के अपने ज्ञान और अनुभव से उपन्यास के लेखक लियोनार्ड क्रेन को इतना कच्चा माल दे दिया जिससे ‘द नाइंथ डे ऑफ क्रिएशन’ जैसा लगभग सात सौ पन्नों का उपन्यास संभव हो सका जिसकी टेक्निकल डीटेल्स लाजवाब हैं.
(C P Snow’s Two Cultures)
क्या ‘टू कल्चर्स’ के बीच की खाई हमारे यहां नहीं दिखती? हम यहां भी दो अलहदा जमातों से पूछकर देखें? अपने आस–पास के वैज्ञानिकों, डॉक्टरों, इंजीनियरों से ज़रा पूछकर देखिए. उनके लिए छायावाद के बाद कविता समाप्त हो गई है, गोदान के बाद उपन्यास! उन्हें मालूम ही नहीं कि ‘ख्वाहिस नहिं मुजे मशहुर होने कि मेरे लिए इतना ही काफी है की आप मूजे जानते हो’ बच्चन जी की कविता नहीं है या ये कि दरअसल ये कविता ही नहीं है. इसी तरह से कथाकारों, कवियों, लेखकों से पूछिए. उनके लिए टैक्सोनॉमी इनकम टैक्स डिपार्टमेंट की कोई गाइडलाइन है और क्रायोजेनिक्स शायद रुदालियों की संतान को कहते हैं. उन्हें खुद नहीं पता कि उनके रडार बादलों को चीर पाते हैं या नहीं? (और हम जैसे लोग भी हैं जिनके पास हिंदी के अतिरिक्त देश की इतनी शानदार अन्य भाषाओं, बोलियों की कविता, कहानियों से उदाहरण पूछने भर की जानकारी नहीं है)
खैर! मुझे ये पढ़कर सुखद अहसास हुआ कि डॉक्टर टौबेनबर्गर को उस पांडुलिपि में जीव विज्ञान या वायरस की तकनीकी जानकारियों से ज्यादा मज़ा प्रशांत महासागर में नौसेना युद्ध संबंधित दृश्यों के बारे में लेखक से विचार विमर्श करने में आया. लेखक ने डॉक्टर टौबेनबर्गर की सलाह से किताब का एक अलग अध्याय अमरीकी नौसेना के एयरक्राफ्ट कैरियर और चीन की प्रमाणविक क्षमता वाली पनडुब्बी के बीच युद्ध का बनाया जो पाठकों के लिए आज भी किताब का सबसे रोमांचकारी हिस्सा है.
अगर इस बात को पढ़कर आपका कोई वैज्ञानिक, इंजीनियर या डॉक्टर दोस्त अपनी पढ़ी (या लिखी) हुई किताबों, कहानियों, कविताओं की लिस्ट बनाता नज़र आ जाए अथवा कोई कवि कविता की पंक्तियों के बीच ‘हैश वैल्यू’ के इस्तेमाल की बात कहने लग जाए तो प्लीज़ डोंट ट्रोल हिम ऑर हर… समझिए कि दो संस्कृतियों के नुमाइंदे इस सिद्धांत को खारिज करने के लिए नहीं बल्कि एक बेहतर समाज की नींव रखने के लिए साथ आ रहे हैं. हमारे यहां भी ‘थर्ड कल्चर’ का बीज अंखुआ रहा है.
(C P Snow’s Two Cultures)
डिस्क्लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं.
उत्तराखण्ड के पुलिस महकमे में काम करने वाले वाले अमित श्रीवास्तव फिलहाल हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात हैं. 6 जुलाई 1978 को जौनपुर में जन्मे अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी तीन किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता) और पहला दखल (संस्मरण) और गहन है यह अन्धकारा (उपन्यास).
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