गोरखा शासनकाल उत्तराखण्ड में गोरख्याणी के नाम से जाना जाता है. सन् 1790 ई. में चैतरिया बहादुर शाह, सेनापति काजी जगजीत पाण्डे, अमरसिंह थापा, एवं सूरवीर थापा के नेतृत्व में गोरखा सेना ने कुमाऊँ पर आक्रमण किया. हवालबाग नामक स्थान पर हुए इस युद्ध में चंद वंशीय अंतिम राजा महेन्द्र चंद को पराजित कर, गोरखाओं ने कुमाऊँ में गोरखा शासन की नींव डाली. कुमाऊँ में गोरखा अधिकारी (सुब्बा) शासन चलाते थे, जबकि वास्तविक प्रशासन नेपाल से चलाया जाता था. अगले ही वर्ष सन् 1791 ई. में गोरखा सेना द्वारा गढ़वाल पर एक असफल आक्रमण किया गया. इसके उपरान्त भी छुट-पुट आक्रमणों का सिलसिला जारी रहा. अन्ततः सन् 1804 ई. में पंवार वंशीय राजा प्रद्युम्नशाह और गोरखा सेना के मध्य हुए खुड़बुड़ा के युद्ध में गढ़नरेश पराजित हुए और गढ़वाल में भी गोरखा शासन स्थापित हो गया. (Judicial Gorkha rule Uttarakhand)
इस दौरान कुमाऊँ-गढ़वाल के लोगों पर गोरखा संस्कृति व रीति-रिवाजों के साथ ही उनकी अनोखी न्याय-प्रणाली व दण्ड-विधान भी थोपे गए. गोरखों से पूर्व चन्द शासनकाल में पंचायत-प्रणाली के अन्तर्गत माहरा व फर्त्याल राजपूत दल न्याय करते थे और अपराध के अनुसार दण्ड निश्चित करते थे, परन्तु मृत्युदण्ड देने का अधिकार केवल राजा को था. मृत्युदण्ड गम्भीर अपराध करने पर ही दिया जाता था.
इसके विपरीत गोरखाकाल में न्याय सम्बन्धी सम्पूर्ण अधिकार सेना नायक अर्थात सुब्बा को दिये गये थे, जो विश्वासघात के लिए भी प्राणदण्ड दे दिया करते थे. गाय को जानबूझकर मारने, पुरुष द्वारा व्यभिचार करने, हत्या करने, देशद्रोह करने आदि पर मृत्युदण्ड देने का प्रावधान था. यदि निम्न जाति का व्यक्ति ब्राह्मण या राजपूत के हुक्के से तम्बाकू पी लेता तो उसे भी प्राणदण्ड दिया जाता था. हत्यारे को पेड़ पर लटका कर फाँसी दी जाती थी. यदि हत्या किसी ब्राह्मण द्वारा की गई हो तो उसे देश-निर्वासन की सजा दी जाती थी. ब्राह्मणों को चोरी करने पर शिखा काटना व सूत्र (जनेऊ) उतारना तथा अन्य अपराधों के लिए सम्पत्ति जब्त करना व जुर्माना लगाना आदि दण्ड दिए जाते थे. अनेक अपराधों में अंग-भंग करके घावों पर नमक-मिर्च का छिड़काव किया जाता था. अधिकांशतया नाक, कान और हाथ काटे जाते थे. व्यभिचारी स्त्री की नाक काटी जाती थी. यदि कोई पुरुष अपनी पत्नी को किसी परपुरुष के साथ व्यभिचार करते हुए पाता था तो उसे अपनी पत्नी और उस व्यभिचारी पुरुष को मारने की स्वतंन्त्रता थी. ऐसा करने पर उसे कोई दण्ड नहीं दिया जाता था. हालांकि यह कुप्रथा चंद शासनकाल से चली आ रही थी. ब्रिटिश शासन स्थापित होने के पश्चात् सन् 1817 में इस कुप्रथा को समाप्त कर दिया गया.
इसके साथ ही, आत्महत्या करने वाले व्यक्ति के परिजनों को भी जुर्माना देना पड़ता था. मृत्युदण्ड का अपराधी भारी अर्थदण्ड देकर मृत्युदण्ड से मुक्त हो सकता था. न्याय करने में विलम्ब नहीं किया जाता था. प्रारम्भिक चरण में विवादों को समझौतों द्वारा हल करने का प्रयास किया जाता था, जिसके लिए वादी-प्रतिवादी व साक्षियों को महाभारत के एक भाग ’हरिवंश’ की शपथ दिलवायी जाती थी. इसके अतिरिक्त मंदिर, अपनी संतान अथवा विवादित वस्तु को न्याय के देवता का प्रतिरूप मानकर उसकी शपथ दिलवाने का भी प्रावधान था. साक्ष्यों के अभाव में विभिन्न प्रकार के दिव्यों द्वारा परीक्षा ली जाती थी, जिनका संक्षिप्त विवरण निम्नवत् है—
गोला दीप- इस दिव्य के अन्तर्गत वादी-प्रतिवादी को हाथ में गर्म लोहे की छड़ पकड़कर कुछ दूर तक चलना होता था. जिसका हाथ जल जाता था, वह दोषी माना जाता था.
कढ़ाई दीप- इस विधि में उबलते तेल की कढ़ाई में हाथ डलवाते थे. जिसका हाथ जल गया वो दोषी, जिसका नहीं जला वो निर्दोष माना जाता था.
तराजू दीप- इस दिव्य में अपराधी को तराजू में पत्थरों से तोला जाता था और उन पत्थरों को सम्भाल के रख दिया जाता था. अगले दिन पुनः उन्हीं पत्थरों से तुलाई होती. यदि अपराधी का वजन पहले दिन से कम निकला तो दोषी, अधिक निकला तो निर्दोष माना जाता था.
जल दीप या बौं काटि हारया दीप- गोरखाओं के क्रूर विधानों में यह सबसे अमानवीय दिव्य था. इसके अन्तर्गत वादी-प्रतिवादी के ऐसे बच्चों को जल में डुबाया जाता था, जिन्हें तैरना नहीं आता था. जिस पक्ष का बच्चा देर तक जीवित रहता, उस पक्ष को विजयी घोषित किया जाता.
कालो हल्दो दीप अथवा जहर दीप- इस दिव्य में वादी-प्रतिवादी को काली हल्दी या जहर खाने को दिया जाता था. जो व्यक्ति जीवित रह जाता, वह निर्दोष मान लिया जाता.
तीर दीप- तीर दीप में अपराधी की परीक्षा लेने के लिए उसका सिर तब तक पानी में डुबाए रखा जाता, जब तक दूसरा व्यक्ति छोड़े गए तीर तक पहुँचकर वापस नहीं आ जाता था. यदि व्यक्ति के वापस आने तक अभियुक्त जीवित रह जाता था तो उसे निर्दोष मान लिया जाता था.
घात दीप- इस दिव्य के अन्तर्गत न्यायकारी देवता ग्वेल, भैरव, भूमिया, नरसिंह, गड़देवी, कोटगाड़ी आदि स्थानीय देवी-देवताओं के थान में प्रतीकात्मक मूर्ति के ठीक सामने विवादित वस्तु, रुपये, मिट्टी आदि रखी जाती थी. स्वयं को निर्दोष साबित करने के लिए अभियुक्त को वह वस्तु उठाने को कहा जाता था. वास्तव में निर्दोष व्यक्ति ही वहाँ से वस्तु को उठाने की हिम्मत कर पाता था. यदि वस्तु उठाने के छः महिने के अन्तर्गत उसके परिवार में कोई दैवीय प्रकोप अथवा जन-हानि जैसी अप्रिय घटना घटित नहीं होती थी, तो उसे निर्दोष मान लिया जाता था. पर्वतीय अंचलों में आज भी कहीं-कहीं न्याय की यह विधि देखी जा सकती है.
मंदिर दीप- मंदिर दीप में यह विधान था कि वादी-प्रतिवादी के नाम लिखे कागज के टुकड़ों को मंदिर में मुख्य देवता की मूर्ति के ठीक सामने रखा जाता था. पुजारी द्वारा सर्वप्रथम उठाई गई पर्ची में जिसका नाम लिखा आता उसे निर्दोष मान लिया जाता और दूसरे व्यक्ति को दोषी.
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इन सभी परीक्षाओं में न्याय सबूतों के आधार पर नहीं बल्कि अभियुक्त के भाग्य पर निर्भर करता था. कुछ दिव्य तो ऐसे थे, जिनमें अभियुक्त को हर हाल में दोषी साबित होना ही था. खौलते तेल में हाथ डालने पर एवं गर्म लोहे की सलाख पकड़ने पर हाथ का न जलना असम्भव है. इसी प्रकार तराजू से तोलने वाले दिव्य में किसी भी व्यक्ति का वजन एक दिन में बढ़ा हुआ निकलना भी असम्भव है. जल दीप में एक पक्ष के बच्चे की मृत्यु निश्चित होती थी. काली हल्दी अथवा जहर खाने पर भी बचना अत्यंत कठिन था. तीर दीप में भी कई ऐसी परिस्थितियाँ हो सकती थी, जो अभियुक्त की मृत्यु को निश्चित कर सकती थी. घात दीप की बात करें तो छः माह की अवधि में कोई भी अप्रिय घटना घटित होना अनिश्चित नहीं था.
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मंदिर दीप मे तो न्याय पूरी तरह भाग्य पर ही निर्भर था. निम्न जाति के व्यक्ति द्वारा उच्च वर्ग के लोगों के हुक्के से तम्बाकू पीने जैसे साधारण अपराध के लिए मृत्युदण्ड देना सोच से परे है. अंग-भंग और उस पर भी घावों पर नमक-मिर्च छिड़कना अत्यंत द्रवित कर देने वाला विचार है. इसे क्रूरता की सीमा कहा जा सकता है. चूंकि सुब्बा अधिकांशतया युद्धों में ही रत रहते थे, तो वे अपने न्यायिक अधिकार अपने अधिनस्थ अफसरों को सौंप देते थे, जिन्हें ’विचारी’ कहा जाता था. विचारी सभा और पंचायत के माध्यम से निश्चित शुल्क लेकर मुकदमे की सुनवाई करते थे. किसी भी वाद में जब वादी पंचों की अदालत में पेश होता था तो उसे बैठे हुए पंचों के लिए दारू और बकरे की व्यवस्था करनी होती थी. पंच दारू और बकरे का संकल्प लेकर वादी के ऊपर पानी का छिड़काव करते थे, और शपथ लेते थे कि उचित विधि से न्याय किया जाएगा. वास्तव में यह संकल्प सूत्र पंचों की भोजन व्यवस्था होती थी. उक्त विवेचना के आधार पर सरलता से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि गोरखाकालीन न्याय प्रणाली अत्यंत अतार्किक और अमानवीय थी. जनता में गोरखाओं का भय इस हद तक व्याप्त था कि गोरखाकाल में लोग अपराध करने से डरते थे. भय के कारण ही सही लेकिन अपराधों में कमी अवश्य हो गई थी.
मूल रूप से मासी, चौखुटिया की रहने वाली भावना जुयाल हाल-फिलहाल राजकीय इंटर कॉलेज, पटलगाँव में राजनीति विज्ञान की प्रवक्ता हैं और कुमाऊँ विश्वविद्यालय से इतिहास की शोध छात्रा भी.
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